सुशासन बाबु के राज्य में लाखों फर्जी नामांकन. - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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बुधवार, 25 जनवरी 2012

सुशासन बाबु के राज्य में लाखों फर्जी नामांकन.


बिहार के स्कूलों में कम-से-कम दस लाख ऐसे नाम दर्ज बताये जा रहे हैं, जिन्हें फ़र्ज़ी या डुप्लीकेट नामांकन माना जा रहा है. ख़ुद राज्य सरकार के आदेश पर इनमें से तीन लाख नाम स्कूल-रजिस्टर से हटाये जा चुके हैं. और यह सिलसिला अभी जारी है. स्कूलों में फ़र्ज़ी दाख़िला के ज़रिये किया गया अरबों रूपए का यह घपला इन दिनों यहाँ काफ़ी चर्चा में है. इस कारण राज्य सरकार के कई बहुप्रचारित दावों की बड़ी फजीहत हुई है. 

जिस ग़ैर सरकारी संस्था ने दो साल पहले एक सर्वेक्षण में बिहार को स्कूली नामांकन वृद्धि-दर में अव्वल क़रार दिया था, उसी ने अब यहाँ शिक्षा गुणवत्ता में कमी के आंकड़े दिखाए हैं. सवाल है कि अब उस वाहवाही वाले प्रमाणपत्र का क्या होगा, जिसे नीतीश सरकार ने अपने शासन के छह साल में उन्नीस लाख से भी अधिक बच्चों का नामांकन-आंकड़ा बताकर हासिल किया था. मुख्यमंत्री ने यह भी कहा था कि अब सिर्फ ढाई लाख बच्चे ही इस राज्य में स्कूल से बाहर हैं. उनके यही आंकड़े अब झूठे साबित हो रहे हैं. 

मिड- डे- मील यानी मध्याह्न भोजन योजना से लेकर ' मुख्यमंत्री बालक- बालिका साइकिल / पोशाक योजना' और स्कूल भवन निर्माण तक इस घपले का जाल फैलता रहा. आरोप है कि राज्य सरकार सब देख- समझ कर भी तब तक चुप रही, जब तक पानी सर से ऊपर जाता हुआ ना दिखा. राज्य सरकार से ही जुड़ी हुई संस्था ' ए.एन.सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज़' के निदेशक डी.एम.दिवाकर ने हालात पर बेबाक टिप्पणी की. उन्होंने कहा "यह सवाल उस डेलिवरी मेकेनिज़म का है, जिसमें ऊपर के अधिकारी से लेकर स्कूल के हेड मास्टर तक, सभी ज़िम्मेदार हैं. क्योंकि ये लोग स्थानीय स्तर पर इसकी छान- बीन कर के पता लगा सकते थे कि नामांकन फ़र्ज़ी है या असली. सरकारी महकमे में जो इस योजना के लाभार्थी शिक्षक, अधिकारी या ग्रामीण शिक्षा समिति / पंचायत के लोग हैं, उन सब की इसमें मिलीभगत है."

एक ही बच्चे का दो या तीन विद्यालयों में नाम होने और स्कूल आने वाले बच्चों की सही तादाद से कई गुना अधिक संख्या में बच्चों के नाम स्कूल - रजिस्टर पर दर्ज रहने की शिकायतें सही पाई गईं. शुरुआती जांच में ही हज़ारों ऐसे मामलों का पता चला है, जिनमे लड़की या लड़के के अभिभावकों ने रिश्वत देकर अलग- अलग दो या तीन स्कूलों से प्रति साइकिल के मद में बाईस सौ रूपए और प्रति पोशाक मद में सात सौ रूपए हासिल कर लिए.

राज्य के कुल 38 ज़िलों में से पांच ज़िलों में ढाई हज़ार साइकिलों के लिए फ़र्ज़ी भुगतान और 20 ज़िलों में 8 लाख 52 हज़ार जाली नामांकनों के ज़रिये नाजायज़ लाभ लेने के समाचार सरकारी सूत्रों के हवाले से छपे हैं. और ये आंकड़े हर रोज़ बढ़ते ही जा रहे हैं. राष्ट्रीय जनता दल के प्रदेश अध्यक्ष और पूर्व शिक्षा मंत्री रामचन्द्र पूर्वे ने कहा है कि '' सर्व शिक्षा अभियान के अरबों रूपए की जो लूट बिहार में हुई है. उसकी सी.बी.आइ. से जांच होनी चाहिए. और अब स्पष्ट हो गया है कि राज्य के मुख्यमंत्री, शिक्षा मंत्री और विभागीय प्रधान सचिव के संरक्षण में ये घपला पांच वर्षों से चल रहा है. ''

लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष राम विलास पासवान ने भी कुछ इसी तरह का बयान देकर यहाँ विपक्ष की औपचारिकता निभा दी है. इसलिए प्रेक्षक मानते हैं कि अब बिहार में हिम्मत-पस्त विपक्ष को राज्य सरकार के ख़िलाफ़ चाहे जितना भी बड़ा मुद्दा हाथ लगे, वह उसे असरदार जन-अभियान बनाने की ताक़त ही नहीं जुटा पा रहा है.मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपनी जिस ' बालक-बालिका साइकिल / पोशाक योजना ' को राज्य सरकार की उपलब्धियों में सबसे ऊपर बताते आ रहे थे, उसे ही इस नामांकन घोटाले ने लकवा-ग्रस्त कर दिया है. ज़ाहिर है कि सुशासन का दावा कर रहे सत्ता-सूत्रधार को अपनी सबसे प्रिय योजना पर लगा धब्बा क़ाबिले बर्दाश्त नहीं हो सकता था. इसलिए ' झट रंग बदलो ' की आपात-रणनीति बन गयी. इसी रणनीति के तहत मुख्यमंत्री ने बिना देर किये अपने एक दिलचस्प बयान में कहा - '' यह गड़बड़ी ख़ुद मैंने पकड़ी है और मेरे ही निर्देश पर स्कूली शिक्षा में गुणवत्ता मिशन के तहत स्कूल-रजिस्टर क्लीनिंग की कार्रवाई की जा रही है.'' फिर तो यहाँ के सत्ता-प्रेमी अख़बारों ने मुख्यमंत्री के इस बयान में ऐसा रंग भरा कि घपले की ज़िम्मेदार सरकार के मुखिया ही उनकी नज़र में खोजी पत्रकारिता के हीरो बन गये. जबकि उन अख़बारों का अपना अखबारी दायित्व ज़ीरो नज़र आने लगा.

एक प्रसिद्द शिक्षा विद्द के अनुसार पिछले पांच वर्षों में इस घपले के सबूत सरकार को साफ़-साफ़ दिखते रहे, पर स्कूल में नामांकन- वृद्धि का प्रचार- सुख और वोट बैंक बढ़ने का लोभ आड़े आता रहा. वर्ष 2007 से ही कई सारे दस्तावेज  राज्य सरकार के सामने रखकर दिखाया और समझाया गया था कि स्कूलों में दाख़िला के सरकारी आंकड़े इन्फ्लेटेड हैं,बढ़ा-चढ़ाकर रखे गये हैं. यहाँ तक कि शिक्षामंत्री और मुख्यमंत्री की मौजूदगी में भी कई बार कहा कि जो फ़र्ज़ी आंकड़े बनाये जा रहे हैं, उससे बड़े घपले का विस्फोटक रूप सामने आ सकता है.''

इस घपले को राज्य सरकार द्वारा अंततः छिपा कर नहीं रख पाने की विवशता के बारे में कहा '' अब छिपाना इसलिए संभव नहीं रहा, क्योंकि जो असल में बच्चे थे ही नहीं, सिर्फ स्कूल के कागज़ पर थे, उनकी वजह से कई तरह के अंतर्विरोध विभिन्न स्कूली योजनाओं के आंकड़ों में उभरने लगे. इतने बड़े पैमाने पर हुए झूठ-फरेब को लम्बे समय तक सम्हाल पाना संभव नहीं हो सका.''

सर्व शिक्षा अभियान के तहत केंद्र से मिले अरबों- अरब रूपए की लूट का ऐसा बाज़ार पूरे बिहार में सज गया कि बेचारी स्कूली- शिक्षा बदहाल होती गई, लेकिन शिक्षा महकमा के सौदागर मालामाल होते रहे. इन तमाम गड़बडियों को अच्छी तरह जान- समझ रही सरकार ने ' शिक्षा गुणवत्ता मिशन' के ज़रिये फिर कोई नया श्रेय लेने की योजना चलाई. लेकिन वह बूमरैंग कर गई, यानी उलट-वार साबित हुई. मतलब शिक्षा- व्यवस्था के शुद्धिकरण का एक नया नाटक तो खेला गया, लेकिन इस महकमे में व्याप्त भ्रष्टाचार की सडांध को किसी नए परदे से ढकने की चालाकी फ़ेल कर गई. इस पूरे प्रकरण के क्लाइमैक्स यानी चरम- बिंदु का दर्शन आप मुख्यमंत्री के सिर्फ एक वाक्य में कर सकते हैं. वह वाक्य है - " ये क्या हो गया, अंजनी बाबू !! "

यहाँ स्पष्ट कर दें कि अंजनी कुमार सिंह बिहार सरकार के शिक्षा विभाग के प्रधान सचिव हैं. इन्हें नीतीश राज में सबसे मालदार शिक्षा साम्राज्य के सम्राट जैसा रुतबा अगर हासिल है तो इसका कोई विशिष्ट कारण होगा ही.  

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