धीर-गंभीर होना अलग बात है और हमेशा गंभीर रहना अलग बात। गंभीर बातों के वक्त गंभीर रहना और उसके अलावा हमेशा अपनी मस्ती में रहना बिरले लोग ही कर सकते हैं। अन्यथा अधिकांश लोग तो आजकल हँसना भूल गए हैं, खिलखिलाना तो गायब ही हो गया है। बात अपने आस-पास की हो या दूर की, घर की हो या बाहर की, लगता है जैसे मुस्कुराहट का बीज ही नष्ट हो गया है। हमेशा लोग गंभीर दिखाई देने लगे हैं जैसे किसी भयानक समस्या या असाध्य रोग ने घेर लिया है। ये सपने भी
देखेंगे तो गंभीर किस्म के।
कुछ लोग वाकई गंभीर होते हैं तो काफी लोग जान-बूझकर गंभीरता ओढ़ लेते हैं। इनका भ्रम होता है कि बड़ा होना है तो गंभीर रहना चाहिए। इसी भ्रम को पाल लेने वाले लोग हरदम हर मौसम में गांभीर्य का कम्बल ओढ़े रहते हैं। जागने से लेकर सोने तक के सारे काम ये पूरी गंभीरता के साथ करते हैं जैसे इनकी हर गतिविधि का कोई मूल्यांकन ही कर रहा है। आडम्बरी गांभीर्य ओढ़ लेने वाले ऐसे लोग घर-बाहर, दफ्तर-मन्दिर हर जगह गंभीरता के ब्रॉण्ड एम्बेसेडर के रूप में विद्यमान रहते हैं। ये लोग कभी उन्मुक्त या मौलिक नहीं रहते, गंभीरता को जीवन के एकमेव लक्ष्य के रूप में स्वीकारने वाले ये लोग और गंभीरता एक-दूसरे का इस कदर पर्याय हो जाते हैं कि इनके जीवन का कोई भी क्षण बिना गांभीर्य के नहीं रहता। वे क्षण भी जब आदमी को खिलखिला के हँसना चाहिए।
आडम्बरी गंभीरता का रोग आजकल बड़े लोगों तक ही सीमित नहीं रहा है बल्कि फोर्थ क्लास से लेकर आईएएस, आईपीएस, आरएएस, आरपीएस और ऐसी ही कितनी प्रजातियों का अपना राज-रोग हो गया है। इसमें वे लोग भी पीछे नहीं हैं जिनके यश की आयु जनता द्वारा निर्धारित होती है या कि जिन खिलौनों और बिजूकों में जनता हवा भरती है। ओढ़ी हुई गंभीरता के पुतले सर्वत्र विद्यमान हैं। कोई दफ्तर या संस्थान ऐसा नहींे बचा है जहाँ एकाध भी ऐसा गंभीर शख्स नहीं हो। बाजारों से लेकर देवालयों तक गांभीर्य की कठपुतलियाँ नाच रही हैं। इनकी डोर चलाने वालों से लेकर दर्शकों तक में भी इस प्रजाति के लोगों की कमी नहीं है। अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी में रोजाना ऐसे अनगिनत आडम्बरी गंभीर लोगों के पावन दर्शन होते हैं जिनके चेहरे पर गंभीरता का क्रीम मला हुआ रहता है। सवेरे, दोपहर और शाम तक ओढ़ी हुई गंभीरता उनके घर तक पीछा नहीं छोड़ती।
कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब ये गंभीरता के लबादों से ढंके हुए नहीं हों। अपने व्यक्तित्व को निखारने और रुतबेदार बनाने के भ्रम में ओढ़ी गई गंभीरता की रोजाना जमती रहने वाली परतों की वजह से इनका पूरा आभा मण्डल और परिवेश गांभीर्य के कीचड़ से सना हो उठता है। इसका सीधा असर ये होता है कि ये गांभीर्य फोबिया के शिकार हो जाते हैं। अपनी पूरी जिन्दगी ऐसे लोग न खुश रह सकते हैं, न औरों को खुश कर सकते हैं। ये दे सकते हैं सिर्फ कृत्रिम गांभीर्य, जो गमों और रोगों के साथ
पैदा होता है और एकाकीपन की ओर जा धकेलता है। अनौचित्यपूर्ण गंभीरता ओढ़े लोगों को मानसिक मरीज माना जाता है। दुनिया के समझदार लोग इनके करीब होने का विचार दूर से ही त्याग देते हैं क्योंकि जान-बूझ कर गंभीर हुए लोगों का सामीप्य भी गंभीर बना देने वाला होता है।
कई लोगों को पद मिलने के साथ ही ओढ़नी पड़ती है कृत्रिम गंभीरता। अपनी किसम की यह विचित्र गंभीरता ही ऐसी है जो उन्हें आम से ख़ास का दर्जा देती है वरना रोजाना हँसने-मुस्कुराने वाले आम आदमी से इनकी अलग पहचान कैसे हो। आज माना जाता है कि जो जितना ज्यादा गंभीर उतना बड़ा ओहदेदार। आदमी के लिए पद, प्रतिष्ठा और पैसे की चादरें ही हैं जो उसे विवश कर देती हैं गंभीर होने के लिए। ऊपर की गंभीरता पाने के फेर में हम अन्दर के धीर-गंभीर स्वभाव और स्वाभाविक मुस्कान को भुला बैठे हैं। दिन-रात निन्यानवें के चक्करों की उलझन ही ऐसी है कि आदमी न चाहते हुए भी जमाने की खातिर वह सब कुछ करने लग जाता है जो इंसान के लिए वर्जनाओं की श्रेणी में गिना जाता है।
दूसरों के सामने खुद को बहुत कुछ साबित करने की अंधी दौड़ का ही नतीजा है कि हम भी उस भीड़ में शामिल हो गए हैं जिसमें शामिल किसी आदमी को नहीं पता कि हमारी मंजिल कहाँ है। आप कहीं भी जाएं, सब जगह ऐसे लोग हैं जो मुँह फैलाये बैठे हैं। कोई खुद पर तो कोई एक दूसरे पर मुँह फुलायै बैठा है। कुछ के तो मुँह ही फूल-फूल कर ऐसे हो गए हैं कि अब छोटे होने का नाम तक नहीं लेते। ओढ़ी हुई गंभीरता और मुँह का फूलना दोनों के बीच गहरा रिश्ता है। एक होगा तो दूसरा अपने आप आ ही जाएगा। जो इनके सम्पर्क में आता है उसे लगता है जैसे ये गुस्से से तरबतर हो रहे हों।
इनकी मुख मुद्रा ही वह धारदार हथियार है जो लोगों को इनके करीब आने से रोक देता है और ये अपनी अजीब सी ही खुमारी में मगन रहते हैं। छोटे से लेकर बड़े-बड़े आयोजनों तथा बैठकों और सभाओं में ऐसे मुँह फुलाऊ और गंभीरता धारण करने वाले लोगों का ख़ासा जमावड़ा अच्छी तरह देखा जा सकता है। इन लोगों के चेहरों और हँसी के बीच जाने कैसी परम्परागत दुश्मनी होती है ये भगवान ही जान सकता है मगर इतना तो सच है कि ये लोग चाहते हुए भी न हँस सकते हैं न मुस्कान बिखेर पाते हैं। बड़े भारी ओहदों, प्रतिष्ठा के मोहपाशों और धन-वैभव के बोझ तले दबे लोग न मुस्कुरा सकते हैं न औरों के चेहरों पर मुस्कान ला सकते हैं। इसमें उनका कोई दोष नहीं......।
हँसी-खुशी आती है उसी अन्तर्मन से जो साफ सुथरा और निर्मल हो, उनसे नहीं जिनका जन्म ही कुटिलताओं के साथ जीने के लिए हुआ है।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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