उत्तराखण्ड के नेता राष्ट्रीय दलों के मोहरें - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

Breaking

प्रबिसि नगर कीजै सब काजा । हृदय राखि कौशलपुर राजा।। -- मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी ।। -- सब नर करहिं परस्पर प्रीति । चलहिं स्वधर्म निरत श्रुतिनीति ।। -- तेहि अवसर सुनि शिव धनु भंगा । आयउ भृगुकुल कमल पतंगा।। -- राजिव नयन धरैधनु सायक । भगत विपत्ति भंजनु सुखदायक।। -- अनुचित बहुत कहेउं अग्याता । छमहु क्षमा मंदिर दोउ भ्राता।। -- हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता। कहहि सुनहि बहुविधि सब संता। -- साधक नाम जपहिं लय लाएं। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएं।। -- अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के । कामद धन दारिद्र दवारिके।।

शनिवार, 31 मार्च 2012

उत्तराखण्ड के नेता राष्ट्रीय दलों के मोहरें


उत्तराखण्ड के अस्तित्व में आए 12 साल होने जा रहे हैं, लेकिन यह विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाला राज्य आज भी राष्ट्रीय राजनैतिक दलों के इशारों पर नाचने को मजबूर है। इतना ही नहीं यहां के नेता इन राष्ट्रीय दलों द्वारा बिछाई गई चौपड़ पर मोहरों की तरह मात्र रह गए है। इनकी मर्जी से ही ये नेता चाल चलते हैं। बीते विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा के वरिष्ठ नेता डा. मुरली मनोहर जोशी का यह बयान कि उत्तराखण्ड के नेता तो शतरंज की मोहरों की तरह हैं, बड़े नेता जब चाहें इनको उपयोग करते हैं। इस बात से प्रदेश की राजनीति से ताल्लुक रखने वाले लोग भी अब इत्तेफाक रखने लगे हैं। इनका कहना है कि डा. जोशी यह बयान सही है। राजनीति की बिसात पर बिछाई गए मोहरों को कब कहां और कैसे बदलना है यह राष्ट्रीय दल के आलानेता दिल्ली से तय करते हैं। कमोवेश यह स्थिति उत्तराखण्ड की दोनों प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों में है। 32 सीट पाने के बाद कांग्रेस के नेता सरकार बनाने चले और 31 सीट पाने वाली भाजपा के नेता उनकी राह में रोड़े अटकाने। 

राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा अब भी हार को आत्मसात नहीं कर पा रही है। इस खण्डित जनादेश को राजनीतिक विश्लेषक किसी भी दल को पूर्ण बहुमत अथवा सरकार बनाने के लिए एक आवश्यक संख्या तो नहीं बताते हैं, लेकिन इनके अनुसार कांग्रेस को एक सीट ज्यादा मिलने से उसका दावा सरकार बनाने के लिए पुख्ता अवश्य था और उसने इसका फायदा भी उठाया। इनके अनुसार भाजपा के नेताओं को चाहिए था कि वह स्वस्थ संसदीय परंपराओं का निर्वहन करते हुए विपक्ष में बैठते और कांग्रेस को उनकी कमियों को लेकर सदन में घेरते, लेकिन भाजपा ने पूर्ण बहुमत न होने के बावजूद भी राज्य में अस्थिरता का माहौल बीते दिन तक निरंतर बनाए रखा, जबकि उसे पता था कि उनके पास न तो विधानसभा अध्यक्ष के लिए, न तो अविश्वास प्रस्ताव पर कांग्रेस से ज्यादा मत और न राज्यसभा चुनाव के लिए आवश्यक संख्या ही थी। लेकिन इसके बावजूद उसने भाजपा आलाकमान के उन नेताओं के इशारो पर काम किया जिससे यह लगने लगा कि भाजपा सत्ता पाने के लिए कितनी बैचेन है। इतना ही नहीं इस नूराकुश्ती का यह संदेश भी आम जनमानस में गया कि भाजपा में विपक्ष में बैठने की इच्छा शक्ति की कमी है। जबकि वहीं दूसरी ओर कांग्रेस के नेताओं ने तमाम जोर आजमाईश के बावजूद तीन किलों पर अवश्य फतह की है, लेकिन यह बात दीगर कि इस समूचे घटनाक्रम में कांग्रेस के तमाम आलानेता भी नजर ही नहीं गढ़ाए रहे बल्कि वे राजधानी देहरादून की तमाम राजनैतिक गतिविधि पर बारीकी कि नजर रखे हुए थे। 

उत्तराखण्ड के शहीदों ने कभी यह न सोचा होगा कि जिस राज्य के निर्माण के लिए वे अपनी जान की बाजी लगा रहे हैं, उस राज्य में नेता दिल्ली में बैठे आलानेताओं के इशारे पर नाचने को मजबूर होंगे। उन्होंने यह कभी भी नहीं सोचा होगा कि इस राज्य का मुखिया दिल्ली से तय होगा न कि देहरादून से। इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि जिस राज्य का जन्म आंदोलन से हुआ हो उस राज्य में नेताओं को कुर्सी पाने के लिए तमाम तरह के आंदोलन करने पड़ रहे हैं। राजनीतिक विश्लेषकांे के अनुसार इस राज्य की एक ओर विडंबना यह भी है कि जिन लोगों का जनाधार है उनकों पार्टी टिकट नहीं देती और वह निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंच जाते हैं। वहीं कुछ ऐसे नेता भी हैं जो इन राष्ट्रीय दलों के प्रत्याशियों के खिलाफ खड़े होकर उनका गणित बिगाड़ने में सफल तो रहे हैं, लेकिन अपनी जीत दर्ज नहीं करा पाए। राज्य आंदोलन से जुड़े नेताओं का कहना है कि जब तक इस राज्य की राजनीति पर दिल्ली से थोपे हुए आदेश और निर्देश चलते रहेंगे तब तक सही मायनों में उत्तराखण्ड राज्य उत्तराखण्डियों का नहीं माना जा सकता। 

(राजेन्द्र जोशी)

कोई टिप्पणी नहीं: