बड़े नेताओं की हर रणनीति रही ‘नाकाम’
गठबंधन राजनीति में माहिर हैं निषंक
‘निषंक को मिलता मौका तो बन जाती सरकार’
विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद से बैकफुट पर रहे पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमेष पोखरियाल निषंक अचानक पार्टी के फ्रंट पर आ गए हैं। सरकार बनाने और कांग्रेस को घेरने की हर कोषिष में भाजपा के बड़े रणनीतिकारों के नाकाम होने के बाद अब अचानक भाजपाइयों को निषंक में उम्मीद की किरण नजर आने लगी है। कई विधायक तो अब दबी जुबान में ये तक कहने लगे हैं कि निषंक को पहले मौका मिला होता तो अभी तक राज्य में भाजपा की सरकार बन गई होती। डॉ. निषंक से भाजपाईयों की अचानक जागी उम्मीद का विष्लेषण करें तो यह सच भी भी है। क्योंकि उत्तराखण्ड की राजनीति में डॉ. निषंक ही ऐसे नेता हैं जिन्हें जोड़-तोड़ और गठबंधन की राजनीति का माहिर खिलाड़ी माना जाता है। राजनीति में रुचि रखने वाले आम आदमी से लेकर सियासत के पुरोधा और निषंक के विरोधी तक उनकी इस काबलियत से इत्तेफाक रखते हैं। शायद यही कारण है कि सियासी मोर्चों पर एक के बाद एक षिकस्त मिलने के बाद अचानक भाजपाइयों को डॉ. निषंक की याद आने लगी।
सोमवार तक जहां भाजपा के दिग्गज नेता धर्मेंद्र प्रधान, जनरल खंडूडी व भगत सिंह कोष्यारी पार्टी की रणनीतियां तय कर रहे थे, वहीं मंगलवार को अचानक भाजपा का परिदृष्य बिल्कुल बदल गया। विधानसभा अध्यक्ष पद के चुनाव में मिली करारी हार के बाद से भाजपा के सारे दिग्गज अचानक गायब हो गए। वक्त की नजाकत को देखते हुए मंगलवार को डॉ. निषंक के आवास पर भाजपाई विधायकों का जमावड़ा लग गया। यहीं से निषंक के नेतृत्व में सभी विधायक राज्यपाल के पास गए और मौजूदा सरकार पर संवैधानिक मूल्यों का हनन संबंधी आरोप का प्रस्ताव दिया। राजनीतिक विष्लेषकों की मानें तो कांग्रेस के खिलाफ रणनीतिक युद्ध में भाजपा की हर रणनीति नाकाम साबित हुई है। इससे पहले, राजभवन में सरकार बनाने का दावा पेष करने तथा निर्दलीयों एवं बसपा विधायकों को साधने में भी भाजपा खुद को कांग्रेस से आगे ही नहीं समझती रही बल्कि उसने अपने विधायकों को मध्यप्रदेष के उज्जैन तक की यात्रा यह बयान देकर करवायी कि वे प्रदेष की राजनीति में कुछ अलग करने जा रहे हैं। लेकिन जब दावा पेष करने की बात आई तो कांग्रेस बाजी मार गई। इस चुनाव में भाजपा को 31 तथा कांग्रेस को 39 मत पड़े।
विधानसभा अध्यक्ष पद का चुनाव हारना भाजपा की सबसे बड़ी रणनीतिक नाकामी साबित हुई। चुनाव से पहले भाजपा हाईकमान द्वारा अपने सभी विधायकों को उज्जैन भेजने के पीछे पार्टी नेता धर्मेंद्र प्रधान को रणनीतिक दावा था, नतीजों के बाद वो भी हवा हो गया। राज्य के वरिष्ठ भाजपाई खंडूडी और कोष्यारी भी हरबंष कपूर के नामांकन के दौरान अपनी जीत को लेकर पूरी तरह आष्वस्त थे। लेकिन हुआ इसका ठीक उल्टा कांग्रेस के फ्लोर मैनेजमैंट के सामने भाजपा की एक न चली। अभी तक कोई भी चुनाव न हारने वाले कपूर पर इस हार ने जहां उनके सियासी कैरियर पर एक दाग अवष्य लगा दिया वहीं सियासी गलियारों में पार्टी को बेइज्जत भी होना पड़ा। माना जा रहा है कि इस हार के बाद हरबंष कपूर ने धमेंन्द्र प्रधान को खूब खरी खोटी सुनाई। धमेंद्र प्रधान भी सोमवार को ही उत्तराखण्ड से अपना बोरिया बिस्तर समेट कर दिल्ली कूच कर गए। वहीं सोमवार के बाद से दोनों दिग्गज खंडूडी और कोष्यारी भी मीडिया की पकड़ से बाहर हैं।
विष्लेषकों का मानना है कि मौजूदा परिस्थितियों में भाजपा को एक ऐसे कुषल रणनीतिकार की जरूरत है जो न केवल सदन में कांग्रेस का मुहं तोड़ जवाब दे सके बल्कि गठबंधन सरकार की कमजोरियों के बीच से भाजपा की सरकार बनाने की संभावनाओं को जीवित कर सके। शायद ऐसे समय में डॉ. निषंक सबसे बेहतर विकल्प साबित हो सकते हैं, जिसका अहसास भाजपा को भी बखूबी हो चुका है। अब कई विधायक भी निषंक के समर्थन में आ चुके हैं। ऐसे कुछ विधायक अंदरखाने ये भी कहने लगे हैं कि अगर छह मार्च के बाद ही पार्टी द्वारा निषंक को मौका दिया जाता तो आज राज्य में भाजपा की सरकार होती। ये वहीं निषंक हैं जिनको विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद से पार्टी द्वारा परोक्ष रूप से किनारे किया गया था। इतना ही नही उन पर पार्टी के ही कुछ दिग्गजों ने भितरघात का आरोप भी लगाया, लेकिन आलाकमान ने इस आरोप को सिरे से खारिज कर निषंक को क्लीन चिट दे दी। अब देखना है कि भाजपा अपने इस कुषल रणनीतिकार को घोषित रूप से फ्रंट पर लाती है या नहीं!
(राजेन्द्र जोशी)
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