आलोचनाओं को मन से स्वीकारें - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शुक्रवार, 30 मार्च 2012

आलोचनाओं को मन से स्वीकारें


जीवन में यथार्थ और सत्य को अपनाएँ


आम तौर पर अपनी थोड़ी सी भी आलोचना होने पर लोग दुःखी हो जाते हैं और अपनी सारी सकारात्मक ऊर्जाओं को नकारात्मक सोच और शुचिताहीन गतिविधियों की ओर मोड़ लेते हैं। आलोचना से घबराए हुए लोग चाहे अनपढ़ हों, या पढ़े लिखे, या फिर आधे-अधूरे, ज्यादातर की मनोवृत्ति उन दिशाओं में डग भरने लग जाती है जहाँ से शुरू होता है रास्ता कुण्ठाओं, उद्वेगों और अशांति का।

आलोचना अपने व्यक्तित्व विकास के लिए सबसे बड़ी मददगार है और इसे यदि व्यक्ति सही अर्थों में सकारात्मक दृष्टिकोण से ले तो उसके व्यक्तित्व में चार नहीं चार सौ चाँद लग सकते हैं। दुनिया में कोई हमारा शत्रु नहीं होता, हमारी मानसिकता ही ऐसी हो जाती है कि जो हमारी आलोचना करे वह हमारा शत्रु। आलोचना और निंदा इन दोनों शब्दों का अर्थ समझने की जरूरत है। किसी भी व्यक्ति या घटना का विश्लेषण करते हुए उसके सभी पक्षों को ध्यान में रखकर स्वस्थ टिप्पणी की जाए उसे आलोचना कहते हैं। इसके विपरीत इन्हीं व्यक्तियों या घटनाओं का पूर्वाग्रह या दुराग्रहपूर्वक विवेचन किया जाए उसे निंदा की श्रेणी में लिया जाना चाहिए।

हम कोई भी बुरा काम करें, उसे और लोग बुरा कहें, यह आलोचना है जबकि बुरे कामों से हमारा कोई वास्ता न हो और लोग इसे अपने स्वार्थों तथा राग-द्वेष एवं ईर्ष्या से भरे रहकर बुरा कहें उसे निंदा कहा जाता है। सत्य को सबके सामने रखना स्वस्थ आलोचना का पर्याय है और इससे हमें भी अपनी कमियों और बुराइयों से दूर रहने का अपरोक्ष संदेश मिलता है। आजकल ऐसे-ऐसे लोग हमारे आस-पास हैं जो वे हर ऐसे काम कर रहे हैं जिनसे मानवता लज्जित हो रही है, ऐसे लोगों के बारे में अपनी बेबाक अभिव्यक्ति करना समाज के हित में है ताकि समाज को उनकी असलियत के बारे में साफ-साफ पता चल सके।

समाज को सत्य जानने का हक है और उन लोगों को भी है जो ऐसे दोहरे-तिहरे चरित्र वाले लोगों से संबंधित हैं। जानकारी के अभाव में बहुतेरे अनभिज्ञ लोग ऐसे लोगों को पूजनीय और आदरणीय मानने लग जाते हैं जो अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए जाने कैसे-कैसे समझौते और हथकण्डे करने में जुटे हुए हैं। आम लोगों को पता भी नहीं चलता कि समाज के लिए आत्मघाती लोग क्या-क्या नहीं कर गुजर रहे हैं। कभी यह विष बेल तो कभी अमर बेल के रूप में दूसरों का रस चूसते हुए आगे बढ़ने की होड़ में दिन-रात लगे रहते हैं। अपने आपको सबसे आगे रखने और आगे ही आगे दिखाने के लिए ये बड़े कहे जाने वाले लोगों की खुशामद करते हुए वे सारे काम कर डालते हैं जो पुराने जमाने में दास-दासियों और चाकरों से लिए जाते थे। इनकी पहुंच रसोई से लेकर बाथरूम्स तक हुआ करती है।

दुर्भाग्य यह है कि अपनी मिथ्या कीर्ति को ही जिन्दगी का सबसे बड़ा मक़सद समझने वाले लोगों के साथ उनके समानधर्मा करतूतधारियों की भीड़ भी जुट जाती है और ऐसे-ऐसे समूह बन जाते हैं जो समाज की छाती पर मूँग दलने के सिवा कुछ नहीं करते। यहाँ तक कि समाज और अपने कार्यस्थलों के संसाधनों और मुफतिया प्राप्त उपकरणों के सहारे जलेबी दौड़ में कभी इस पाले में तो कभी उस पाले में दौड़ लगाते रहते हैं। हर बार इनके जयकारे भी अलग और पाले भी जुदा-जुदा।   ऊपर से इनमें अहंकार और भ्रम इतना कि अपने आपको जमाने के चाणक्य और बीरबल या कि तेनालीराम से कम नहीं समझते। घटनाओं और दुर्घटनाओं के इन जन्मदाताओं का काम ही दूर बैठे माचिसराम की तरह है। वे चाहते हैं कि जो करें उसे करने दिया जाए, कोई अच्छा-बुरा न कहे।

जो उन्हें उल्टे-पुल्टे कामों में सहयोग करे वो उनका, नहीं करे तो पराया हो जाए एक झटके में। वे सामाजिक व्यवस्थाओं और नैतिक मूल्यों का चीरहरण करते रहें, और कोई सच कह भी न पाए। यह कैसे संभव है जबकि जमाने में अभी वे बीज बाकी हैं जिनसे समाज बनता है। मानवीय मूल्यों और नैतिकता के इन बीज तत्वों को पल्लवित-पुष्पित किया जा कर ही समाज को ऐसे घातक तत्वों से बचाए रखा जा सकता है। जो जहाँ है उसे सत्य और यथार्थ को सच्चे मन से स्वीकारना चाहिए। आज हम सच्चाइयों को नहीं स्वीकारेंगे तो दो बातें ही होंगी - या तो वृद्धावस्था तक पहुंचते-पहुंचते जीवन के नाकारापन पर पछतावा करने को विवश होना पड़ेगा अथवा भूत के किए काम भूत की तरह आस-पास मण्डराने लगेंगे।

इसलिए हर व्यक्ति को चाहिए कि वह स्वस्थ आलोचना को जीवन में स्थान दे और सर्वस्पर्शी व्यक्तित्व पाने के लिए मौसमी बेल की बजाय वट वृक्ष बनाने वाले रास्तों को चुनें। लेकिन इसके लिए जरूरी है मानवीय संस्कारांे को तहे दिल से आत्मसात करने की। दानवी मनोवृत्ति वाले लोग दैव मार्ग को नहीं अपना सकते, चाहे इसके लिए वे अध्यात्म और ज्ञान के कितने ही चोलें बदलते रहें, कितने ही पाखण्डों का सहारा लेते रहें।


---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077

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