आजादी के 67 साल बाद भी बिहार में विधुत संकट ज्यों-के-त्यों बनी हुई है. राजीव गाँधी ग्रामीण विधुतीकरण योजना के अंतर्गत राज्य के कई गाँवों में जब बिजली के खंभे लगे तो दीपावली मनाया गया. हालांकि ग्रामीणों की ख़ुशी ज्यादा दिनों तक नहीं टिकी. बिजली से जुडी समस्याएं इतनी है की लोग तंग आ गए है.
सबसे पहली समस्या है बिजली की उपलब्धता से संबंधित. पटना को छोड़कर अधिकतर जिला मुख्यालयों और खास कर ग्रामीण इलाकों में एक दिन में 8-10 घंटे भी सुचारू ढंग से विधुत आपूर्ति नहीं होती है. कारण मांग की तुलना में बिजली की आधे से भी कम मेगावाट बिजली की उपलब्धता. ग्रामीण इलाकों में देर रात बिजली आती है जिसका गाँव वाले किसी तरह का सदुपयोग नहीं कर पाते और उनके नींद खुलने से पहले बिजली चली जाती है. दूसरी समस्या पूरे व्यवस्था के रख-रखाव से संबद्ध है. ग्रामीण क्षेत्र में 25 केबी के कम क्षमता वाले ट्रांसफार्मर लगाये गए है जबकि उसकी तुलना में बहुत अधिक कनेक्शन बाटे गए है जिससे आये दिन इनके और फ्यूज़ खराब होने की समस्याओं से उपभोक्ताओं को जूझना पड़ता है. सामान्य बारिश और आंधी में भी पोल और तारों का गिर जाना आम बात हो गयी है. जिनको दुरुस्त करने के लिए प्रयाप्त संख्या में बिजली मिस्त्री नहीं है. इसका भी खामियाजा आम उपभोगताओं को भुगतना पड़ता और किसी छोटी-से-छोटी समस्या के कारण भी कई दिनों तक बिजली गायब रहती है. कहीं–कहीं तो खराब ट्रांसफार्मर
को बदलने में सालों लग जाते है.
असमय और बढ़े हुए बिजली बिलों से उपभोक्ता इतना परेशान हो गए है कनेक्शन तक कटवाने के लिए मजबूर है. बिजली और विकास का सम्बन्ध जगजाहिर है. हिमाचल प्रदेश और गुजरात जैसे राज्य आज अगर विकसित है तो बिजली की निर्वाध आपूर्ति की अहम भूमिका रही है. राज्य में शिक्षा, स्वास्थ, और औधोगिक ढांचा बिजली की कमी के कारण बहुत पीछे चला गया है. बिजली के उपलब्धता से व्यवसायी, छात्र और किसान आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल कर पाएंगे. परन्तु सरकारी उदासीनता एवं इच्छाशक्ति में अभाव के कारण आज भी बिहार पिछड़ता जा रहा है. कथित सुशासन की चमक अब धूमिल होते जा रही है.
अंकित श्रीवास्तव
भारतीय जन संचार संस्थान
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