विशेष : लोकतंत्र के दुर्ग में अनैतिक मूल्यों के छिद्र - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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रविवार, 22 जनवरी 2017

विशेष : लोकतंत्र के दुर्ग में अनैतिक मूल्यों के छिद्र

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इन दिनों सभी दलों द्वारा विभिन्न जातियों में समीकरण बैठाने की कोशिशें की जा रही हैं। पंजाब में तो धार्मिक स्थान राजनीतिक मंच बने हुए हैं। हर कोई डेरों की तरफ दौड़ रहा है। किसी नेता को अर्जुन के रूप में पेश किया जा रहा है तो किसी को भगवान श्रीकृष्ण। कुछ राजनीतिक दल देने की मुद्रा यानी दाता के रूप में खडे़ हैं तो कुछ लेने  वाले के रूप में। राजनीतिक जोड़-तोड़ के विचित्र खेल चल रहे हैं। जिसके पास जितने अधिक जाति एवं धर्म आधारित वोट हैं वह उतना ही बड़ा शहंशाह बना हुआ है। लोकतांत्रिक कहे जाने वाले मुल्क में लोकतंत्र का जमकर मखौल उड़ाया जा रहा है। चुनावी महाभारत में अभी और कितने ही रंग देखने को मिलेंगे। कुछ राजनीतिक दल यह दलील देते हैं कि जाति और धर्म के आधार पर वोट मांगना गैर कानूनी हो सकता है लेकिन उम्मीदवारों का चयन करना पार्टी का अधिकार है। इस स्थिति में हाल में सर्वोच्च न्यायालय का दिया फैसला लागू कराना चुनाव आयोग के लिए चुनौती है।

सुना है कि एक भिखारी शहर की एक मशहूर सड़क पर रोजाना भीख मांगता था। वहां उस सड़क पर उसका इतना दबदबा था कि वह दूसरे भिखारी को वहां घुसने ही नहीं देता था। कई वर्षों तक यह सिलसिला चलता रहा। एक दिन लोगों ने देखा कि वह भिखारी शहर की उस सड़क पर भीख मांगने नहीं आया। लोगों ने सोचा, क्या हुआ, वह रोजाना यहां आता है, आज क्यों नहीं आया? कुछ लोगों ने बताया कि वह दूसरे इलाके में चला गया। जब उससे दूसरे इलाके में जाने का कारण पूछा गया तो उसने कहा-‘मैंने अपनी बेटी की शादी की थी। यह इलाका मैंने उसको दहेज में दे दिया। इस इलाके में अब मेरा दामाद भीख मांगेगा?’ कितनी विचित्रता है! जिसके पास अपना कुछ भी नहीं है, रोटी भी जो मांगकर खाता है, वह भी पूरे एक क्षेत्र को, एक सड़क को बेटी को दहेज में दे सकता है। यह लोकतंत्र की विडम्बना है। ऐसी विडम्बनाओं से रोज साक्षात्कार होना देश के लिये शर्मनाक है। कब स्वस्थ लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना होगा? आज लोकतंत्र के दुर्ग में जितने छेद हो रहे हैं, अनैतिक मूल्यों के साथ घुसपैठ करने वालों को आसानी से मौका मिल रहा है। हमें मात्र उन छेदों को रोकना है, बंद करना है। यदि ऐसा होता है तो एक ऐसी जागरूकता बढ़ सकती है, जो बदलाव का मौका दे जाए, लोकतंत्र की संस्कृति का परिष्कार कर जाए, नैतिक मूल्यों का कद उठ जाए और आदमी-आदमी को पहचान दे जाए। प्रयत्न अवश्य परिणाम देता है, जरूरत कदम उठाकर चलने की होती है।

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लोकतंत्र में हर व्यक्ति की महत्वपूर्ण भूमिका है और उसी व्यक्ति के जीवन को सही रास्ते पर चलाने के लिए कुछ माइल स्टोन हैं- अनुशासन, ईमानदारी, समानता और सहिष्णुता। संभवतः इन्हीं मूल्यों की सुरक्षा के लिए भारत के नागरिकों ने स्वतंत्रता की कामना की थी। उन्होंने यह समझ लिया था कि लोकतंत्र के खुले आसमान के नीचे ही एक समृद्ध एवं सुसंस्कृत राष्ट्र का निर्माण संभव है। लेकिन दूषित राजनीति के कारण सत्तर सालों के बाद भी यह संभव नहीं हो पाया, इसके कारणों को खोजना और उसका समाधान करना जरूरी है। हमारी राजनीति की विडम्बना रही है कि वह मानवता से अलग ऐसे लोगों की भीड़ है, जिन्हें अपने गिरेबां में झांकने में कोई दिलचस्पी नहीं है। आज के तथाकथित राजनीतिज्ञ धर्म के नाम पर ढोंग रचते हैं। इसीलिये वे राजनीति के साथ्स वास्तविक धर्म का तालमेल होने ही नहीं देते। उन्हें पता है कि जिस दिन राष्ट्र धर्मप्राण हो गया, उनका अस्तित्व खत्म हो जाएगा। उन्होंने एक शब्द रच लिया ‘धर्मनिरपेक्षता।’ धर्म निरपेक्ष  यानी धर्म से जुदा। आचार्य तुलसी ने अपने समय में अनेक शीर्ष राजनेताओं से इस शब्द पर एतराज करते हुए धर्म निरपेक्ष नहीं पंथ निरपेक्ष करने की वकालत की थी। उनका कहना था कि जो सारे मानवीय गुणों से विमुख हो, उसी को धर्मनिरपेक्ष कहा जाता है। इसी धर्मनिरपेक्षता की आड़ में वे धर्म और राजनीति का ऐसा घालमेल करते आ रहे हैं। इनमें कुछ कोशिशें तो बिना लाग-लपेट के हैं लेकिन कुछ के लिए बहाने गढ़े जाते हैं।

कहना होगा कि हमारा राजनीतिक ढांचा लोकतांत्रिक है और इसमें सत्ता तथा जनता की बराबर की हिस्सेदारी है। यहां आजादी महसूस की जा सकती है। हमारें यहां सकारात्मक बात यह है कि भारत में हमेशा मूल्यों की प्रधानता रही है जिसका जाने-अनजाने संबंध अध्यात्म से रहा है। पहले यही जीवन-मूल्य समाज और व्यक्ति को संचालित करते थे। इसी से पूरा समाज अनुशासित और संयमित रहता था। वे मूल्य आज भी उतने ही खरे हैं। ईमानदारी, सच्चरित्रता, सेवा, साधना, नैतिकता, अस्तेय-आज का भी सच है। भारत की पूजा और इज्जत इसी कारण हो रही है। पश्चिम इसी लिए भारत की ओर भागा आ रहा है। लेकिन हम अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिये बड़ी चतुराई से इन मूल्यों को नकार रहे हैं। तब यह भी सवाल कुरेदना होगा कि हमारे मूल्यों का लोप क्यों हो रहा है? इसके लिए जिम्मेदार कौन है? आखिर क्यों मूल्यों के नाम पर कुछ लोग नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं? इसमें उन्हें साम्प्रदायिक भावना कहां से दिखाई पड़ जाती है? इन सवालों पर संवेदनशील होकर सोचने की जरूरत है। यह भी तय करना होगा कि ‘मूल्य-संपदा’ को किस तरह स्थापित किया जाए ताकि हमारा राष्ट्र एक आदर्श लोकतंत्र के रूप में उभर कर सामने आये। बनकर रह सके। राजनीति पर धर्म के नियंत्रण की बात आदर्श स्थिति हैं, लेकिन धर्म और राजनीति का घालमेल सर्वथा अनुचित है। क्योंकि आधारभूत रूप से धर्म और राजनीति दोनों की प्रकृति विपरीत है। दोनों की राहें अलग-अलग हैं लेकिन वोटों के लिए धर्म, जाति का इस्तेमाल लम्बे समय से किया जाता रहा है। विडम्बना यह है कि यह स्थिति अचानक पैदा नहीं हुई बल्कि तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों ने बड़े ही योजनाबद्ध ढंग से इसे पैदा किया जो पूरी तरह स्वार्थों पर आधारित है। न विचार, न सिद्धांत केवल सत्ता महान। धर्म और जाति देखकर राजनीतिक दल दलबदलुओं को अपनी पार्टी में प्रवेश दे रहे हैं। सत्ता के लोभ में दलबदल का सिलसिला कई दशकों से लगातार जारी है। पांच राज्यों के चुनावों से पहले दलबदल का स्वर कुछ ज्यादा ही सुनाई दे रहा है। हर राजनीतिक दल दूसरे दलों से कुछ दिन पहले शामिल हुए लोगों को उम्मीदवार बना रहे हैं। जरा सोचिये, ऐसे में कल्याणकारी राज्य की कल्पना कहां की जा सकती है।

ऐसे ही दिग्भ्रमित राजनीतिक दलों के कारण समाज के वे लोग इज्जत हासिल कर रहे हैं जो अपराधी और भ्रष्ट हैं, अखबारों के पन्ने उन्हीं की काली करतूतों की दास्तान से रंगे होते हैं। यह एक नई परम्परा बन गई है कि राजनीतिक दल सिर्फ ‘पाॅजिटिव’ प्रचार पर ही विश्वास नहीं करते, अपितु ‘निगेटिव’ प्रचार भी उन्हें जीवनदायिनी लगता है। इसीलिये पूरी मीडिया उस प्रचार में शामिल हो गई है। समाज में जो लोग अच्छा काम कर रहे हैं या जो देश को नैतिक दृष्टि से समृद्व बना रहे हैं, वे मुश्किल से ही खबर के प्लाॅट की सुर्खी बन पा रहे हैं। यानी मानवता की कोई खबर नहीं, समाज का सबसे भ्रष्ट आदमी और कुख्यात अपराधी अखबारों की शोभा बढ़ाने वाले बन गए हैं और इन स्थितियों को राजनीति का भरपूर प्रोत्साहन मिल रहा है। इस प्रवृत्ति के विरोध में नए सिरे से सोचने-समझने का वक्त आ गया है। चुनाव के परिप्रेक्ष्य में लोकतांत्रिक देश का हर नागरिक अपने दायित्व और कर्तव्य की सीमाएं समझें। विकास की ऊंचाइयों के साथ विवेक की गहराइयां भी सुरक्षित रहें। हमारा अतीत गौरवशाली था तो भविष्य भी रचनात्मक समृद्धि का सूचक बने। बस, वर्तमान को सही शैली में, सही सोच के साथ सब मिल जुलकर जी लें तो विभक्तियां विराम पा जाएंगी और एक उन्नत लोकतांत्रिक राष्ट्र का हमारा सपना आकार ले सकेगा।



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(ललित गर्ग)
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