पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखने के बाद साहित्यिक आवोहवा से शनैः शनैः दूर होता चला गया : राय सच्चिदानन्द - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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रविवार, 14 मई 2017

पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखने के बाद साहित्यिक आवोहवा से शनैः शनैः दूर होता चला गया : राय सच्चिदानन्द

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दुमका (अमरेन्द्र सुमन) जिस समय, परिस्थिति व व्यवस्था में हमारा वर्तमान गतिमान है, वहाँ संभावनाओं की कोई नहीं रह गई है। समय व परिस्थिति के अनुसार इंसान खुद को किस रुप में परिवक्त कर पाता है यह उसके अनुभव व विवेक पर निर्भर करता है। हम यहाँ किसी अन्य क्षेत्र की बात नहीं कर रहे, हम बात कर रहे हैं पत्रकारों के सरोकार वाले क्षेत्र की। पत्रकारिता के अतीत व वर्तमान व्यवस्था की। चाहे प्रिंट मीडिया हो, इलेक्ट्रोनिक्स मीडिया हो, न्यूज एजेन्सी हो, आकाशवाणी हो, दूरदर्शन हो अथवा न्यू मीडिया (फेसबुक, ट्यूटर, गुगल्स, ओरकुट, इन्स्टाग्राम, वाट्सएप, वगैरह.......वगैरह......) हो, तमाम क्षेत्रों में नित्य नयी तकनीकी संभावनाओं का प्रयोग व आविष्कार लगातार जारी हैं। यूँ कहें 80 के दशक में पत्रकारिता के क्षेत्र में सेवा का जो भाव, जो जुनून सर चढ़ कर बोलता था, वर्तमान में वह पूरी तरह प्रोफेसशनल बन चुका है। मीडिया के अन्य क्षेत्रों की बात को यदि छोड़ दें तो हालात यह है कि एक समय एकक्षत्र साम्राज्य स्थापित कर चुका प्रिंट मीडिया अपने अस्त्त्वि को पुनर्जीवित करने की याचना में इन दिनों विवश दिख रहा। भूमंडलीकरण व वैश्वीकरण के इस युग में पत्रकारिता के क्षेत्र में तेजी से बदल रहे परिदृश्य में पुराने दिनों की पत्रकारिता स्मरण शेष बनकर रह गयी है। पत्रकारिता के क्षेत्र में ऐसा परिवर्तन बौद्धिक व मानसिक रुप से जहाँ एक ओर इंसान को लगातार आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा दे रहा, वहीं दूसरी ओर भीड़ में खुद को बनाए रखने की चुनौतियों को भी साझा कर रहा। यह सर्वविदित है कि मीडिया की पहुँच इन दिनों गाँव-कस्बों से लेकर जंगल-पहाड़ तक पहुँच चुकी है। यह भी कि तकनीकी रुप से समृद्ध मोबाईल व इंटरनेट की क्राँतिकारी पहल ने आम-अवाम को मीडिया में हस्तक्षेप से लगातार जुड़े रहने की विवशता में उन्हें ला खड़ा कर दिया है, परिणामस्वरुप लोग अपने-अपने अधिकारों, कर्तव्यों, अभिव्यक्ति व उसकी सीमाओं के प्रति संवेदनशील भी देखे जा रहे हैं, तथापि यह कहना समीचीन प्रतीत होता है कि पत्रकारिता की सार्वजनिक/ सामाजिक स्वीकार्यता से अभी भी लोग कोसांे दूर हैं।

38-40 वर्षों तक संताल परगना में ईमानदारी के साथ पत्रकारिता करने वाले तथा पत्रकारिता के क्षेत्र में लाइव टाईम एचिवमेंट अवार्ड से सम्मानित (16 नवम्बर 2009 को जनमत शोध संस्थान, दुमका के तत्वावधान में आयेाजित कार्यक्रम में पत्रकारिता के लिये राय सच्चिदानन्द को लाईव टाईम एचिवमेंट अवार्ड से सम्मानित किया गया था।) ने अपना उद्गार प्रकट करते हुए उपरोक्त बातें कही। यह सच है कि वर्तमान व्यवस्था व परिभाषा से इतर संताल परगना में जिन लोगों ने पत्रकारिता को आमजनों में प्रतिष्ठापित कर उसकी विश्वसनीयता को बनाए रखने का प्रयास किया, राय सच्चिदानन्द का नाम पूरे गर्व के साथ लिया जाता है। श्री राय संताल परगना की धरती के ऐसे उर्वर फसल रहे हैं जिनका सहयोग व सानिध्य साथी पत्रकारों के साथ-साथ आम जनों के लिये भी काफी गौरव का विषय रहा है। पत्रकारिता से हटकर श्री राय ने भोजपुरी साहित्य सेवा अपनी जिन्दगी का अहम विषय बना रखा था। देश, काल व परिस्थिति ने इनकी दिशा ही बदल डाली, परिणामस्वरुप इन्होंने पत्रकारिता को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बना डाला। राय सच्चिदानन्द के शब्दों में ’’80 के दशक में जब मैनें पत्रकारिता की दुनिया में पहला कदम रखा था, संताल परगना की स्थिति चिराग तले अंधेरा वाली थी। सारी सुविधाओं व संसाधनों से संपन्नता के बावजूद संताल परगना का बहुसंख्यक आदिवासी समाज हाशिये के दौर से गुजर रहा था। मीडिया के माध्यम से अवाम की आवाज दूर-दूर तक पहुँचायी जा सकती है। सरकार, व्यवस्था व बुद्धिजीवी मंचों तक इनकी आवाज पहुँचाना मैनें अपनी जिम्मेवारियों में महत्वपूर्ण कदम माना। इससे जुड़ाव के पश्चात रोज-रोज की घटनाओं, समस्याओं को संकलित कर उसका लेखन व प्रेषण अंततः साहित्यिक आवोहवा से मुझे दूर करता चला गया’’। पहले प्रदीप व उसके बाद हिन्दुस्तान दैनिक के लिये 34-35 वर्षों से काम करते रहने के बाद अब विश्राम ले चुके श्री राय मीडिया के विकेन्द्रीकरण व उसके वर्तमान स्वरुप से जहाँ एक ओर काफी शुकंुन का अनुभव महसूस कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर दिन-प्रतिदिन इसके गिर रहे स्तर से भी काफी मर्माहत हैं। आगे श्री राय कहते हैं- हमारे समय में पत्रकारिता की अपनी सीमाएँ थी। एक लिमिटेशन्स के तहत नीति-निर्धारण होते थे। समाचारों का महत्व बढ़-चढ़ कर होता था। सबकुछ सिमटता जा रहा है अब। बढ़ रहे बाजारबाद व कम्पीटीशन की वजह से प्रतिदिन बड़े-बड़े काॅरपोरेट घरानों द्वारा नये-नये अखबारों का प्रकाशन प्रारंभ हो रहा है। अखबारों मे समाचारों की जगह विज्ञापन ने अपना स्थान श्रेष्ठ बना रखा है। पहले जिलास्तर पर रिर्पोटरों की नियुक्ति हुआ करती थी, अब बिना वेतन/मानदेय के रिर्पोटर अखबारों में खटते नजर आते हैं। गाँव-पंचायतों तक संवाददाताओं की निःशुल्क नियुक्ति की जा रही है। पत्रकारिता में ठेकेदारी का प्रचलन बढ़ गया है। डराने-चमकाने की परंपरा सर चढ़ कर बोल रही है। विज्ञापन व पिपणन में रुचि की वजह से लेखन शैली खासा प्रभावित हुआ है। लिखने की क्षमता दिन-व-दिन क्षीण होती जा रही है। आगे बढ़ने की होड़ में लोग अपनी-अपनी सीमाएँ व आचरण भूलते जा रहे हैं। पत्रकारिता जो एक मिशन हुआ करता था, वर्तमान में पूरी तरह व्यवसायिक हो चुका है। गुण-अवगुण एक सिक्के के दो पहलू हैं। पत्रकारिता अन्य तरह की व्यवस्थाओं से अछूता नहीं रह सकता। जहाँ एक ओर सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत की वर्तमान व्यवस्था में पारदर्शिता का यह बड़ा व ठोस आईना है, वहीं दूसरी ओर कुछ प्रतिशत तथाकथित बुद्धिजीवियों के लिये मिशन से इतर यह जीवन जीने का एकमात्र साधन बनकर रह गया है।

दुमका में जहाँ हिन्दी सहित अन्य क्षेत्रीय भाषाओं यथा अंगिका, संताली, व बंग्ला में साहित्य सृजन की परंपरा व उसका अपना इतिहास रहा है, ऐसे में दुमका से तकरीबन 9-10 मील दूर 10-12 घरों के एक छोटे से अनाड़ी बस्ती मंझियानडीह में जन्में राय सच्चिदानन्द के ह्दय में भोजपुरी के प्रति आत्मा से जुड़ाव के सवाल पर अपना प़क्ष रखते हुए कहते हैं-भोजपुरी में लिखने की प्रेरणा मुझे स्व0 उमाशंकर प्रसाद से मिली। वे मुझे अपना छोटा भाई मानते थे। हिन्दी में लिखी मेरी रचनाओं से वे काफी प्रभावित थे। हिन्दी से अलग भोजपुरी में साहित्य लेखन के लिये मुझे नियमित वे प्रोत्साहित करते रहते। उनके प्रोत्साहन से प्रभावित हो भोजपुरी में मैनें एक कहानी लिखी बनारस से प्रकाशित मासिक पत्रिका ’भोजपुरी कहानियाँ’ में यह प्रकाशित हुई। राय सच्चिदानन्द की भोजपुरी में प्रकाशित कहानी का शीर्षक था ’भिखारी के बेटी’। श्री राय के अनुसार भोजपुरी एकांकी ’नयकी पीढ़ी’ का एस0 पी0 महाविद्यालय, दुमका में पहली बार मंचन आज भी मन को रोमांचित व प्रफुल्लित कर देता है। पटना से प्रकाशित हिन्दी मासिक पत्रिका ’बेलिक’ में प्रबंध संपादक की हैसियत से काम कर चुके राय सच्चिदानन्द ने भोग गए सत्य व जिये गए यथार्थ सहित ग्रामांचल के जीवन की दरिद्रता व उनकी संवेदनाओं को अपनी लेखनी का आधार बना दाग, साध के अरथी, सपना जे मेटि गेईल एवं एगो चिट्ठी-एगो बात जैसी कहानियाँ लिखकर भोजपुरी में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्शायी जिसकी भरपाई आज तक संभव नहीं हो सका है। प्यासी परछाईयाँ, उबड़-खाबड़ धरती, सीधे-साधे लोग जैसे उपन्यास भी इनके कम चर्चित नहीं रहे हैं।  हिन्दी व भोजपुरी साहित्य में समान अधिकार रखने वाले मुर्धन्य साहित्यकार व कथाकार विवेकी राय (गाजीपुर, यूपी) चैधरी कन्हैया प्र0 सिंह (राँची) ऋषिश्वर (नई दिल्ली) व दैनिक गाण्डिव (वाराणसी संस्करण) के साहित्य संपादक गिरिजा शंकर ’गिरिजेश’ ने राय सच्चिदानन्द की बटोही कहानी संग्रह पर अलग-अलग प्रतिक्रियाओं के क्रम में कहा था ’’सृजन’’ की सड़क पर एक अमराई खड़ी कर श्री राय ने जिस प्रकार भोजपुरी को संताल परगना में प्रतिष्ठापित करने का प्रयास किया, निःसन्देह इस छोटी सी कृति के प्रकाशन में भोजपुरी भाषा की शक्ति सामथ्र्य में बड़ी अभिव्यक्ति हुई। सभी भाषाओं से प्रेम रखने वाले राय सच्चिदानन्द को बंग्ला भाषा औ संस्कृति रक्षा समिति, झारखण्ड की ओर से स्मृतिचिन्ह व अंगवस्त्र प्रदान कर उन्हें सम्मानित किया गया था। दशकों तक पत्रकारिता करने वाले राय सच्चिदानन्द भले ही उम्र की दोपहर लांघ चुके हों, तथापि मन, तन व वचन से पत्रकारिता के प्रति उनकी जीजीविषा आज भी पूर्ववतः देखी जा सकती है।

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