विशेष आलेख : सियासत चटकाने में कब तक कटेगी मौत फसल? - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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सोमवार, 12 जून 2017

विशेष आलेख : सियासत चटकाने में कब तक कटेगी मौत फसल?

एमपी के मंदसौर में पुलिस की गोली से छह किसानों की मौत का गुस्सा अब लावा बनकर फूट रहा है। आगजनी, तोड़फोड़ जैसी हिंसक घटनाएं बढ़ रही है। ऐसे में यह जानना अब जरुरी हो गया है कि किसानों के इस आंदोलन के पीछे कौन हैं? क्योंकि किसान अपनी मांग के लिए धरना-प्रदर्शन, भूख हड़ताल तो कर सकता है, लेकिन तोड़फोड़, आगजनी जैसी हिंसक घटनाएं तो कम से कम नहीं कर सकता। हो जो भी इस हिंसक आंदोलन के पीछे आरएसएस के किसान संगठन से निकाले गए किसान नेता शिव कुमार शर्मा व कांग्रेस विधायक जीतू पटवारी के नाम लिए जा रहे है। यह वही कांग्रेस विधायक जीतू पटवारी है जिनकी बाइक पर सवार हो कांग्रेस नेता राहुल गांधी मंदसौर में मृत किसानों के घर सहानुभूति जताने जा रहे थे। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है कि जय राजनीति के लिए जय किसानों का नारा देकर कब तक किसानों की बलि ली जायेगी? क्या किसानों की मौत, राहुल की सियासत का खाद - पानी है? क्या राहुल गांधी के सियासी यज्ञ में किसानों की आहुति दी गयी? 






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बेशक, मध्य प्रदेश के मंदसौर में जो कुछ हुआ, वह लोकतंत्र के माथे पर लगा वो दाग है जिसे किसी भी प्रायश्चित से मिटाया नहीं जा सकता। अपने हक के लिए आवाज उठा रहे किसानों पर फायरिंग में छह अन्नदाता मारे गए, जबकि दर्जनों घायल है और अस्पताल में जीवन-मौत से जूझ रहे है। लेकिन सवाल यह है कि शांतिप्रिय तरीके से आंदोलन कर रहे किसानों में ऐसा वह कौन भेड़िया है जो इसे हिंसक रुप दे दिया और पुलिस को गोली चलानी पड़ी। इसके पीछे साजिशकर्ता कौन है यह तो जांचोपरान्त ही पता चलेगा। लेकिन प्रथम दृष्टया बात सामने तो आ ही गयी है कि इस आंदोलन को उग्र रुप देने के पीछे कोई और नहीं, बल्कि कांग्रेस विधायक जीतू पटवारी है जो राहुल गांधी को अपनी बाइक पर बैठाकर मंदसौर जा रहे थे और वही शिवकुमार शर्मा है, जिन्हें आरएसएस संगठन से सिर्फ इसलिए बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था कि आंदोलन की आड़ में लूटपाट करना उनकी नियति बन गयी थी। वहां शिव कुमार शर्मा को लोग कक्काजी के नाम से जानते हैं। कहा जा रहा है कि मध्य प्रदेश में किसानों के हिंसक आंदोलन के पीछे इनका एवं पटवारी का ही चेहरा है। पुलिस फायरिंग का विरोध जताने दाहिने हाथ पर काली पट्टी बांधकर शिव कुमार शर्मा सामने आए थे। हो जो भी लेकिन मध्य प्रदेश में चल रहे किसान आंदोलन को लेकर देश की सियासत तेज हो गई है। जहां विपक्ष को किसानों के आक्रोश में राजनीतिक हवा बदलने का फैक्टर दिख रहा है, वहीं केंद्र सरकार और बीजेपी ‘गुडविल’ से आंदोलन को जल्द से जल्द समाप्त कर एक बार फिर विपक्षी आंदोलन के धार को प्रभावहीन करना चाहती है। किसानों के संघर्ष के बीच ज्यादा से ज्यादा सियासी लाभ लेने में जुटीं राजनीतिक पार्टियां इस मुद्दे पर लॉन्ग टर्म राजनीतिक लड़ाई की संभावना देख रही है।

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ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है क्या क्या किसानों की मौत, राहुल की सियासत का खाद - पानी है? क्या मंदसौर में कांग्रेस ने किसानों की बलि चढ़ाई? क्या कांग्रेस किसानों के कंधों पर बंदूक रखकर शिवराज समेत सभी भाजपा शासित राज्यों के सरकारों को अपदस्थ करना चाहती हैं। खास बात यह है कि सिर्फ एमपी ही नहीं महाराष्ट्र, छत्तीागढ़, कर्नाटक में भी किसान आंदोलन चल रहा है। कहा जा सकता है कि देश में किसानों के नाम पर क्या बड़ी राजनीति हो रही है। क्योंकि जिस एमपी में किसानों का आंदोलन चल रहा है वहां 2005, 2006 से 2014, 2015 में कृषि विकास दर साढ़े नौ फीसदी से अधिक है, जो देश के अन्य राज्यों के सापेक्ष ज्यादा है। शिवराज सरकार के विकास दर में कृषि का योगदान 28 फीसदी से बढ़कर 37 फीसदी हो गया है। सवाल यह है कि जब कृषि के क्षेत्र में एमपी इतनी तेजी से विकास हो रहा था तो किसान पिछड़े कैसे हो सकते है। खासकर यह सवाल तब और बड़ा हो जाता है जब आंदोलनरत किसानों की अधिकांश मांगे मान ली थी। यानी आज जो लोग किसानों की चिंता करने का नाटक कर रहे हैं, आखिर वे कभी अपनी गिरेबां में झांककर देखने की कोशिश किए कि ये समस्याएं किसकी देन हैं। मंदसौर में एक जून को किसान आंदोलन शुरू हुआ था, आंदोलन उस वक्त और ज्यादा हिंसक हो गया जब गोली लगने से छह किसानों की मौत हो गई। इस आंदोलन की दो बड़ी वजह नजर आती हैं। एक, न्यूनतम समर्थन मूल्य की राजनीति और दो, कर्ज माफी के बहाने किसान वोट बैंक पर सेंध लगाने की फौरी कोशिश। ऐसी कोशिश 2008 में तब की मनमोहनसिंह सरकार ने की थी और 65 हजार करोड़ का कर्ज माफ किया था और अगले ही साल सत्ता में उसकी वापसी हो गयी। बीजेपी ने यूपी चुनाव से पहले वहां के किसानों का कर्ज माफ करने का चुनाव दांव खेला और सत्ता पर काबिज हो गयी। 

क्या शिवशर्मा व जीतू पटवारी हैं मृतकों के जिम्मेदार? 
mandsaur-kisan-protestहो जो भी शिव कुमार शर्मा कहते है वे तीन संगठनों के साथ इस आंदोलन को चला रहे हैं। बीकेयू, आम किसान यूनियन और राष्ट्रीय किसान मजदूर संघ के वे अध्यक्ष हैं। जबलपुर विश्वविद्यालय से लॉ ग्रेजुएट शिव कुमार शर्मा ने जेडीयू नेता शरद यादव के साथ छात्र राजनीति शुरू की थी। बाद में शिव कुमार शर्मा सरकारी नौकरी करने लगे और मध्य प्रदेश सरकार में विधिक सलाहकार बन गए। कुछ सालों बाद सरकारी नौकरी से इस्तीफा देकर शिवकुमार शर्मा किसान आंदोलन से जुड़ गए। आरएसएस कार्यकर्ता शिव कुमार शर्मा संघ के द्वितीय वर्ष प्रशिक्षण प्राप्त हैं। आरएसएस से जुड़े भारतीय किसान संघ के महामंत्री और फिर अध्यक्ष बने। साल 2010 में भारतीय किसान संघ के हजारों किसानों ने भोपाल में चक्का जाम कर दिया था। सीएम आवास के महज 100 मीटर दूर बिजली-पानी की मांग को लेकर किसान धरने पर बैठे थे। वो तारीख 20 दिसंबर 2010 थी। भोपाल में लोगों की नींद खुली तो शहर को किसानों ने घेर रखा था। आरएसएस के संगठन में रहते हुए बीजेपी की शिवराज सरकार के खिलाफ उस महाधरने के पीछे भी शिवकुमार शर्मा ही थे। तब से शिवकुमार शर्मा संघ और सरकार के निशाने पर आ गए। जहां तक आंदोलन के दौरान किसानों पर चली गोली का सवाल है तो मध्य प्रदेश में किसानों पर पहली बार गोली 2012 में रायसेन जिले के बरेली में चली थी। इस दौरान एक किसान की मौत हुई थी। उस आंदोलन के पीछे भी शिवकुमार शर्मा ही थे। इस कांड के बाद आरएसएस ने शिवकुमार शर्मा को निष्कासित कर दिया था। शिवकुमार शर्मा को दो महीने की जेल भी हुई। जब बाहर निकले तो अपना नया संगठन राष्ट्रीय मजदूर किसान संघ खड़ा किया। मध्य प्रदेश में आंदोलन के पीछे यही संगठन है जिसने आंदोलन की रणनीति बनाई और अब ये हिंसक रूप ले चुका है और इस आंदोलन से निपटना सरकार के लिए बड़ी चुनौती बन गया है। 


साजिश के तहत भड़की हिंसा 
फिरहाल, मध्य प्रदेश में किसानों के आंदोलन ने जिस तरह और अधिक उग्र एवं अराजक रूप धारण कर लिया है उससे यह साफ है कि उसे भड़काया जा रहा है। किसी के लिए भी यह समझना कठिन है कि आखिर बड़े पैमाने पर वाहनों को जलाने के साथ सड़क और रेल यातायात बाधित करके किसानों को क्या हासिल हो रहा है? क्या इससे उनके प्रति आम लोगों की सहानुभूति उमड़ पड़ेगी अथवा उनकी मांगे अधिक न्यायसंगत नजर आने लगेंगी? यदि कोई आंदोलन इस तरह अराजकता के रास्ते पर जाता है तो वह न केवल अपने उद्देश्य को पराजित करता है, बल्कि जनता की हमदर्दी भी खो देता है। मंदसौर, देवास और अन्य जिलों में हालात काबू करने के लिए मध्य प्रदेश सरकार को जिस तरह केंद्रीय सुरक्षा बलों की जरूरत पड़ रही है उससे यह स्पष्ट है कि वह समय रहते इसका अनुमान नहीं लगा सकी कि किसानों का यह आंदोलन किस रास्ते पर जा रहा है? केवल यह कहने से काम नहीं चलने वाला कि किसानों के बीच असामाजिक तत्व सक्रिय हैं और विरोधी नेता संकीर्ण राजनीतिक लाभ के लिए माहौल बिगाड़ने का काम कर रहे हैं। राज्य सरकार को इसकी चिंता पहले दिन से करनी चाहिए थी कि किसानों के बीच शरारती तत्व सक्रिय न होने पाएं। उसे कई सवालों के साथ इसका भी जवाब देना होगा कि क्या किसानों को उकसाने में खुद भाजपा के असंतुष्ट नेताओं का भी हाथ है? इस सवाल का चाहे जो जबाव हो, यह ठीक नहीं कि राज्य सरकार पहले किसानों की जिन मांगों को मानने से इन्कार कर रही थी उनके प्रति अब नरम रवैया अपना रही है। या तो पहले उसका रुख सही नहीं था या फिर अब? 

कर्जमाफी से बढ़ेगी महंगाई 
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यह कहना कठिन है कि मध्य प्रदेश सरकार ने कर्ज माफी की जगह ब्याज माफी की योजना लाने का जो आश्वासन दिया उससे नाराज किसान संतुष्ट होंगें? वे कर्ज माफी की अपनी मांग पर डटे रह सकते हैं-ठीक वैसे ही जैसे महाराष्ट्र के किसान डटे हुए हैं। महाराष्ट्र सरकार ने किसानों को भरोसा दिया है कि वह अक्टूबर तक कर्ज माफी की योजना लेकर सामने आएगी। इस सबके बीच उत्तर प्रदेश सरकार इस तरह की योजना पर अमल का तरीका खोजने में लगी हुई है। यह तय है कि आने वाले दिनों में अन्य राज्य सरकारों पर भी यह दबाव होगा कि वे किसानों के कर्जे माफ करने की कोई योजना लाएं। इस दबाव से केंद्र सरकार अछूती नहीं रह सकती। पता नहीं केंद्र एवं राज्य सरकारें किसानों की कर्ज माफी की मांग का सामना कैसे करेंगी, लेकिन अच्छा होगा कि वे रिजर्व बैंक की इस चेतावनी को ध्यान में रखें कि किसानों के कर्ज माफ करने से वित्तीय घाटे के साथ महंगाई बढ़ने का भी खतरा है। हालांकि हमारे नीति-नियंता इससे अनभिज्ञ नहीं कि कर्ज माफी न तो किसानों के लिए लाभकारी साबित होती है और न ही अर्थव्यवस्था के लिए, फिर भी वे रह-रह कर इसी रास्ते पर चल निकलते हैं। कर्ज माफी की मांग से छुटकारा न मिलने का एक बड़ा कारण ऐसे उपाय न किया जाना है जिससे किसानों के सामने कर्ज लेने की नौबत ही न आए। किसान जब तक खेती के नाम पर कर्ज लेने को मजबूर बना रहेगा तब तक उसकी हालत नहीं सुधरने वाली। 

क्या किसानों का आय दुगुना हो पायेगा? 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों से वादा किया है कि वो साल 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करेंगे। जबकि साल 2022 तक किसानों को आय दोगुनी करने के लिए अगले पांच सालों में कृषि विकास दर को 14 प्रतिशत तक रखना पड़ेगा। अभी की हकीकत ये है कि हमारी कृषि विकास दर सिर्फ 4.1 प्रतिशत है। अगर कृषि विकास दर बढ़ भी जाती है तो भी वो किसानों की आय बढ़ने की गारंटी नहीं हो सकती। सच तो यह है कि 17 राज्यों के किसान महीने में औसतन सिर्फ डेढ़ हजार रुपए कमा पाते हैं। अगले 5 सालों में किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य पाना है तो उसके लिए जरूरी है कि किसानों की हर महीने की एक न्यूनतम आय सुनुश्चिति हो। 

कर्मचारियों की तर्ज पर किसानों को मिले सुविधाएं 
mandsaur-kisan-protest1970 से लेकर 2015 के बीच गेहूं का एमएसपी सिर्फ 19 बार बढ़ा है। जबकि इसी अवधि में सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाह 120 से 150 गुना। कॉलेज शिक्षकों की तनख्वाह 150 से 170 गुना। स्कूल टीचर की तनख्वाह 280 से 320 गुना बढ़ी है। वैसे एमएसपी भी नाम के लिए रह गयी है। शांता कुमार समिति की रिपोर्ट भी कहती है कि एमएसपी से सिर्फ छह प्रतिशत किसानों को ही फायदा होता है। न्यूनतम समर्थन मूल्य का हाल यह है कि महाराष्ट्र में तुअर दाल की खरीद है। वहां एमएसपी 5050 रुपये प्रति टन था लेकिन किसानों को 3500 में अपनी फसल बेचने को मजबूर होना पड़ा। 

ठोस पहल की जरुरत 
किसानों की माली हालत खराब है। खेती करना घाटे का सौदा होता जा रहा है। आम किसान की औसत सालाना आय 20 हजार रुपये हैं। करीब 53 फीसद किसान गरीबी की सीमा रेखा के नीचे आते हैं। ऐसे में राज्य सरकारों के लिए उन सभी 24 जिंसों की खरीद करनी चाहिए जिसपर एमएसपी घोषित की जाती है। राज्य सरकारों को किसान आमदनी आयोग का गठन करना चाहिए। हर महीने एक निश्चित राशि किसानों को देनी चाहिए जो 18 से 20 हजार रुपये के बीच हो सकती है। 

खुद तय करें उत्पादों की कीमत 
अब तक तो यही देखने को मिला है कि किसान अपने उत्पाद की कीमत तय नहीं करता। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है कि जो फसल वह उगाता है, उसकी कीमत कोई और क्यों तय करता है? देश का अन्नदाता अपनी बात कहते वक्त सीने पर गोली खाने के लिए अभिशप्त क्यों है? जिस धरती से सोना पैदा करने के लिए वह पसीना बहाता है, उस धरती पर उसका खून क्यों बहना चाहिए? लेकिन हालात को देखते हुए उसे कीमत खुद तय करनी होगी। क्योंकि जब साबुन से लेकर कार बनाने वाली कंपनियां साबुन और कार के दाम तय करती हैं तो किसान क्यों नहीं कर सकता। मतलब साफ है जब तक खेती लाभ का सौदा नहीं बनेगी किसान को खेती से फायदा नहीं होगा। 

कर्जमाफी की सियासत 
एमपी के उग्र किसान आंदोलन के बाद कर्जमाफी की राजनीति फिर चर्चा में हैं। यूं तो इसकी शुरुवात 2008 में यूपीए सरकार की कर्जमाफी योजना से हुई, जिसमें 65 हजार करोड़ रुपए का कर्ज माफ किया था। इससे तीन करोड़ लघु और सीमांत किसानों को फायदा हुआ था। कहा जाता है कि अगले साल हुए आम चुनावों में मनमोहनसिंह सरकार की वापसी के पीछे कर्ज माफी की योजना थी। इसके बाद के 9 सालों में छह राज्यों ने अपनी तरफ से किसानों के कर्ज माफ किये हैं। ताजा उदाहरण यूपी का है। जहां पहले मोदी ने चुनावी रैलियों में घूम-घूम कर कर्जमाफी की घोषणा की। बाद में योगी सरकार ने पहले ही कैबिनेट बैठक में 36,359 करोड़ रुपये का कृषि ऋण माफ किया। इसके बाद अन्य राज्यों में भी इस मांग ने जोर पकड़ लिया। बैंक ऑफ अमेरिका की एक रिपोर्ट कहती है कि 2019 के आम चुनावों के समय राज्य सरकारें कुल मिलाकर दो लाख 57 हजार करोड़ रुपयों का किसानों की कर्ज माफ करने को मजबूर होंगी। दावा किया गया कि इससे 94 लाख लघु और सीमांत किसानों को लाभ होगा। इसमें सात लाख किसानों का 5630 करोड का कर्ज भी माफ कर दिया गया जिनका कर्ज बैंक डूबते खाते में डाल चुके थे। लेकिन हकीकत तो यह है कि आज भी यूपी के 94 लाख किसानों को कर्ज माफी की चिटठी मिलने का इंतजार है। कर्नाटक, पंजाब और गुजरात मे इसकी जमीन तैयार हो रही है। तमिलनाडु के किसान फिर से शक्ति प्रदर्शन के लिए ऊर्जा ले रहे हैं तो यूपी के किसान ‘वेट ऐंड वॉच‘ की स्थिति में हैं। इन सबकी पृष्ठभूमि में कर्ज माफी की मांग है। इस सच को समझते हुए भी कि कर्ज माफी किसानों की समस्याओं का स्थायी हल नहीं है, इसके बावजूद इस मुद्दे को अगर हवा मिल रही है तो यह सवाल स्वाभाविक है कि आखिर इसकी वजह क्या है? दरअसल राजनीतिक दलों को किसानों के कर्ज माफी का मुद्दा अब सत्ता तक पहुंचने के शॉर्ट-कट रास्ते के रूप में दिखने लगा है। इसी वजह से कर्ज माफी की आग में घी डालने का काम खुद राजनीतिक दलों की तरफ से किया जाता है। किसानों को भी ‘इंस्टेंट रिलीफश्‘ में ज्यादा फायदा दिखता है। वे कर्ज अदायगी से बच जाते हैं। एक बड़े बैंक के शीर्ष अधिकारी के इस बयान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि जो किसान कर्ज अदायगी की स्थिति में होते है, वे भी कर्ज अदा नहीं करते हैं, वह इस उम्मीद में होते हैं कि अगले चुनाव तक कोई न कोई राजनीतिक दल कर्ज माफ करने का वादा कर ही लेगा। ऐसा होता भी है। कर्नाटक में अगले साल चुनाव होने हैं। सिद्धारमैया अपने बचाव में कर्ज माफी को केंद्र के पाले में डालने में जुटे हैं, उनका कहना है कि राष्ट्रीय बैंकों का कर्ज केवल केंद्र सरकार ही माफ कर सकती है लेकिन गुजरात मे जहां कांग्रेस विपक्ष में है और इसी साल के आखिर में वहां विधानसभा के चुनाव होने हैं, पार्टी ने कर्ज माफी का वादा कर बड़ा दांव चला है। गुजरात कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भरत सिंह सोलंकी ने कहा है कि गुजरात में उनकी सरकार आते ही किसानों का कर्ज माफ किया जाएगा। उधर पंजाब में कर्ज माफी के वादे साथ सत्ता में पहुंची कांग्रेस को उसके वादे की याद दिलाने को आम आदमी पार्टी मैदान में उतर पड़ी है। एक्सपर्ट्स का मानना है कि 2019 के लोकसभा चुनाव तक अगर यही सिलसिला चलता रहा तो करीब 2,57,000 करोड़ रुपये का कर्ज माफ करना पड़ेगा। 

लापरवाही का नतीजा है मंदसौर 
दरअसल, मंदसौर गोली कांड शिवराज सिंह सरकार, प्रशासन और पुलिस की नाकामी का नमूना है। घटना के पहले और बाद में जिस तरह सरकार और पूरे प्रशासन तंत्र ने रवैया दिखाया, वह बताता है कि ऊपर से नीचे तक किसी को किसानों के दुख-दर्द की कोई फिक्र नहीं है। कर्ज माफी और उपज की वाजिब कीमत जैसी मांगों को लेकर मालवा अंचल के कुछ जिलों में किसान लंबे समय से लामबंद हो रहे थे। इंदौर, मंदसौर, नीमच, रतलाम, धार, उज्जैन आदि जिलों में आंदोलन पैर पसारता रहा। इस महीने की पहली तारीख को किसानों ने सड़कों पर हजारों लीटर दूध बहा दिया और कई क्विंटल आलू-प्याज फेंक दिये। धरना, प्रदर्शन, रैली, चक्काजाम, सभाएं सब धीरे-धीरे उग्र होते रहे, लेकिन समूची सरकार और उसका तंत्र अपने कानों में रूई जमाये बैठे रहे। देखा जाएं तो मुख्यमंत्री ने किसान आंदोलन में फूट डालने की भरपूर कोशिश की। एक समझौता वार्ता के बाद सरकारी तंत्र ने खबर फैला दी कि आंदोलन खत्म हो गया। कुछ ही देर में किसान नेताओं ने साफ कर दिया कि सरकार झूठ बोल रही है, आंदोलन जारी रहेगा। इसके बाद आंदोलन और तेज हो गया, लेकिन किसी ने इसकी सुध नहीं ली। सरकार का कोई प्रतिनिधि, मंत्री, विधायक, सांसद किसानों से बात करने आगे नहीं आया। केंद्र सरकार से लगातार हर साल कृषि कर्मण पुरस्कार‘ जीतने वाली मध्य प्रदेश सरकार ने किसानों को ‘कृषि कर और मर‘ के हाल पर छोड़ दिया है। 





(सुरेश गांधी)

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