आलेख : हिन्दुओं की आस्था पर प्रहार कब तक? - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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बुधवार, 12 जुलाई 2017

आलेख : हिन्दुओं की आस्था पर प्रहार कब तक?

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जम्मू-कश्मीर में आतंकियों ने पंद्रह साल बाद एक बार फिर कायराना हरकत की है। हिन्दू आस्था और सौहार्द पर आतंकवाद का कहर टूटा है। सावन के पहले सोमवार की रात लश्कर-ए-तैयबा के आतंकियों ने अमरनाथ यात्रियों को निशाना बनाया। हमले में सात श्रद्धालु यात्री मारे गए और दो दर्जन से ज्यादा घायल हो गए। श्रद्धालु गुजरात के थे और एक बस में सवार होकर जम्मू लौट रहे थे। इससे पहले आतंकियों ने सन् 2000 में पहलगाम में तीस तीर्थयात्रियों की हत्या की थी। पुलिस ने ताजा हमले के पीछे पाकिस्तान से अपनी कारगुजारियां करने वाले लश्कर-ए-तैयबा के आतंकी अबु इस्लाम का हाथ बताया है। साफ है कि पड़ौसी मुल्क एवं उसकी शह पर पनप रही आतंकवादी ताकतें भारत में अमन-चैन और सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहतीं। मानना होगा कि यात्रा संबंधी इंतजाम और सुरक्षा व्यवस्था में कहीं न कहीं चूक हुई है। कहा जा रहा है कि खुफिया एजेंसियों ने यात्रियों पर हमले को लेकर पहले से आगाह किया था, लेकिन लगता है उसके मुताबिक पर्याप्त सतर्कता नहीं बरती गई। इस विडम्बनापूर्ण एवं त्रासद घटना से न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया आहत है। 


अमरनाथ यात्रा के दौरान आतंकवादियों द्वारा किया गया हमला बड़े खतरे का संकेत माना जा सकता है। यह हमला समूचे भारत के हिन्दुओं की आस्था पर प्रहार है, यह कश्मीर की सांझी विरासत और परम्परा पर हमला है। अमरनाथ यात्रा न केवल कश्मीर की परम्परा है बल्कि वहां के पर्यटन को मजबूती देने वाली है। उसकी तो रोजी-रोटी अमरनाथ यात्रा से जुड़ी है। यह यात्रा ऋषि कश्यप की भूमि कश्मीर में साम्प्रदायिक सद्भाव की प्रतीक है। आम कश्मीरी आतंकवाद से थक चुका है। न केवल कश्मीरी बल्कि देश का हर नागरिक आतंकवाद, छापामार-घुसपैठ, साम्प्रदायिक झगड़ों के खूनी मंजर से टूट चुका है। शांति का आश्वासन, उजाले का भरोसा सुनते-सुनते लोग थक गए हैं। अब तो शांति व उजाला हमारे सामने होना चाहिए। इन्तजार मंे कितनी पीढ़ियां गुजारनी होंगी। इस अभूतपूर्व संकट के लिए अभूतपूर्व समाधान खोजना होगा। बहुत लोगों का मानना है कि जिनका अस्तित्व और अस्मिता ही दांव पर लगी हो, उनके लिए नैतिकता और जमीर जैसी संज्ञाएं एकदम निरर्थक हैं। सफलता और असफलता तो परिणाम के दो रूप हैं और गीता कहती है कि परिणाम किसी के हाथ में नहीं होता। पर जो अतीत के उत्तराधिकारी और भविष्य के उत्तरदायी हैं, उनको दृढ़ मनोबल और नेतृत्व का परिचय देना होगा, पद, पार्टी, पक्ष, प्रतिष्ठा एवं पूर्वाग्रह से ऊपर उठकर।

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खबरों के अनुसार आतंकियों के निशाने पर पुलिस और सेना के जवान थे, यह यात्री-बस तो दुर्भाग्यवश चपेट में आ गई। हुआ यों कि मोटरसाइकिल पर सवार तीन आतंकियों ने आठ बज कर दस मिनट पर पहले सुरक्षा बलों के बंकर पर हमला किया। जवाबी कार्रवाई हुई, जिसमें कोई घायल नहीं हुआ। इसके बाद आतंकियों ने पुलिस की एक दूसरी टुकड़ी पर गोली चलाई। पुलिस की ओर से फायरिंग हुई तो आतंकी भागने लगे। इसी दौरान बस वहां से गुजरी तो आतंकियों ने बस पर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। इस मामले में सबसे बड़ा सवाल बार-बार यही उभर रहा है कि राज्य और केंद्र की तरफ से कई बार यह दावा किया गया कि सुरक्षा के इंतजाम पुख्ता हैं। ऐसे में एक यात्री-बस बिना किसी रोकटोक के और वह भी नियम-विरुद्ध, वहां तक पहुंच गई तो इससे यह भी साबित होता है कि पुलिस और प्रशासनिक तंत्र में समन्वय की कमी है, एक विभाग का दूसरे विभाग से अपेक्षित तालमेल नहीं है। अगर यह बस अवैध रूप से दाखिल हुई, तो इसकी जांच कहीं भी क्यों नहीं की गई? 

पुलिस का यह दावा भी शर्मसार करने वाला है कि बस चालक ने तीर्थयात्रा नियमों का उल्लंघन किया क्योंकि रात सात बजे के बाद किसी यात्रा वाहन को हाईवे पर चलने की अनुमति नहीं है। प्रश्न है कि हाईवे पर कफ्र्यू लग जाता है तो अभागी बस के चालक को कफ्र्यू का उल्लंघन क्यों करने दिया गया? यदि बस रजिस्टर्ड नहीं थी और सुरक्षा काफिले में शामिल नहीं थी तो यात्रा मार्ग के चप्पे-चप्पे पर तैनात सुरक्षा बलों की नजर उस पर क्यों नहीं पड़ी? जब हालात असामान्य हैं और दुर्घटना की संभावनाओं को देखते हुए ही चप्पे-चप्पे पर, यात्रा मार्ग पर अतिरिक्त सुरक्षा बलों की तैनाती भी की गई थी और यात्रियों की सुरक्षा के अतिरिक्त प्रबंध भी। इसके बावजूद आतंकी यात्रियों और सुरक्षा बलों पर हमले करने में कामयाब हो गए। तो इस तरह की गलतियां होना घोर लापरवाही का ही सबूत है।
 
पृथकतावादी नेताओं अली शाह गिलानी, मीरवाइज उमर फारूक और यासीन मलिक ने अमरनाथ यात्रियों पर हमले को कश्मीर की संस्कृृति पर हमला बताया है परंतु आतंकी संगठनों के साथ उनकी हमदर्दी किसी से छिपी नहीं है। आतंकवाद को प्रश्रय देने वाले इन राजनीतिज्ञों की अलगाववादी दूषित सोच के दुष्परिणामस्वरूप जिस प्रकार की मानसिकता कश्मीरी समाज में बढ़ रही है और इसने जिस हिंसा को वहां जन्म दिया है, क्या उसका प्रतिकार अब कोई नहीं करेगा? सवाल यह भी है कि देश का एक तबका आखिर क्यों इसे हिंदुओं पर मुसलमानों के हमले के रूप में भी देख रहा है? उसे याद रखना चाहिए कि ऐसा करके वह आतंकियों के मकसद को ही आगे बढ़ा रहा है। अपना सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखकर ही हम पड़ौसी देश के नापाक इरादों एवं आतंकवादियों के इरादों को नेस्तनाबूद कर सकते हैं।


अमरनाथ यात्रा आस्था और श्रद्धा का प्रतीक है, इस तरह की घटनाओं से लोगों के दिल और संकल्प कमजोर नहीं पड़ने वाले है, इसलिये यह यात्रा अभी लंबी चलेगी और चल भी पड़ी है बिना किसी भय के। कांवड़ यात्राएं भी शुरू हो चुकी हैं। वैष्णो देवी यात्रा मार्ग भी आतंकियों के निशाने पर है। ऐसे में केंद्र सरकार और सुरक्षा एजेंसियां यह सुनिश्चित करें कि अमरनाथ यात्रियों पर हमले जैसी किसी नापाक हरकत की पुनरावृत्ति न हो पाए। हिन्दुस्तान के लोगों ने ऐसी अनेक त्रासद एवं दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं का सामना साहस से किया है। जनता को सदैव ही किसी न किसी स्रोत से संदेश मिलता रहा है। कभी हिमालय की चोटियों से, कभी गंगा के तटों से और कभी सागर की लहरों से। कभी ताज, कुतुब और अजन्ता से, तो कभी राम, कृष्ण, बुद्ध और महावीर से। कभी गुरु नानक, कबीर, रहीम और गांधी से और कभी कुरान, गीता, रामायण, भगवत् और गुरुग्रंथों से। यहां तक कि हमारे पर्व होली, दीपावली भी संदेश देते रहते हैं। इन संदेशों से भारतीय जन-मानस की राष्ट्रीयता सम्भलती रही, सजती रही और कसौटी पर आती रही तथा बचती रही। सत्य, अहिंसा, दया और करुणा कभी निस्तेज नहीं हुए। इन संदेशों से इनकी तेजस्विता बनी रही। 

अमरनाथ यात्रा को हतोत्साहित करने का अभियान कोई नया नहीं है। इस यात्रा को बाधित करने के प्रयास अनेक तरह से होते रहे हैं। कभी यह आतंकवादियों के निशाने पर थी तो कभी तत्कालीन सरकार के द्वारा इसकी अवधि घटा दी गयी। एक बार तो जम्मू-कश्मीर सरकार ने अमरनाथ यात्रा और वैष्णो देवी यात्रा के लिये राज्य में प्रवेश करने वाले दूसरे राज्यों के वाहनों पर भारी-भरकम प्रवेश शुल्क लगा दिया था। तब देशभर में इसका विरोध हुआ था। यात्रा मार्ग पर भंडारा लगाने वाले आयोजकों से शुल्क पहले से ही वसूला जाता है। क्या दुनिया में ऐसा कोई देश होगा जहां उस देश के बहुसंख्यकों का ही सर्वाधिक दोहन होता हो। इतिहास गवाह है कि जब भी जम्मू-कश्मीर में प्राकृतिक आपदायें आईं तब-तब पूरा देश उनकी मदद के लिये उठ खड़ा हुआ। एक दीपक जलाकर फसलें पैदा नहीं की जा सकतीं पर उगी हुई फसलों का अभिनंदन दीपक से अवश्य किया जा सकता है। हिन्दू-मुस्लिम की सांझा संस्कृति की जीवंतता के लिये प्रयास दोनों ओर से करने होंगे। भारत की बहुलतावादी सनातन संस्कृति के खिलाफ दोगलापन अब असहनीय है। 

बार-बार मुंह की खाकर, अपमान की पीड़ा और अपनी आंतरिक उलझनों के कारण पड़ोसी तो आग लगायेगा ही। जहां पानी को ढलान मिलेगी, पानी बहेगा ही। यह समय सुरक्षा की निर्मम समीक्षा का तो है ही, अपनी व्यक्तिगत पड़ताल का भी है, यह समय पड़ौसी देश के लिये सख्त होने का भी है तो अपने कहे जाने वाले तथाकथित आतंकवाद समर्थक लोगों के मुखौटों को उतारने का भी है। हिंसा और आंतक का भय उत्पन्न करके देश को तोड़ने का प्रयास किया जा रहा है। कट्टरवादियों ने अपने दिलों में लकीरें खींच ली हैं और कइयों ने नक्शों में खींच ली हैं। अब जमीन पर खींचना चाहते हैं। आतंकवादी हमले और दंगे सीमाओं और सड़कों से ज्यादा दिमागों में हो रहे हैं। इसलिये सुरक्षा बल और सरकार को अपनी कमर कसने का भी यही समय हैं। हमें ऐसे कायराना हमलों से डरने की नहीं, दोगुने उत्साह से सब कुछ जारी रखने की जरूरत है। बस ध्यान रखना होगा कि अब से हमारी कोई लापरवाही सुरक्षा बलों के लिए बड़ी चुनौती का सबब न बनने पाए।





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(ललित गर्ग)
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