तलाक-ए-बिदअत असंवैधानिक, गैर-इस्लामिक : सुप्रीम कोर्ट - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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बुधवार, 23 अगस्त 2017

तलाक-ए-बिदअत असंवैधानिक, गैर-इस्लामिक : सुप्रीम कोर्ट

talaq-a-bidat-unconstitutional-non-islamic-supreme-court
नयी दिल्ली, 22 अगस्त, उच्चतम न्यायालय ने आज एक ऐतिहासिक फैसले में तलाक-ए-बिदअत (लगातार तीन बार तलाक कहने की प्रथा) को असंवैधानिक तथा गैर इस्लामिक करार देते हुए निरस्त कर दिया। मुख्य न्यायाधीश जे एस केहर, न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ, न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित, न्यायमूर्ति रोहिंगटन एफ नरीमन और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर की संविधान पीठ ने बहुमत के फैसले के आधार पर तलाक-ए-बिदअत को असंवैधानिक और गैर-इस्लामिक करार दिया। संविधान पीठ ने अपने 395 पृष्ठ के फैसले में लिखा है, ‘इस मामले में न्यायाधीशों के अलग-अलग मंतव्यों को ध्यान में रखते हुए तलाक-ए-बिदअत अथवा तीन तलाक की प्रथा को (3 : 2 के ) बहुमत के फैसले के आधार पर निरस्त किया जाता है।” न्यायमूर्ति केहर और न्यायमूर्ति नजीर ने तीन तलाक की प्रथा को इस्लाम के अनुरूप बताया, लेकिन न्यायमूर्ति नरीमन, न्यायमूर्ति जोसेफ और न्यायमूर्ति ललित ने इसे संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत प्रदत्त समानता के अधिकारों के खिलाफ करार दिया तथा इसे असंवैधानिक एवं गैर-इस्लामिक बताया। मुख्य न्यायाधीश ने अपना तथा न्यायमूर्ति नजीर संयुक्त फैसला सुनाते हुए कहा कि तीन तलाक पाप हो सकता है, लेकिन न्यायालय को पर्सनल लॉ के मामले में दखल नहीं देना चाहिए। मुख्य न्यायाधीश ने सरकार को तीन तलाक के मामले में कानून बनाने की सलाह दी और छह माह तक तलाक-ए-बिदअत पर रोक लगाने का आदेश दिया। न्यायमूर्ति केहर ने कहा कि यदि सरकार छह महीने में कानून नहीं बना पाती है तो उसकी यह रोक जारी रहनी चाहिए। उन्होंने कहा, “सभी राजनीतिक दलों को अपने मतभेद भूलकर नया कानून बनाना चाहिए और ऐसा करते वक्त मुस्लिम संगठनों की आपत्तियों और शरिया कानून को भी ध्यान में रखना चाहिए।” लेकिन न्यायमूर्ति नरीमन, न्यायमूर्ति ललित और न्यायमूर्ति जोसेफ ने बाद में अपने फैसले में तलाक-ए-बिदअत को मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का उल्लंघन करार दिया। तीनों न्यायाधीशों ने इस प्रथा को असंवैधानिक और गैर-इस्लामिक करार दिया। न्यायमूर्ति जोसेफ ने कहा कि तीन तलाक कुरान की भावनाओं के खिलाफ है, इसलिए यह शरिया कानूनों का भी उल्लंघन है। उन्होंने कहा, “मुख्य न्यायाधीश की इस बात से सहमत होना बिल्कुल कठिन है कि तीन तलाक इस्लाम धर्म का अंदरूनी मामला है।” उन्होंने आगे कहा, “तीन तलाक इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं है और इस प्रथा को संविधान के अनुच्छेद 25 (मौलिक अधिकारों से संबंधित) का संरक्षण हासिल नहीं है। इसलिए इसे निरस्त किया जाना चाहिए।” उधर न्यायमूर्ति नरीमन ने कहा कि तीन तलाक को संवैधानिकता की कसौटी पर कसा जाना जरूरी है। तीन तलाक को निरस्त करने के पक्षधर तीनों न्यायाधीशों ने विभिन्न मुस्लिम देशों में तीन तलाक की प्रथा समाप्त किये जाने का हवाला देते हुए कहा कि जब मुस्लिम देशों ने इस प्रथा को समाप्त कर दिया है तो आजाद भारत को इससे मुक्ति क्यों नहीं लेनी चाहिए। पाकिस्तान और बंगलादेश सहित 20 से अधिक मुस्लिम देशों ने इस प्रथा को प्रतिबंधित कर रखा है। गौरतलब है कि शीर्ष अदालत ने गत 18 मई को तीन तलाक के मुद्दे पर सुनवाई पूरी करके फैसला सुरक्षित रख लिया था। संविधान पीठ ने ग्रीष्मावकाश के दौरान मैराथन सुनवाई करते हुए सभी संबंधित पक्षों की व्यापक दलीलें सुनी थी। संविधान पीठ में हिन्दू (न्यायमूर्ति ललित), मुस्लिम (न्यायमूर्ति नजीर), सिख (मुख्य न्यायाधीश) , ईसाई (न्यायमूर्ति जोसेफ) और पारसी (न्यायमूर्ति नरीमन) समुदाय के न्यायाधीशों को रखा गया था। संविधान पीठ तलाक पीड़ित कुछ मुस्लिम महिलाओं और सामाजिक संगठनों की याचिकाओं की सुनवाई कर रही थी।

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