मधुबनी (दीपम) , ये स्कूल बेला नवटोली गांव की है। इसके प्रभारी पूर्व बीआरपी हैं, जो सिर्फ मुखौटा भर हैं। असल में, उन प्रभारी की क्या कहे, प्रखंड से लेकर जिले स्तर तक में इस स्कूल को 'बैजू-बावड़ा', 'हनीप्रीत-राम-रहीम' की चर्चित उक्ति के लिए मशहूर हैं। ये चर्चा केवल बेला-नवटोली, या फिर बाबूबरही, मधुबनी में ही नहीं बल्कि सूबे की राजधानी तक में इनदिनों जोरों पर है। ये 'शोहरत' महज सात सालों में ही स्कूल ने हासिल की है। ग्रामीण व पूर्व मुखिया योगेंद्र सिंह कहते हैं इस स्कूल में बाहर से कोई यहां आकर कोई पांव क्यूं गंदा करेगा? देखिये, भवन निर्माण पूरी होने के बाद भी नई मकान में ताला जड़ा हुआ है। इस गांव की शिक्षिका के ससूर ने स्कूल के भुदाता हैं। इसलिए वे यहां हावी है। यकीन मानिए, भुदाता परिवार की शिक्षिका के बारे में अगर कोई चर्चा होती है, तो पहले खुद के धैर्य को बांध रखें। बतौर पूर्व प्रभारी दूसरी शिक्षिका वर्तमान प्रभारी और भुदाता घर की शिक्षिका को हनी-प्रीत और राम-रहीम, या फिर बैजू-बावड़ा ही मानते। वे पहले स्कूल चली आती है, भुदाता परिवार की शिक्षिका अपने प्रभारी से पहले आकर हेडमास्टर का रूम खोलती हैं। जब तक स्कूल चलती है तब तक एक दूसरे के आमने सामने से प्रभारी व शिक्षिका पास से नहीं हटते हैं।
गौरतलब है कि बेला-नवटोली गांव का सामाजिक आधार दो अलग-अलग राहों पर है। वर्तमान में स्कूल के शिक्षा समिति का सचिव वर्तमान मुखिया की पत्नी है जो विगत सात सालों से इस पद पर जमे हैं। यहां का प्रभारी कभी भी खुद का ट्रांसफर यहां से करवा सकता है। असल में ग्रामीण को छोड़िए, आला अफसरों के ताबूत में ऐसी कोई कील नहीं है, जो उनके सहायक शिक्षकों को लगा सके। ऐसा नहीं कि सहायक शिक्षकों और प्रभारी या फिर आला अफसरों के बीच किसी तरह का 'लेन देन' पहले या बाद में हुआ है। लेकिन विगत सात सालों में स्कूल में इतना जरूर हुआ है, सरकारी योजनाओं को चासनी की तरह बंदरबांट हुई। प्रभारी को छोड़कर बाकि सहायक शिक्षकों में दो ऐसे हैं जो प्रभारी पद के लिये यहां पहले ही सेवा दे चुके हैं। कभी अकेले तो कभी दूसरे ने की भूमिकाओं पर कोई संदेह है।
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