बी एन वाई न्यूज़ , औरंगाबाद जिले के गोह विधानसभा क्षेत्र के पूर्व विधायक रामशरण यादव का संबंध सीपीआई से था। वे सामाजिक आंदोलनों से भी जुड़़े हुए थे। यादव जाति में समाज सुधार के प्रमुख नेता भी थे। 1990 के आसपास की बात होगी। वे हमारे ओबरा प्रखंड के डिहरा में आए थे। उनकी रिश्तेदारी गांव में थी। हमारी उनसे मुलाकात हुई। अपने आंदोलनों के संबंध में उन्होंने बताया कि जब हम लोग सामाजिक कार्यों के लिए निकलते थे तो ठहरने की कोई दिक्कत नहीं थी। जिस घर की दीवार गोबर ठोकल मिल गया, उस घर में ठहर लेते थे। क्योंकि जिस दीवार पर गोबर होगा, वह यादव का ही होगा। उनका यह अनुभव करीब 50 साल पहले का होगा। लेकिन 50 साल बाद भी गोबर और दीवार का संबंध बदला नहीं है। दीवार मिट्टी की जगह ईंट की बन गयी है। खपड़ैल मकान की जगह छत बन गयी है। घर यादव का है तो गोबर से पीछा नहीं छूटा है। कुकिंग गैस भले घर-घर तक पहुंचने का दावा किया जा रहा है, लेकिन गोईठा का इस्तेमाल बंद नहीं हुआ।
अपने नये प्रोजेक्ट मासिक पत्रिका ‘काराकाट न्यूज’ को लेकर 22 दिसंबर को हम बिक्रमगंज गये हुए थे। वीरेंद्र यादव न्यूज के साथ जनवरी से ‘काराकाट न्यूज’ भी प्रकाशित कर रहे हैं। इस पत्रिका का विषय काराकाट लोकसभा क्षेत्र की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिवेश ही होगा। हालांकि औरंगाबाद व रोहतास जिले के अन्य प्रखंडों से जुड़ी खबरों को भी जगह दी जा सकती है। बिक्रमगंज की नोनहर पंचायत में एक गांव है पड़रिया। काई नदी के पास स्थित है और इंटर कॉलेज से करीब दो किलो मीटर की दूरी पर होगा। बिक्रमगंज प्रमुख संजय सिंह लाली से मुलाकात के बाद हम पड़रिया गये थे। इस गांव में पानी टंकी से पानी की आपूर्ति सुबह-शाम की जाती है, लेकिन हर घर में चापाकल भी है। बिजली की आपूर्ति भी होती है। यह गांव यादव व कोईरी का बहुलता वाला है। दानापुर के बीएस कॉलेज के प्रोफेसर डॉ. राम अशीष सिंह का गांव पड़रिया ही है।
गांव में ही कुछ लोगों से मुलाकात हुई। बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। आसपास का पूरा माहौल पशु-पालन का था। बगल की जमीन पर भैंस बांधी हुई थी। दीवार पर गोर्इठा भी ठोका हुआ था। बांस और तरकुल की भरमार है। गांव के रास्ते में शिशम के पेड़ का पूरा जंगल है। मुहल्ला यादव का था, इसलिए चर्चा का विषय भी लालू यादव ही थे। गांव में कभी-कभार अखबार भी आ जाता है। कोईरी जाति सब्जी की खेती के साथ मुर्गी फॉर्म के पेशे से तेजी से बढ़ रही है। गांव में कई बड़े-बड़े मुर्गी फॉर्म भी बने हुए हैं।
गांवों में पानी, सड़क, बिजली और अन्य सुविधाएं पहुंच रही हैं और पहुंचाने की कोशिश जारी है। पड़रिया शहर के नजदीक है, इसलिए कुछ ज्यादा सुविधाएं दिखती भी हैं। सरकार गांवों को स्मार्ट बनाने की कोशिश कर रही है, लेकिन प्रतिभाओं को रोकने का कोई प्रयास नहीं हो रहा है। हर आदमी उच्च शिक्षा, बेहतर रोजगार और संतोषजनक जीवन शैली के लिए गांवों से शहर और शहरों से महानगरों की ओर पलायन कर रहा है। पड़रिया एक उदाहरण है। बिहार के हर गांव की यही हालत है। गांव का नाम बदल जाता है, चौहदी बदल जाती है, भूगोल बदल जाता है, लेकिन संस्कार और संस्कृति नहीं बदल रही है। गांव, गोईठा और गोवार (इसे जाति के बजाये समाज की समग्रता के रूप में देंखे) का संबंध 50 वर्षों में भी नहीं बदला है। जिस व्यक्ति या समाज में बदलाव की लालसा है, वह खुद गांव में वापस लौटने को तैयार नहीं है। यही गांव-गांव की कहानी है।
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