सन्दर्भ : जीवन का दुःख और ध्यान का सुख - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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बुधवार, 7 जून 2017

सन्दर्भ : जीवन का दुःख और ध्यान का सुख

life-and-happiness
भौतिक चकाचैंध एवं आपाधापी के इस युग में मानसिक संतुलन हर व्यक्ति जरूरत है। मानसिक असंतुलन जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है। इससे व्यक्तिगत जीवन तो नरक बनता ही है, सम्पूर्ण मानवता भी अभिशप्त होती है। वर्तमान की स्थिति को देखकर ऐसा महसूस हो रहा है कि कुछेक व्यक्तियों का थोड़ा-सा मानसिक असंतुलन बहुत बड़े अनिष्ट का निमित्त बन सकता है। मानसिक संतुलन के अभाव में शांति के दर्शन करना, आनंद का स्पर्श करना भी दुर्लभतम बनता जा रहा है, जैसे कि रेत के कणों से तेल को प्राप्त करना। इस अशांत वातावरण में मन को अनुशासित व स्थिर करना दुष्कर कार्य बनता जा रहा है। इन स्थितियों में हम अपने दुख या कष्ट का विश्लेषण करें और यह जानने की कोशिश करें वास्तव में जब हम दुखी होते हैं तो हमारे भीतर दुखी या तनावग्रस्त कौन होता है तो पायेंगे कि दुखी होने वाला हमारा मन ही है। वही व्याकुल, तनावग्रस्त या चिंतित होता है। ध्यान एक ऐसी विद्या है जिससे हम अपने मन की शक्तियां बढ़ा सकते हैं जैसे इसके सहज रहने की शक्ति, इसके तनाव मुक्त रहने की शक्ति, इसके दुखी नहीं होने की शक्ति। ध्यान के समय हम इस संसार की सभी उलझनों से मुक्त हो जाते हैं। वह सब कुछ जो संसार से मिला है उसको छोड़कर बैठ जाते हैं। जब हम न मां होते हैं न बाप, न बेटा न बेटी, न सास न बहू, न अधिकारी न व्यवसायी, न अमीर न गरीब, न हिन्दू न मुस्लिम। तब हम केवल आत्मस्वरूप होते हैं क्योंकि ये सब पद, नाम, बुद्धि, विचार और अहंकार इस शरीर के हैं, आत्मा के नहीं। आत्मा से आत्मा के मिलन की प्रक्रिया है ध्यान। यो तो ध्यान की अनेक पद्धतियां प्रचलित है लेकिन प्रेक्षाध्यान स्वयं के द्वारा स्वयं को देखने एवं आत्म-साक्षात्कार की विशिष्ट ध्यान पद्धति है। यह आज के परिवेश में व्याप्त तनाव, अशांति, असंतुलन, कुण्ठा की सलवटों को दूर करने तथा भौतिक एवं पदार्थवादी मनोवृत्ति के अंधकार को प्रकाश में रूपान्तरित करने की सरल एवं सहज उपक्रम है।


 आज मानव तनाव की नाव में बैठकर जिंदगी का सफर तय कर रहा है। बच्चा तनाव के साथ ही जन्म लेता है। गर्भ का पोषण ही अशांत, तनाव एवं निषेधात्मक विचारों के साथ होता है तो बच्चे के मज्जा में तनाव व आक्रोश के बीज कैसे नहीं होंगे। हिंसा के इस युग में एक ज्वलंत प्रश्न है कि शांति कैसे मिले? तनाव से मुक्ति कैसे मिले? मन को स्थिर कैसे बनाया जाए? इन सारे निरुत्तरित प्रश्नों का समाधान आज भी उपलब्ध हो सकता है। जरूरी है कि हम उन्हीं तरीकों और विचारों के साथ किसी भी समस्या का हल नहीं करें, जिनके साथ हमने वह समस्या पैदा की है। समस्या की उत्पत्ति और समस्या के समाधान का मार्ग कभी भी एक नहीं हो सकता। आधुनिक युग का प्रत्येक व्यक्ति किसी-न-किसी प्रकार की चिंता व तनाव से ग्रस्त है। आज विश्व के सर्वाधिक विकसित व संपन्न राष्ट्र अमेरिका में लोग तनाव व चिंता से निजात पाने के लिए प्रतिवर्ष 10 करोड़ डाॅलर से अधिक व्यय करते हैं तथा कई टन मादक द्रव्यों का सेवन करते हैं। तनाव की यह समस्या नई नहीं है। प्राचीन काल में भी व्यक्ति इसके दुष्परिणामों से मुक्त नहीं था। लेकिन वर्तमान में इस समस्या ने काफी उग्र रूप धारण कर लिया है। जहां समस्या है वहां समाधान भी है। अशांत मन को अनुशासित करने की प्रक्रिया का मार्गदर्शन देने वाली कबीरदासजी की इस प्रेरणा का स्मरण रखे- जिन जागा तिन माणिक पाया। किसी भी समस्या के मूल में मन का असंयम होता है। जब मन में कोई बुरा विचार पैदा होता है तो हमारा आचार व व्यवहार भी बुरा बन जाता है। शक्ति जागरण व शान्त जीवन का महत्वपूर्ण सूत्र है-संयम। मन को अनुशासित कर असंयम से होने वाली समस्या पर काबू पाया जा सकता है।

तनाव व आपाधापी की जिंदगी में शांति के सुमन खिल सकते हैं, बशर्ते जीवन के प्रति सकारात्मकता का क्रम दीर्घकालिक व निरंतरता लिए हुए हो। दीनता और हीनता की ग्रंथि दुर्भेद्य कारागार के बंधन के समान है। उसे तोड़े बिना विकास का कोई भी सपना साकार नहीं हो सकता। जिस प्रकार अभिमान करना पाप है, बंधन है, उसी प्रकार स्वयं को दीन-हीन समझना भी पाप है, बंधन है। किसी भी प्रकार की विषमता और प्रतिक्रिया का अनुभव जीवन के लिए हानिकारक और बंधनकारक है। कतिपय अभिभावक अनुशासन करते हुए बच्चों के लिए अपमानजनक और हीनतासूचक भाषा का उपयोग करते हैं, यह उचित नहीं है। इससे उनके कोमल मस्तिष्क में हीनता के संस्कार अंकित हो जाते हैं। जिनका उनके भविष्य पर घातक प्रभाव होता है। बच्चों के लिए मार्गदर्शन जरूरी है, पर उनका आत्मविश्वास और आत्मसम्मान खंडित नहीं हो, यह ध्यान रखना भी आवश्यक है। पर उसके साथ हीनता और भीरुता की भावना को प्रोत्साहन नहीं मिलना चाहिए। जहां भक्ति और समर्पण के साथ आत्मशक्ति का आधार सबल होता है, वहां जीवन की धारा संतुलित और व्यवस्थित होती है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टीन प्रारंभ में अन्य विद्यार्थियों की तुलना में मंदबुद्धि समझे जाते थे। वे शिक्षकों के प्रश्नों का समुचित उत्तर नहीं दे सकते थे। इस स्थिति में उनके सहपाठी उनकी पीठ पर ‘मूर्ख’, ‘बुद्धू’ जैसे उपहासास्पद शब्द लिख देते थे। पर आइंस्टीन हीनता की भावना के शिकार नहीं हुए। शताब्दी के महान वैज्ञानिक के रूप में वे सारे विश्व में प्रसिद्ध हुए।


व्यक्ति और परिस्थिति का गहरा संबंध है। जिसे अनुकूल परिस्थितियां प्राप्त होती हैं वह सहजता से विकास कर सकता है। प्रतिकूल परिवेश में सफलता की ओर अग्रसर होना कठिन होता है। परिस्थितियों के निर्माता हम स्वयं हैं। उनकी दासता और पराधीनता पर विजय प्राप्त करना चाहिए। आज के जनमानस पर परिस्थितिवाद का व्यापक प्रभाव दृष्टिगोचर हो रहा है। इससे नाना प्रकार की मानसिक और सामाजिक समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। हर व्यक्ति का जीवन परिवर्तनशील है। समय-समय पर कठिनाइयों की दुर्गम घाटियां भी पार करनी होती हैं। जिनका मानस परिस्थितिवादी हो जाता है, वे उस स्थिति में अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर नहीं हो सकते। विश्व के सभी महापुरुष अपने आत्मबल और मनोबल के आधार पर सफलता के शिखर पर आरूढ़ हुए हैं।  हमारे आत्मबल और पुरुषार्थ में ही सफलता और सिद्धि का निवास होता है, बाहर के उपकरणों और साधनों में नहीं। शुक्र मानिये कि हमारे पास वह सब नहीं है जो हम चाहते हैं, इसका अर्थ यह है कि हमारे पास कल आज से ज्यादा खुश होने का एक अवसर मौजूद है। जब जागे तभी सवेरा। इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि आपने आज कोई संकल्प लिया और अगले दिन  भूल जाये। होश की, जागरण की और सद्-संकल्प की प्रक्रिया दिनों और तारीखों से नहीं बंधी है- यह जीवन के हर पल से जुड़ी है। जीवन के हर क्षण से पूरा रस निचोड़ लेना, हर क्षण को पूरी जिजीविषा से जी लेना, हर क्षण में अपने प्राण उंड़ेल देना- यही है जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण। यही है जीवन का सद्-संकल्प। यही है समस्याओं से मुक्ति का मार्ग।

आज पहले की अपेक्षा सुविधावाद अधिक बढ़ा है। प्राचीन युग में जो साधन-सामग्री राजा-महाराजाओं के लिए सुलभ थी, वर्तमान में जन-साधारण के लिए उपलब्ध है। फिर भी हर व्यक्ति तनावग्रस्त दिखाई दे रहा है। उसके समक्ष विविध प्रकार की समस्याएं और प्रतिकूलताएं हैं। आज कठिनाइयों के रूप बदल गए हैं। जीवन के साथ उनका अटूट संबंध है। जहां जीवन है वहां समस्याएं और कठिनाइयां हैं। उनका समाधान और प्रतिकार आंतरिक बल और साहस से ही हो सकता है। जो परिस्थितिवादी होता है, वह स्वयं के सुधार और बदलाव पर ध्यान न देकर सिर्फ परिस्थितियों के बदलने का इंतजार करता है। परिस्थितिवादी लोग व्यवस्थाओं के दर्पण बदलने का आग्रह करते रहते हैं, पर उन्हें अपने जीवन में कभी समाधान प्राप्त नहीं हो सकता। आत्मबल, आत्मविश्वास एवं आत्म-विकास की ज्योति प्रज्वलित करने से ही वास्तविक विकास का मार्ग प्रशस्त हो सकता है, समाधान की दिशा प्राप्त हो सकती है। उसी से हिंसा की समस्या का समाधान मिल सकता है, तनाव एवं कुण्ठा पर काबू पाया जा सकता है, हीनता एवं दीनता की कमजोरियों को दूर किया जा सकता है। 




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(ललित गर्ग)
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