यूपी के मुजफ्फरनगर खतौली में कलिंगा उत्कल एक्सप्रेस हादसा न पहली बार है और न ही आखिरी। हर हादसे के बाद रोकने के लंबे-चैड़े वादे किए जाते है, लेकिन हादसे है, जो रुकने का नाम नहीं ले रहे। अन्य हादसों की ही तरह छोटी सी चूक के चलते इस हादसे में भी 35 लोग मारे गए। जबकि 100 से ज्यादा अस्पताल में जिंदगी-मौत से जूझ रहे है। लेकिन मौके वारदात चश्मदीदों की माने तो हादसा बड़ा है, न जाने कितने लोग काल के गाल में समा चुके हैं। बड़ा सवाल तो यह है कि आखिर मौत की पटरी पर हम कब तक सफर करते रहेंगे? 24 लोगों की मौत का कौन है जिम्मेदार? आखिर कैसे हुई इतनी बड़ी चूक? क्या वाकई प्रभू भरोसे है रेलवे? और रेल पटरियों का ये हाल है तो कैसे दौड़ेगी बुलेट ट्रेन? ये ऐसे सवाल जिसका जवाब अब हर कोई जानना चाहता है
हर रोज की तरह 19 अगस्त को भी ट्रेन संख्या 18477 कलिंग-उत्कल एक्सप्रेस पुरी से हरिद्वार जा रही थी। मुजफ्फरनगर के खतौली रेलवे स्टेशन के पास पौने छह बजे अचानक उस वक्त अफरा-तफरी, चीख-पुकार गूंजने लगी जब ट्रेन के 14 डिब्बे पटरी से उतर गए। ट्रेन की गति कितनी तेज थी इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है छह डिब्बे न सिर्फ एक-दुसरे पर चढ़ गए, दो डिब्बे आपस में इस कदर चिपक गए कि उन्हें घंटों मशक्कत के बाद अलग नहीं किया जा सका तो पटरी से उतरे दो डिब्बे ट्रैक के पास बने मकानों और स्कूल इमारत में घुस गए। कहा जा रहा है कि उस समय ट्रेन सुपर स्पीड 100 किमी से ज्यादा की रफ्तार से दौड़ रही थी। जबकि यह जगजाहिर हो चुका है घटनास्थल के आसपास की पटरियां डैमेज थी। हादसा उस वक्त हुआ जब ट्रैक पर मरम्मत का काम चल रहा था। यानी पिछले स्टेशन पर ही चालक को कॉशन की जानकारी मिल जानी चाहिए थी, लेकिन ऐसा हो न सका। मतलब साफ है स्टेशन मास्टर और जिम्मेदार पीडब्ल्यू आई इंजिनियर की मामूली भूल ने 24 से ज्यादा जाने एक झटके में ही ले ली। कई परिवारों की जिंदगिया बर्बाद हो गयी।
इस वाकये में भूल व लापरवाही इतनी बड़ी है कि जो क्षमा योग्य नहीं है। बताते है कि हादसे से दो दिन पहले भी इस तरीके का मामला सामने आया था। गेटमैन के मुताबिक, घटनास्थल से कुछ दूरी पर ही 2 दिन पहले ही एक दूसरी पटरी टूटी हुई मिली थी। तीन दिन तक उस तरफ कोई नहीं गया। इस लाइन के 2 स्लीपर भी टूटे हुए मिले थे, जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि वो पटरी काफी पहले टूट गई होगी। बावजूद इसके किसी ने उसकी सुध नहीं ली। हालांकि, ये गनीमत रही कि वहां से ट्रेन गुजरती रहीं और किसी हादसे का शिकार नहीं हुईं। कहा जा रहा है कि अगर जिम्मेदार अधिकारी व कर्मचारी जरा सी भी मुस्तैदी दिखाई होती तो खतौली में हुए ट्रेन हादसे को रोका जा सकता था। हद तो तब हो गयी जब घटना वाले दिन जो पटरी काटी गई थी, उसे जोड़ा नहीं गया और ऐसे ही छोड़ दिया गया। इतना ही नहीं, वहां काम करने वाले कर्मचारी अपने मशीन भी वहीं छोड़कर चले गए। ट्रेन के आने का वक्त हो गया। जबकि इससे पहले वहां लाल झंडा लगाया जा सकता था, स्टेशन मास्टर द्वारा काॅशन की सूचना दे देनी चाहिए थी। जबकि सूत्रों का कहना है कि जिस पटरी से कलिंग-उत्कल ट्रेन को गुजरना था, उस पर काम चलने की जानकरी सभी को थी। ट्रेन को धीमी गति से गुजारने के आदेश थे, लेकिन सिग्नल गड़बड़ होने से ड्राइवर को सूचना नहीं मिली और ट्रेन 100 किमी प्रति घंटे से ज्यादा की रफ्तार से चलती रही, जिस वजह से पटरी उखड़ गई। कर्मचारियों ने इंसानियत की सारी हदें उस वक्त तार-तार कर दी जब हादसे के बाद ड्यूटी पर तैनात गैंगमैन, लोहार और जेई भाग खड़े हुए और जेई ने अपना मोबाइल स्वीच आफ कर ली।
हो जो भी पूरा सच तो जांच के बाद ही आयेगा, लेकिन यह सच है कि जहां कहीं भी ट्रैक पर गड़बड़ी होती है, वहां इंजीनियरिंग विभाग स्टेशन मास्टर को ट्रैक के लिए मेमो देता है। स्टेशन मास्टर सेक्शन कंट्रोल से ब्लॉक (समय, इतने बजे से इतने बजे तक) परमिट कराते हैं। जबकि खतौली स्टेशन पर किसी तरह का ब्लॉक नहीं लिया गया था। और तो और वाकये के बाद राहत के काम में रेलवे की लेट लतीफी इस कदर दी थी कि डेढ़ घंटे बाद भी एक दूसरे पर चढ़े डिब्बों को हटाने के लिए रेलवे की क्रेन नहीं पहुंची थी। रेल मंत्री से अब उम्मीद है कि इस घोर चूक के लिए जिम्मेदार अफसरों और कर्मचारियों को कठोर सजा मिलेगी, ताकि भविष्य में ऐसी लापरवाही गलती से भी न हो। क्योंकि अगर इन्हीं टूटी पटरियों पर ट्रेने दौड़ती रही तो हादसे दर हादसे होते रहेंगे? अगर इस जानलेवा चूक के जिम्मेदारों को सजा नहीं मिली तो हादसे होते रहेंगे। अब इन लापरवाहों को कौन बताएं कि उनकी एक जरा सी भूल ने कितने परिवारों को गम में डूबों दी। कही बच्चे तो कहीं बुजुर्ग तो कहीं जवान, सब काल कलवित हो गए। लोगों के आंसू सूख नहीं रहे हैं। क्योंकि सबकों पता चला गया है कि अस्पताल में जो लोग जिंदगी मौत से जूझ रहे है वे किसी लापरवाही के शिकार हो चुके है। जो जिन्दा है वे भगवान का नाम ले रहे है। लोगों ने अपने आंखों के सामने कई जिंदगियों को खत्म होते देखा है। न जाने कितनी जिंदगिया बर्बाद हो गयी है।
खासकर यह मानने योग्य तो कत्तई नहीं है कि रेल मंत्री सुरेश प्रभु अपनी जिम्मेदारियों से बचते हुए कुछ कर्मचारियों करे निलंबित कर दिया है। सच तो यह है जर्जर हो चुकी व्यवस्था से निपटा कैसे जाय। क्योंकि यदि ऐसी किसी व्यवस्था का निर्माण हो गया होता कि मरम्मत वाली पटरियों से गुजरने वाली ट्रेन के ड्राइवरों को इस आशय की सूचना दी जाएगी और उसकी पुष्टि भी की जाएगी तो इतने लोगों को हताहत होने से बचाया जा सकता था। यह ठीक नहीं कि रेलें बार-बार उन्हीं कारणों से दुर्घटना का शिकार होती रहें जिन कारणों से वे पहले भी हो चुकी हैं। यह ठीक है कि रेलवे में अन्य अनेक उल्लेखनीय सुधार हो रहे हैं और वे नजर भी आ रहे हैं, लेकिन यदि ट्रेन दुर्घटनाओं के सिलसिले को नहीं रोका जा सका तो ये सुधार अपनी महत्ता खो देंगे। यह समझना कठिन है कि आखिर सुरक्षित रेल यात्र को सर्वोच्च प्राथमिकता क्यों नहीं दी जा रही है? एक बड़ी संख्या में ट्रेन दुर्घटनाएं इसलिए हो रही हैं, क्योंकि पटरियां या तो पुरानी पड़ चुकी हैं या फिर जर्जर हो चुकी हैं, लेकिन जब रेल यात्रियों की जान जोखिम में हो तब फिर पुरानी पटरियों को ठीक करने अथवा उन्हें बदलने का काम युद्धस्तर पर क्यों नहीं हो सकता?
लंबे समय से लगातार रेलवे को तकनीकी रूप से सक्षम बनाने के दावे और वादे किये जा रहे हैं, पर पटरी की मरम्मत की खबर चालक को देने में व्यवस्था अक्षम रही। यह भी अजीब बात है कि रेल विभाग की शब्दावली में इस तरह के रख-रखाव के काम को ‘अनऑफिसियल मेंटेनेंस‘ कहा जाता है। ट्रैफिक के दबाव में कर्मचारियों को काम करना होता है। ऐसी स्थिति में गाड़ियों की गति धीमी करने या पहले से सूचित करने जैसी जरूरी बातों की अनदेखी कर दी जाती है। आम तौर पर जिन पटरियों पर मरम्मत का काम चल रहा होता है, वहां गाड़ियां 10-15 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चलती हैं, ताकि कोई दुर्घटना न हो जाये। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि रेल प्रबंधन पिछली दुर्घटनाओं से सबक लेने में नाकाम रहा है। निश्चित रूप से उन अधिकारियों और कर्मचारियों को दंडित किया जाना चाहिए, जिनकी लापरवाही के चलते यात्रियों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है, लेकिन शीर्ष स्तर पर भी जवाबदेही तय की जानी चाहिए। रेलवे का पंचवर्षीय आधुनिकीकरण कार्यक्रम चल रहा है, जिसका बजट 130 अरब डॉलर है। दुर्घटनाओं की बढ़ती संख्या के मद्देनजर इस साल फरवरी में 15 अरब डॉलर पटरियों की बेहतरी के लिए निर्धारित किये गये थे. रेल किराये में भी बढ़ोतरी होती रहती है। इसके बावजूद व्यवस्था में सुधार होता दिख नहीं रहा। सुरक्षा और सुविधाओं के प्रति रेल विभाग का रवैया अत्यंत निराशाजनक है।
(सुरेश गांधी)
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