आदिवासियों की जमीन बचाने के लिए बना था सीएनटी-एसपीटी अधिनियम - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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सोमवार, 29 जनवरी 2018

आदिवासियों की जमीन बचाने के लिए बना था सीएनटी-एसपीटी अधिनियम

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रांची 28 जनवरी, समाज की मुख्यधारा से कटे और शोषण का शिकार रहे आदिवासियों की जमीन के अवैध हस्तांतरण को रोकने के लिए ही छोटानागपुर काश्तकारी (सीएनटी) और संतालपरगना काश्तकारी (एसपीटी) अधिनियम बनाया गया था लेकिन इन कानून की कुछ खामियों के कारण उनकी जमीन सुरक्षित नहीं रही। ‘सीएनटी-एसपीटी एक्ट के परिप्रेक्ष्य में झारखंड’ के लेखक उमाकांत महतो ने आज यहां बताया कि 1908 में बने सीएनटी और 1949 में बने एसपीटी अधिनियम का उद्देश्य भोलेभाले आदिवासियों की जमीन को सुरक्षित रखना था ताकि उनका अवैध हस्तांतरण न हो पाए और वे ठगे न जाएं। लेकिन, की कुछ खमियों के चलते अवैध हस्तांतरण लगातार होता रहा और उनकी जमीन औने-पौने दाम पर बिकती रही। उन्होेने अपनी पुस्तक में विस्तार से लिखा है कि सरकार को जब भी किसी विकास कार्य के उद्देश्य से जमीन की जरूरत हुई तब यह अधिनियम जमीन के अधिग्रहण में बाधक भी बना। हालांकि समय-समय पर इसमें संशोधन होते रहे और अबतक इसमें 26 संशोधन हो चुके हैं। इसी क्रम में रघुवर सरकार ने सीएनटी-एसपीटी अधिनियम की कुछ धाराओं में संशोधन का प्रस्ताव रखा। संशोधन के प्रस्ताव के पीछे सरकार की मूल मंशा थी कि आदिवासियों को उनकी जमीन की सही कीमत औरउपयोग का मौका मिले। साथ ही सरकार को विकास योजनाओं के लिए जरूरत के अनुसार जमीन उपलब्ध हो सके। लेकिन, सरकार के इस निर्णय ने राज्य में भूचाल ला दिया। कुछ आदिवासी संगठनों और खास कर वैसी संगठनों, जिनकी बागडोर चर्च के हाथों में थी खुलकर विरोध में सामने आ गए। इन्होंने ऐसा प्रचार किया, मानो सरकार इस संशोधन की आड़ में उनकी जमीन जबरन छीन रही हो। 

इस सिलसिले में कार्डिनल स्तर के इसाई धर्मगुरू राष्ट्रपति से मिलकर इन अधिनियमों में संशोधन के प्रस्ताव को वापस लेने का आग्रह किया। ईसाई शैक्षणिक संगठन के लोग भी सड़क पर विरोध में उतर गए और आदिवासियों की एक बडी जनसंख्या को यह विश्वास दिलाने में सफल रहे कि संशोधन होने से सरकार उनकी जमीन उद्योगपतियों के लिए छीन लेगी। परिणामस्वरूप, मुखर विरोध को देखते हुए राज्य की रघुवर सरकार ने संशोधन विधेयक वापस ले लिया। इसी पृष्ठभूमि में श्री महतो की लिखी पुस्तक बड़े ही साहस से इन अधिनियम के संशोधन से उपजे भ्रम को दूर करने की कोशिश की गई है। इस लघु पुस्तक के माध्यम से लेखक ने यह स्थापित किया है कि झारखंड और आदिवासियों की भलाई संशोधन में ही है और अपनी स्थापना के पक्ष में लेख ने अकाट्य तर्क और परिस्थितियों का जिक्र किया है। पुस्तक में इसकी भी विस्तार से चर्चा है कि कैसे भूमाफिया, पत्रकार समाज के बडे ओहदेदार और राजनीतिज्ञों ने इन अधिनियमों की धज्जियां उड़ाते हुए अवैध रूप से जमीनों का हस्तांतरण अपने हित में किया है। लेख का स्पष्ट विचार है कि संशोधन से ही आदिवासियों को जमीन का उचित लाभ मिलेगा। अपनी इस धारणा के पक्ष में पुस्तक में सीएनटी और एसपीटी अधिनियम के जरूरी प्रावधानों का उल्लेख तो किया ही गया है साथ ही उससे होने वाले लाभ-हानि का भी तार्किक विवेचन किया गया है। लेखक ने एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है कि क्या हर कालखंड में एक ही कानून प्रासंगिक है। क्या इनका संशोधन-परिमार्जन आवश्यक नहीं है। पुस्तक की सबसे बडी उपलब्धि यह है कि इसमें संशोधन का विरोध करने वाले तत्वों को और इसमें छिपे निहितार्थ को उसने पूरे साहस से उद्घाटित किया है। इस पुस्तक में वह सब है जो कोई जानना चाहता है, जैसे प्रमुख धाराएं, जमीन की प्रकृति, स्वामित्व का प्रकार,  पूर्व संशोधन की चर्चा, कौन और क्यों कर रहे हैं विरोध, झारखंड आंदोलन का इतिहास और आंदोलन के कारण  सभी पर विश्वसनीय और तार्किक ढंग से प्रकाश डाला गया है। 

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