विशेष : समरस पंचायत और महिलाओं का इस्तेमाल - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शुक्रवार, 27 अप्रैल 2018

विशेष : समरस पंचायत और महिलाओं का इस्तेमाल

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समरस पंचायत का अर्थ है जहाँ पर गाँव वालों की आपसी सहमति से पंचायत को चुना जाता हैं। इसमें वोटिंग नहीं होती है। जो ग्राम पंचायत समरस के तहत अपनी पंचायत का निर्माण करती है उस पंचायत को राज्य सरकार प्रशंसा स्वरूप एक तय धनराशी देती है। जसपुरिया पंचायत के कन्नू भाई बताते हैं कि गाँव का सौहार्द बनाएं रखने, फिजूल खर्ची से बचाव और विवाद से बचने के लिए ही समरस पंचायत की जाती हैं।’ जबकि मधु कहती हैं कि- ‘‘इन पंचायतों में पुरुष ही सरपंच बनते हैं। कभी किसी महिला को सरपंच या पंच बनने का मौका नहीं मिलता है अगर वह सीट महिला के लिए आरक्षित न हो। महिलाओं को समरस में चुन कर लाने का केवल दो ही कारण होते हैं, एक या तो वह महिला सीट हो या फिर समरस करके सरकार से अधिक ग्रांट लेना हो।’’ मधु के पति कन्नू भाई की राय में ‘ओपेन सीट तो पुरुष सीट होती है और उस पर महिला नहीं आ सकती, ठीक वैसे ही जैसे महिला सीट पर पुरुष नहीं आ सकते।’’ कन्नू भाई और उन जैसे अनेक लोगों का मानना है कि “खुली सीट केवल पुरुषों के लिए ही होती है और महिला केवल आरक्षित सीट पर ही चुनाव लड़ सकती है।’’ समरस की इन तीन कहानियों में यह स्पष्ट दिखाई पड़ता है कि शासन में स्वतंत्र रूप से चुनकर आना और आत्म निर्भर होकर काम करना महिलाओं के लिए सरल नहीं है। महिला सीटों पर महिलाओं को लाना एक मजबूरी होती है और गांव के प्रभुत्वशाली लोग अपनी सत्ता को हाथ से जाने नहीं देना चाहते तो अपने परिवार की अनिच्छुक महिलाओं को रबर स्टैम्प बनाकर स्वयं शासन करते हैं, वैसे ही जैसे वे करना चाहते हैं। ऐसे में महिलाओं को बाहर लाने और समान अवसर व स्थान दिलाने की नीतिकारों की मंशा फलीभूत होती नहीं दिखती। अगर किसी पंचायत में कोई जागरूक महिला अपने दम पर आना भी चाहे तो प्रभुत्वशालियों की पैनी चालों के आगे उसकी एक नहीं चलती और वह किसी न किसी तरह सत्ता से बाहर कर दी जाती है।
          
एक ऐसी ही कहानी भावनगर के पिपरला ग्राम पंचायत की है। इस गांव में आजादी के बाद पहली बार 2010 में चुनाव इसलिए हुआ, क्योंकि गीता ने चुनाव कराने का मन बना लिया था । गीता एक आशा वर्कर है और वह अपने काम के माध्यम से गाँव के लोगों में लोकप्रिय हैं। 2010 के चुनाव में पिपरला पंचायत की सीट ओपन सीट थी, और गीता ने समरस के बजाय चुनाव की वकालत की। तीसरी कक्षा पास गीता ने चुनाव मंे प्रतिभाग किया और हार गयीं, इस तरह समरस में पहले से तय चंदू भाई जोशी की जीत हुई। गाँव के कुछ चुनिंदा लोग जिनका गाँव में प्रभुत्व होता वही समरस करने के लिए आपसी सहमति बनाते है। गीता को जब 2010 में पता चला कि एक बार फिर से उनकी पंचायत समरस होने जा रही है तो उन्होंने गाँव वालों के सामने इस बात को रखा कि वह चुनाव लड़ना चाहती हैं। गीता को काफी समझाया गया कि वह ऐसा न करें परन्तु गीता नहीं राजी हुईं। वह कहती है कि समरस में केवल वही चुन कर आता हैं जिसको गाँव के प्रभुत्वशाली पुरूष वर्ग चुनते हैं। चाहे उसमें लगन हो या न हो, चाहे वह काम करना जानता हो या नहींे इससे उनको कोई फर्क नहीं पड़ता। जब कोई सीट महिला आरक्षित होती हैं तभी किसी महिला को समरस के तहत सरपंच बनने का मौका दिया जाता हैं, उसमें भी उस महिला को जो गाँव के मुखिया या अपने पति के अनुसार काम करे।
           
गीता एक जागरूक और तार्किक महिला हैं।वह गाँव में काम करने वाली एक स्थानीय महिला संस्था के साथ जुड़ी हुई है जिससे उन्हें पंचायत की प्रक्रियाओं और काम की काफी जानकारी  है। उन्होंने इस बात को महसूस किया कि आजादी के बाद से उनके गाँव में अभी तक कोई महिला सरपंच नहीं हुई है। इसके पीछे की वजह उन्हें यही लगी कि गाँव में चुनाव ही नहीं होते थे और और समरस में किसी महिला का नाम प्रस्तावित नहीं होता था। अतः उन्होंने इस परम्परा को तोड़ने का विचार किया और चुनाव में प्रतिभाग करने को तत्पर रहीं। उस बरस तो वह हार गयीं लेकिन इसका खामियाज़ा उन्हें भुगतना ही पड़ा जब अगले चुनावों में उन्हें जीत के छह महीने बाद ही अविश्वास प्रस्ताव लाकर हटा दिया गया।  मेहसाणा जिला गुजरात की राजधानी गांधीनगर से तकरीबन 80 किलोमीटर की दूरी पर है। 2011 की जनसंख्या के अनुसार ज़िले की कुल आबादी तकरीबन 1.84 लाख हैं। मेहसाणा जिले में एक तालुका हैं सतलासण जिसकी ग्राम पंचायत जसपुरिया एक समरस पंचायत है। जसपुरिया ग्राम पंचायत तीन गाँव की पंचायत हैं । जिसमें वसईजुत एक और वसईजुत दो और जसपुरिया गाँव शामिल हैं। मधुबा इसी पंचायत की रहने वाली हैं और वह पहली महिला हैं जो पिछले 20 वर्षों में पहली बार जसपुरिया पंचायत में समरस के तहत सरपंच बनी हैं क्योंकि 2017 में यह महिला सीट थी। वह परमार समुदाय से हैं जो गुजरात में अनुसूचित जाति है। मधुबा के दो बच्चे हैं और उन्होंने कक्षा 8 तक  शिक्षा ली है। पति ने स्नातक तक शिक्षा ग्रहण की हैं। मधुबा के पति कन्नू भाई गाँव के एक स्कूल में मिड डे मील का प्रबंध देखते हैं। परिवार की मासिक आमदनी तकरीबन 10000/- है। मधुबा के पति कन्नू भाई गाँव में सभी की ज़रूरत में काम आते हैं। इसीलिए गांव में लोगों में लोकप्रिय हैं। मधु की न तो कोई राजनैतिक पृष्ठभूमि है और न ही उनकी इच्छा सरपंच बनने की थी पर कन्नू भाई के कहने से उन्हें सरपंच के चुनाव में भाग लेना लिया। यही वजह है कि सरपंच बनने के बाद भी उनके पति ही उनके स्थान पर सरपंच के सभी काम काज सँभालते हैं । 

हालांकि मधुबा अपने पति कन्नू भाई के माध्यम से काम करती हैं फिर भी मधुबा के अब तक के कार्यकाल में अभी तक वसईजुत एक और दो में आर.सी.सी. रोड का निर्माण कराया, बंद पड़े स्ट्रीट लाईट को चालू कराया, जसपुरिया के विभिन्न मौहल्लों में आर.सी.सी.की दीवार भी बनवाई और इन सबके साथ उन्होंने सतलासण में बच्चों के लिए क्रिकेट का टूर्नामेंट भी कराया। अपने बाकी बचे कार्यों में सबसे पहले तीनों गांवों में इंदिरा आवास योजना के तहत 30 परिवारों को घर देने पर काम कर रही हैं । तीसरी कहानी भावनगर के शिहोर तालुका में बसे लाजपत नगर पंचायत (बदला हुआ नाम) की है। इस पंचायत में आजादी के बाद से अब तक केवल 3 बार ही पंचायत चुनाव हुए हैं। मगर इन तीनों ही चुनाव में न तो किसी महिला को चुनाव लड़ने का मौका मिला और न ही कोई महिला सरपंच बनी। लाजपत नगर पंचायत कि कुल आबादी 890 हैं, जिसमें तकरीबन 425 महिलाएं होंगी इसके बावजूद भी यहाँ महिलाओं को ग्राम पंचायत में सर्वोच्च पद से वंचित रखा जाता रहा । यह 2018 के चुनाव थे जिनमें ही पहली बार कोई महिला सरपंच बनी है, वह भी केवल इसलिए कि पिछले चुनाव में यह गाँव महिला ओपन सीट के लिए आरक्षित थी। वर्तमान में इस पंचायत की सरपंच हैं वर्षा। वर्षा के साथ  ही उनकी पंचायत में सभी 8 पंचों में महिलाओं को समरस के तहत चुना गया है। इन 8 पंचों में केवल 3 पंच ऐसी है जोकि पढ़ी लिखी हैं, 

52 वर्षीय वर्षा कक्षा 8 तक पढ़ी हैं । वर्षा के परिवार में 3 एकड़ खेती है और  उनको खेती से हर महीने तकरीबन 7000 से 8000 तक की आमदनी हो जाती है। वर्षा क्षत्रिय समुदाय से आती हैं। लाजपत नगर ग्राम पंचायत एक क्षत्रिय बहुल गाँव है जिसकी वजह से यहां ज़्यादातर सरपंच इसी समुदाय से बनते हैं। वर्षा तो संयोग से इस पंचायत में सरपंच बनीं। दरअसल उनके देवर प्रवीण सिंह (बदला हुआ नाम) अपनी पत्नी भानुमती गोहिल (बदला हुआ नाम) के लिए चुनाव की तैयारी कर रहे थे। मगर उनके तीन बच्चें होने की वजह से वह चुनाव में भाग नहीं ले सकीं। इसलिए उन्होंने गाँव के बड़े लोगों से बात करके अपनी भाभी वर्षा  का नाम सरपंच पद के लिए प्रस्तावित कर दिया। वर्षा निस्सन्तान हैं इसलिए वह सरपंच बन सकती थीं। रणनीतिक तौर से उनके देवर प्रवीण सिंह ने गाँव को एक बार फिर से समरस ग्राम पंचायत करने की गुहार भी लगाई। उन्हें चुनाव के नतीजों पर कम भरोसा था और वह सशंकित थे कि उनकी भाभी वर्षा चुनाव जीत पाएंगी और फिर समरस पंचायत को अलग से ग्रांट मिलती है।  वर्षा  या मधु समरस के तहत सरपंच तो बनीं हैं मगर सरपंची का काम अधिकतर उनके पति व देवर ही करते हैं। वह सरपंच बनी क्योंकि उनके परिवार वाले चाहते थे। वर्षा बताती हैं कि वह एक ऐसे समुदाय से आती हैं, जहां पर महिलाओं को अपने मन मुताबिक कहीं भी बाहर जाने की इजाज़त नहीं होती। इसलिए उनको अपने समुदाएँ की परम्परा का सम्मान रखते हुए घर के काम काज ही देखने पड़ते हैं । घर से बाहर के कामकाज और पंचायत के कामकाज उनके घर के पुरूष ही कर लेते हैं । ऐसे में यह सवाल उठना बेहद लाजमी हो जाता हैं कि महिलाओं को पंचायत में लाया तो जा रहा है, किन्तु क्या उनको भागीदारी करने का सही मौका मिल पा रहा है ? दूसरी ओर गीता जैसी बहुत ही कम महिलाएं होंगी जोकि गाँव के प्रभुत्वशाली लोगों के खिलाफ जाने का हौसला करती होंगी और यदि किसी महिला ने ऐसा प्रयत्न करेगी भी तो उसको हार का सामना करना पड़ेगा।



(सुनीति शर्मा)

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