विशेष : भारतीय रसोई एवं भोजन पर मंडरा रहे खतरे - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शुक्रवार, 21 जून 2019

विशेष : भारतीय रसोई एवं भोजन पर मंडरा रहे खतरे

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भारत की संस्कृति में घर के चूल्हें पर बनने वाले भोजन का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। न केवल स्वास्थ्य बल्कि संस्कारों पर इसका व्यापक असर देखने को मिलता रहा है। भारतीय भोजन की प्रतिष्ठा देश ही नहीं दुनिया में अव्वल हैं। आधुनिक संस्कृति, सभ्यता एवं शिष्टता के साथ भोजन में हो रहे बदलाव की चर्चा करे तो आश्चर्य होगा यह जानकर कि आज किस कद्र भोजन के प्रति हम उदासीन एवं लापरवाह हो रहे हैं। हमारी खानपान की आदतों में जबर्दस्त बदलाव आ रहा है। तथाकथित आधुनिक परिवारों में पूरे दिन घर में चूल्हा न जलना अब अपवाद नहीं रह गया है। लोग रेस्टोरेंट में बना खाना ज्यादा खाने लगे हैं। वे या तो रेस्तरां में जाकर खाते हैं या घर बैठे फूड-ऐप्स के जरिए खाना मंगवा लेते हैं। लेकिन भारतीय रसोई एवं भोजन स्वयं में जो एक औषधशाला रही है, आज उस पर मंडरा रहे खतरों का हमारे सम्पूर्ण जीवन पर घातक असर हो रहा है। आधुनिक बीमारियों, दुःख एवं तनाव का बड़ा कारण बाहर जाकर खाना या बाहर का खाना घर मंगा कर खाना है। कहावत है ‘‘जैसा खाओगे अन्न, वैसा बनेगा मन।’’ भोजन तीन प्रकार का होता है- सात्विक, तामसिक और राजसिक। सात्विक भोजन जहां मन को शुद्ध करता है, वहां तामसिक और राजसिक भोजन मन में एक प्रकार की उत्तेजना पैदा करते हैं, जिससे शरीर की ऊर्जा का अपव्यय होता है। इसलिए आहार-शास्त्र में सात्विक भोजन की सिफारिश की गई है और तामसिक तथा राजसिक भोजन से बचने का आग्रह किया गया है। बाहर का खाना तो तामसिक भोजन ही है और इसे व्यावसायिक हितों के तहत षडयंत्रपूर्वक देश में प्रचलित किया जाता रहा है। होटल और क्लबों में देर रात होने वाली पार्टियां, शादी-विवाह पर विविध गरिष्ठ व्यंजनों के साथ भोज का आयोजन, शान-शौकत, झूठी वाहवाही पाने की प्रतिस्पर्धा एवं बाहर से मंगाया भोजन करने के प्रचलन ने सत्संस्कारों एवं स्वास्थ्य की बुनियादें हिला दी हैं।

नेशनल रेस्टोरेंट असोसिएशन ऑफ इंडिया (एनआरएआई) के एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में लोग महीने में औसतन 6.6 बार बाहर खाने जाते हैं या बाहर का खाना घर मंगवाते हैं। हालांकि कई एशियाई देशों की तुलना में यह अब भी काफी कम है। पड़ोसी देश सिंगापुर में तो यह औसत 30 पर पहुंचा हुआ है। कुछ एशियाई शहरों की बात करें तो बैंकॉक में यह 45 और शांघाई में 60 है, यानी किचन पर ताला! जाहिर है, बाहर का खाना खाने का ट्रेंड भारत में नया है लेकिन इसके बढ़ने की रफ्तार काफी तेज है। जिसके हमारे शरीर पर होने वाले घातक परिणाम भी कम नहीं हैं। यह और भी नुकसानदायक इसलिए है कि बाहर के खाने में स्वाद भले ज्यादा हो, लेकिन प्रयुक्त होने वाली खाद्य सामग्री एवं मसाले की शुद्धता की कोई गारंटी नहीं होती। इस बाहरी भोजन का ज्यादा इस्तेमाल हमारे दिमाग की क्षमता को कम करता है और अनेक बीमारियों को आमंत्रित करता है। हाल में चूहों पर किए गए रिसर्च से पता चला कि लगातार एक सप्ताह तक फास्ट फूड खाने से उनकी दिमागी क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। बाहर के खाने पर एक भारतीय परिवार महीने में औसतन 2500 रुपये खर्च करता है। भारतीयों की बदलती रुचि के कारण देश में फूड इंडस्ट्री का आकार भी लगातार बढ़ रहा है। मुंबई में यह उद्योग सबसे ज्यादा व्यवस्थित है, जहां इसका कारोबार 41 हजार करोड़ रुपये का आंकड़ा छू रहा है। दिल्ली में यह 31 हजार करोड़ तो बंगलुरू में 20 हजार करोड़ पर है। लोगों के सामने आज खाने के असंख्य विकल्प मौजूद हैं। हमारे देश में शुद्ध एवं सात्विक आहार की समृद्ध परम्परा एवं प्रचलन रहा है। लेकिन बाजारवाद एवं विदेशी कम्पनियों ने जंकफूड एवं तरह-तरह के चाइनीज, इटालियन, मुगलई व्यंजनों को महिमामंडित करके जनजीवन में प्रतिष्ठापित किया गया है। जबकि हमारे यहां तो घर के चूल्हें पर बनने वाले भोजन तरह-तरह के तनाव, विकारों एवं बीमारियों को दूर करने में सक्षम रहे हैं। कहा गया है कि जितने आदमी भूख से मरते हैं, उससे अधिक ज्यादा खाने, बाहर का खाना खाने एवं विकृत खानपान से मरते हैं। आहार का संतुलित, शुद्ध एवं सात्विक एवं संयमित होना जरूरी है। 

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वडा पाव, समोशा, पिज्जा, बर्गर, रोल, चाऊमिन, चिली, फैंच फ्राइ आदि बाहर से मंगाये भोजन ने लोगों के शुद्ध एवं स्वास्थ्यवर्द्धक खानपान पर कब्जा कर लिया है। आज लोग पौष्टिक आहार को कम फास्ट फूड, जंक फूड या बाहर से मंगाये खाने को ज्यादा तवज्जों देने लगे हैं। लेकिन इस बाहर से मंगाये भोजन एवं जंक फूड से हमारी जिंदगी को कितना नुकसान पहुंच रहा है आपको अंदाजा नहीं है। खानपान की रुचियों में यह बदलाव तथाकथित आधुनिक जीवनशैली और उससे जुड़े सामाजिक-आर्थिक कारणों से आया है। अब महिलाएं भी पुरुषों की तरह बाहरी काम-धंधों में जुट गई हैं तो पति-पत्नी दोनों के पास घर में खाना बनाने का वक्त नहीं रहता। ऐसे में बाहर के खाने पर निर्भरता स्वाभाविक है। उनकी क्रय-शक्ति भी बढ़ी है इसलिए वे खाने पर ज्यादा खर्च करने लगे हैं। सचाई यह है कि भोजन को लेकर अब मान्यता बदल रही है। नियमित भोजन लोग शरीर की जरूरतें पूरी करने के लिए करते आए हैं। लेकिन अभी स्वाद प्राथमिकता पर आ गया है। इस स्वाद के नाम पर वे जो खा रहे हैं, वह उनके लिये एक खतरे की घंटी बनता जा रहा है।  दुनिया भर में सबसे ज्यादा लोग जीवन की विवशता के चलते बाहर के खाने की विकृति की वजह से बीमार हो रहे हैं। खानपान की इस विकृति का नाम है जंकफूड एवं बाहर का होटलों, रेस्टोरंेटों, ढाबों में बना भोजन और इससे पैदा हुई महामारियां। इनमें सबसे खतरनाक मोटापा है। स्थिति तब और भी ज्यादा गंभीर हो जाती है, जब हमें पता चलता है कि इनमें चैथाई तो बच्चे हैं। दिल्ली के स्कूली बच्चों के भोजन में सतर प्रतिशत जंक फूड है। और इसी जंक फूड से भारतीय महिलाएं मोटापा एवं अन्य घातक बीमारियों की शिकार हो रही है। 

बाहर से मंगाया भोजन एवं जंक फूड का सेवन इतना नुकसानदेह है कि निरंतर इसके सेवन से शरीर शिथिल होता है, खुद को थका हुआ महसूस करते हैं। आवश्यक पोषक तत्व जैसे प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट की कमी की वजह से यह भोजन ऊर्जा के स्तर को कम कर देता है। इनका लगातार सेवन टीनेजर्स में डिप्रेशन का कारण बनता है। बढती उम्र में बच्चों में कई तरह के बायोलॉजिकल बदलाव आने लगते हैं। जंक फूड जैसे चाऊमिन, पिज्जां, बर्गर, रोल खाना बढ़ते बच्चों के लिए एक समस्या बन रहा है और वे डिप्रेशन के शिकार हो रहे हैं। मैदे और तेल से बने ये जंक फूड एवं भोज्य पदार्थ पाचन क्रिया को भी प्रभावित करते हैं। इससे कब्ज की समस्या उत्पन्न होती है। इन खानों में फाइबर्स की कमी होने की वजह से भी ये खाद्य पदार्थ पचने में दिक्कत करते हैं। ज्यादा से ज्यादा फास्ट फूड एवं बाहरी भोजन का सेवन करने वाले लोगों में 80 फीसदी दिल की बीमारी का खतरा बढ़ जाता है। इस तरह के आहार में ज्यादा फैट होता है जो कोलेस्ट्रॉल के उच्च स्तर में भी योगदान देता है। वसा से भरपूर खाद्य पदार्थ हृदय, रक्त वाहिकाओं, जिगर जैसे कई बीमारियों का कारण हैं।  आज हम भोगवादी सभ्यता में जी रहे हैं। हमारा तन नाना प्रकार की सुविधाएं चाहता है। धन चाहता है, वैभव की आकांक्षा करता है और क्षणिक सुख के पीछे दौड़ता है। इसी तरह मन भी बेकाबू होकर छलांग लगाता है, भांति-भांति की चीजों की ओर ललचाता है। जहां तक बुद्धि का संबंध है, उसका दायरा बहुत सिमट गया है, सिकुड़ गया है। वह असार को देखती है और सार को गौण मान लेती है। निरोगी जीवन के लिए आवश्यक है कि हमारी इन्द्रियां हमारे काबू में रहें, मन स्थिर हो और बुद्धि निर्मल हो। तभी हमारी सारी बीमारियां दूर हो सकती हैं और हम स्वस्थ जीवन व्यतीत कर सकते हैं। इसके लिये जरूरत भारतीय रसोई एवं भोजन पर मंडरा रहे खतरे से सावधान होने की है।




 (ललित गर्ग)
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