आलेख : अपने पैरों पर खड़ी कमलनाथ सरकार - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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बुधवार, 13 नवंबर 2019

आलेख : अपने पैरों पर खड़ी कमलनाथ सरकार

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मध्यप्रदेश की कांग्रेस सरकार को झाबुआ विधानसभा उपचुनाव में मिली जीत और फिर पवई से भाजपा विधयक के खिलाफ अदालत के फैसले से बहुत राहत मिला है. इस जीत से पिछले करीब दस महीनों से लड़खड़ाकर चल रही कमलनाथ की सरकार को बड़ा बल मिला है. अभी तक अपने बहुमत के आंकड़े से दो अंक दूर चल रही सरकार अब इससे सिर्फ एक सीट पीछे है. झाबुआ उपचुनाव को कमलनाथ सरकार की स्थिरता के लिये बहुत अहम माना जा रहा था. इस नतीजे ने पिछले पन्द्रह सालों से सत्ता में रही भाजपा के प्रादेशिक नेतृत्व की खामियों, गुटबाजी और नाकारेपन को भी उजागर कर दिया है. पूरी ताकत झोंक देने के बावजूद करीब 25 सालों से अपने कब्जे वाली झाबुआ सीट को भाजपा भारी अंतर से हारी है. झाबुआ विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस के कांतिलाल भूरिया ने भाजपा उम्मीदवार को 27000 से अधिक वोटों से हराया है. सदन में स्पष्ट बहुमत न होने के कारण कमलनाथ की सरकार अपनी स्थिरता को लेकर लगातार सवालों के घेरे में रही है. इस दौरान उसे समर्थन देने वाले विधायकों के दबावों, भाजपा नेताओं की “सरकार गिरा देने” की धमकियों और आपसी कलह से जूझना पड़ा है. लोकसभा चुनावों में सफाये के बाद तो यह माना जाने लगा था कि इस सरकार को कभी भी अल्पमत का सामना करना पड़ सकता है. लेकिन इस जीत के बाद पहली बार मध्यप्रदेश की कांग्रेस की सरकार में आत्मविश्वास देखने को मिला है.जीत के बाद मुख्यमंत्री कमलनाथ ने बयान दिया है कि “भाजपा में दम है तो वह सरकार गिराकर दिखाये.”

कमलनाथ की सरकार चुनौतियों का अम्बार 
सीटों का अंतर बहुत कम होने और बहुमत के लिये दूसरों पर निर्भरता कमलनाथ सरकार की सबसे बड़ी चुनौती रही हैं. इसी वजह से भाजपा के नेता इसे “जुगाड़” की सरकार और मुख्यमंत्री कमलनाथ को ‘बेकाबू जहाज’ का कप्तान कहकर संबोधित करते रहे हैं. दूसरी बड़ी चुनौती कांग्रेस सरकार का कामचलाऊ बहुमत में होना है,  दरअसल 230 सदस्यों वाली विधानसभा में इस बार के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 114 सीटें मिली थीं जोकि बहुमत से दो कम हैं. दूसरी तरफ भाजपा को 109 सीटें मिली हैं. इसी वजह से सरकार बनाने के लिये उसे दूसरों पर निर्भर होना पड़ा था. मध्यप्रदेश में कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी के दो, समाजवादी पार्टी के एक और चार निर्दलियों की मदद से सरकार चला रही है. 

मध्यप्रदेश में कांग्रेस नेताओं के बीच गुटबाजी एक पुरानी समस्या रही है जो सत्ता हासिल करने के बाद भी बनी हुई है. प्रदेश कांग्रस के बड़े नेताओं की गुटबाजी और सरकार के मंत्रियों के बीच खींचतान है जो इस दौरान सूबे की सियासत और सरकार के कामकाज पर हावी रही है. तीसरी बड़ी चुनौती प्रदेश की नौकरशाही पर पकड़ की रही है. इसके बारे में खुद मुख्यमंत्री ने कहा था कि प्रदेश में कई अफसर/ अधिकारी पिछले 15 सालों से एक ही जगह जमे थे और भाजपा का बिल्ला लेकर काम कर रहे थे. इसके लिये बड़े पैमाने पर नौकरशाही में तबादले किये गये जिसकी वजह से सरकार पर “तबादला उद्योग” चलाने के आरोप भी लगे. पिछले दस महीनों में भाजपा जिन मुद्दों पर कांग्रेस की सरकार को घेरने की कोशिश में रही है उसमें बिजली कटौती, सड़कों की खस्ता हालत और अधिकारियों के बार-बार ट्रांसफर-पोस्टिंग जैसे मुद्दे शामिल रहे हैं.  मध्यप्रदेश में कमलनाथ सरकार की एक और बड़ी चुनौती सूबे का खाली खजाना रहा है. कांग्रेस सरकार को विरासत में खाली खजाना और भारी-भरकम कर्ज का बोझ मिला हो जिसकी वजह से प्रदेश की सरकार गंभीर कर्ज के संकट से जूझ रही है और उसे बार-बार कर्ज लेना पड़ रहा है.

झाबुआ की राहत 
मध्यप्रदेश में जहां बहुमत का आंकड़ा इतना करीबी है वहां हर एक सीट बहुत कीमती हो जाती है. ऐसी स्थिति में भाजपा के सूबाई नेता झाबुआ की जीत से कमलनाथ सरकार की मुश्किलें बढ़ाने की उम्मीद  कर रहे थे लेकिन अब खुद उनके ही खेमे से एक विधायक कम हो गया है और कमलनाथ सरकार की स्थिति थोड़ी मजबूत हो गयी है. इस संबंध में कमलनाथ सरकार कैबिनेट मंत्री लखन घनघोरिया का कहना है कि “भाजपा जो चुनाव परिणाम के पहले यह बात कह रही थी कि हार के बाद कांग्रेस सरकार गिर जाएगी. उपचुनाव में मिली जीत उनके लिए करारा जवाब है.” जीत के बाद मंत्री पीसी शर्मा ने कहा कि “अब कांग्रेस के पास 116 विधायकों का स्पष्ट बहुमत है, बसपा-सपा और निर्दलीय विधायकों का समर्थन भी सरकार को हासिल रहेगा, सरकार पूरे पांच साल चलेगी.”

भाजपा ने इस उपचुनाव को कमलनाथ सरकार पर जनमत संग्रह के तौर पर लड़ा और कमलनाथ सरकार के दस माह के कामकाज के मुकाबले शिवराज सरकार के 13 सालों के कामकाज को पेश किया गया. यही नहीं इस चुनाव को कमलनाथ बनाम शिवराज सिंह चौहान का रूप देने की भी कोशिश की गयी. दूसरी तरफ कांग्रेस ने भी इस चुनाव को अपने किये गये कामों जैसे किसानों की कर्जमाफी, आदिवासियों के मुद्दों पर कमलनाथ सरकार की गयी घोषणाओं को सामने रखा. कांतिलाल भूरिया जैसे बड़े और पुराने नेता के उम्मीदवार होने के बावजूद इस उपचुनाव में मुख्यमंत्री कमलनाथ ने खुद को ही सामने रखा. झाबुआ में चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने कहा भी कि “झाबुआ में नाम के वास्ते तो भूरिया चुनाव मैदान में हैं और काम के वास्ते कमलनाथ चुनाव लड़ रहे हैं.” दिसम्बर 2018 में सरकार बनने के बाद से मध्यप्रदेश में कांग्रेस की यह पहली बड़ी सफलता है. इससे पहले उसे 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान राज्य के कुल 29 सीटों में से मात्र 1 सीट ही मिली थी और राज्य में उसके दो सबसे बड़े नेताओं दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य राव सिंधिया को भी हार का सामना करना पड़ा था. इस जीत से कमलनाथ सरकार के अस्थिर होने की चर्चाओं पर विराम लगी ही है साथ ही इससे नौकरशाही और विभिन्न खेमों में विभाजित विधायकों और मंत्रियों में भी सन्देश गया होगा. लेकिन इस जीत का सबसे बड़ा सन्देश यह है कि कांग्रेस का परंपरागत आदिवासी वोट उस की तरफ लौट रहा है.

बैकफुट पर भाजपा 
हालांकि विधानसभा चुनाव में हार के बाद से मध्यप्रदेश में भाजपा बैचेनी की स्थिति में थी परन्तु झाबुआ उपचुनाव में हार के बाद से वो बैकफुट पर आ गयी है. इस हार से भाजपा प्रदेश नेतृत्व क्षमताओं पर भी खड़े हो रहे हैं. भाजपा ने यह उपचुनाव बहुत अनमने तरीके से लड़ा, कांतिलाल भूरिया जैसे नेता के सामने कमजोर उम्मीदवार को उतारा गया, स्थानीय स्तर पर कार्यकर्ता भी उदासीन दिखे, झाबुआ की हार ने प्रदेश भाजपा में चल रहे अंदरूनी कलह को भी सामने ला दिया है, विधायक केदारनाथ शुक्ला ने  इस हार के लिए खुले तौर पर पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष राकेश सिंह को निशाना बनाया. पार्टी के बड़े नेताओं में भी सामंजस्य की जगह टकराव दिखाई पड़ रहा है.सत्ता गवांने के बाद से प्रदेश में भाजपा दिशाहीन से है,कमजोर नेतृत्व और नीति के अभाव का असर साफ दिखाई पड़ रहा है. आश्चर्यजनक रूप से भाजपा की यह हालत तब है जब कांग्रेस एक अल्पमत की सरकार चलाते हुये अपने ही अंतर्विरोधों से जूझ रही है और विपक्ष की भूमिका में भाजपा से ज्यादा कांग्रेस के ही नेता खड़े दिखाई पड़ रहे हैं. मध्यप्रदेश में हमेशा से ही दोनों ही पार्टियों में प्रादेशिक क्षत्रपों का बोलबाला रहा है लेकिन आज सूबे में भाजपा राष्ट्रीय नेतृत्व पर निर्भर होती जा रही है. 

कांग्रेस के लिये भी कायम हैं चुनौतियां 
झाबुआ की जीत के बाद कमलनाथ सरकार थोड़ी मजबूत जरूर हुई हैं लेकिन उसके लिये अभी की चुनौतियाँ कायम हैं. प्रदेश में कांग्रेस अभी भी बहुमत से एक सीट की दूरी पर है और यह नहीं भूलना चाहेगी कि भाजपा के पास 108 सीटें हैं ऐसे में उसे अपने और समर्थन कर रहे विधायकों को भी साधते रहना पड़ेगा. इसी प्रकार से दिग्विजय सिंह और उमंग सिंघार का मामला फिलहाल के लिए भले ही दब गया हो परंतु ज्योतिरादित्य सिंधिया के तेवर अभी भी बने हुए हैं. इधर कांतिलाल भूरिया की जीत के बाद से कांग्रेस अध्यक्ष पद को लेकर रस्साकशी के एक बार और उभरने की सम्भावना है. गौरतलब है कि मध्य प्रदेश में सरकार बनने के बाद प्रदेश संगठन की कमान अभी भी मुख्यमंत्री कमलनाथ के हाथों में है. जब भी नये प्रदेश अध्यक्ष की चर्चा शुरू होती है पार्टी में गुटों की कडुवाहट बहुत ही तीखे तौर पर सामने आ जाती है.

झाबुआ में जीत हासिल करने के बाद इस बार पीसीसी चीफ के लिये कांतिलाल भूरिया का नाम सामने आ रहा है. इसे कमलनाथ सरकार के दो मंत्रियों सज्जन सिंह वर्मा और पीसी शर्मा द्वारा आगे बढ़ाया गया है. जिसके जवाब में कमलनाथ सरकार में सिंधिया समर्थक मंत्री इमरती देवी ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को प्रदेश अध्यक्ष बनाने की मांग कर दी है. गौरतलब है कि प्रदेश अध्यक्ष की दौड़ में सिंधिया भी शामिल रहे हैं. ऐसे में सिंधिया विरोधी खेमा अगर कांतिलाल भूरिया के नाम पर आदिवासी कार्ड खेलता है तो इसका असर सिंधिया की दावेदारी पर पड़ना तय है. उनके विरोधी खेमे को शायद एक ऐसे चेहरे की तलाश भी थी जिसे सिंधिया के बरअक्स प्रदेश अध्यक्ष के दावेदार के तौर पर पेश किया जा सके. भूरिया इससे पहले भी प्रदेश अध्यक्ष के पद पर रह चुके हैं. बहरहाल इस एक उपचुनाव ने प्रदेश के पूरे राजनीतिक परिदृश्य को बदल दिया है. झाबुआ जीतने के बाद अब कमलनाथ की सरकार पर से अस्थिरता का खतरा काफी हद टल गया है, उस पर बहुजन समाज पार्टी व समाजवादी पार्टी के समर्थन का दबाव भी कम हुआ है साथ ही प्रशासन भी अपने पेशोपेश से बाहर निकला है. इधर पवई से भाजपा विधयक को अदालत द्वारा दो साल की सजा सजा होने के बाद उनकी सदस्यता समाप्त होने से अब कमलनाथ सरकार पूर्ण बहुमत में आ गयी है. इस जीत से जल्दी ही अपना एक साल पूरा करने जा रही कमलनाथ सरकार पहली बार अपने पैरों पर खड़ी नजर आ रही है. मुख्यमंत्री कमलनाथ की स्थिति भी पार्टी के अंदर भी मजबूत हुई है. 



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जावेद अनीस 
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