बिहार : प्रसिद्ध गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह की त्रासद हालत में मौत - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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गुरुवार, 14 नवंबर 2019

बिहार : प्रसिद्ध गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह की त्रासद हालत में मौत

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बिहार के रहने वाले प्रसिद्ध गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह की जिस तरह की त्रासद स्थिति में मौत हुई है वो हमारी सरकारों की असंवेदनशीलता और बेमिसाल प्रतिभाओं के प्रति उपेक्षा के भाव को साफ दर्शाता है।  मैंने वशिष्ठ नारायण के बारे में इंटर में पढ़ने के दौरान जाना था। यह वो समय था जब वे मानसिक बीमारी के दौर से गुजर रहे थे।मैंने उनकी दुर्दशा से व्यथित होकर अपनी पहली कहानी लिखी थी प्रतिभा। यह कहानी मारवाड़ी कालेज की पत्रिका में प्रकाशित भी हुई थी।  वशिष्ठ मौलिक प्रतिभा वाले गणितज्ञ थे उन्होंने आंइस्टीन के सापेक्ष सिद्धांत को भी चुनौती दी थी। उनके बारे में मशहूर है कि नासा में अपोलो की लांचिंग से पहले जब बहुत सारे कंप्यूटर कुछ समय के लिए बंद हो गए तो कंप्यूटर ठीक होने पर उनका और कंप्यूटर्स का कैलकुलेशन एक ही था।

पटना साइंस कॉलेज में पढ़े थे
पटना साइंस कॉलेज में पढ़ाई के दौरान वे कई बार ग़लत पढ़ाने पर गणित के अध्यापक को टोक देते थे। कॉलेज के प्रिंसिपल को जब यह बात पता चली तो उनकी अलग से परीक्षा ली गई थी जिसमें उन्होंने सारे अकादमिक रिकार्ड तोड़ दिए। इस दौर में  कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन कैली ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और 1965 में वशिष्ठ  अमरीका चले गए।

कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी से की पीएचडी
 1969 में वशिष्ठ ने कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी से पीएचडी की। इसके बाद वॉशिंगटन विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर बन गए. नासा में भी काम किया लेकिन मन नहीं लगा और 1971 में भारत लौट आए।  पहले आईआईटी कानपुर, फिर आईआईटी बंबई, और फिर आईएसआई कोलकाता में नौकरी की।

शादी और असामान्य व्यवहार का दौर 
1973 में उनकी शादी वंदना रानी सिंह से हो गई। घरवाले बताते हैं कि यही वह वक्त था जब वशिष्ठ जी के असामान्य व्यवहार के बारे में लोगों को पता चला। वे छोटी-छोटी बातों पर बहुत ग़ुस्सा हो जाते थे , पूरा घर सर पर उठा लेना, कमरा बंद करके दिन-दिन भर पढ़ते रहना, रात भर जागना उनके व्यवहार में शामिल था।  इस असामान्य व्यवहार से वंदना भी जल्द परेशान हो गईं और तलाक़ ले लिया। तक़रीबन यही वक्त था जब वह आईएसआई कोलकाता में अपने सहयोगियों के बर्ताव से भी परेशान थे. भाई अयोध्या सिंह कहते हैं, "भइया (वशिष्ठ जी) बताते थे कि कई प्रोफ़ेसर्स ने उनके शोध को अपने नाम से छपवा लिया, और यह बात उनको बहुत परेशान करती थी. " साल 1974 में उन्हें पहला दौरा पड़ा, जिसके बाद शुरू हुआ उनका इलाज। जब बात नहीं बनी तो 1976 में उन्हें रांची में भर्ती कराया गया। घरवालों के मुताबिक़ इलाज अगर ठीक से चलता तो उनके ठीक होने की संभावना थी. लेकिन परिवार ग़रीब था और सरकार की तरफ से मदद कम। इस वजह से 1987 में वशिष्ठ नारायण अपने गांव लौट गए। लेकिन 89 में अचानक ग़ायब हो गए. साल 1993 में वह बेहद दयनीय हालत में डोरीगंज, सारण में पाए गए। इसके बाद से आज तक वो उपेक्षित और लाचारी भरी जिंदगी किसी तरह घसीट घसीट कर जीते रहे।

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