मानव अपने कर्मों के माध्यम से वर्तमान व भविष्य का निमार्ण कर सकता है ....... - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

मानव अपने कर्मों के माध्यम से वर्तमान व भविष्य का निमार्ण कर सकता है .......

यह संसार असंख्य जीव जन्तुओं प्राणिओं से भरा है, प्रकृति की इस तरह की व्यवस्था चली आ रही है कि जिस योनी में जो जींव पैदा होता है उसी में वह मग्न प्रषन्न रहता है, प्रकृति के नियम के अनुसार जल, थल, नभ में जितने भी जींव प्राणी है उन सभी में मानव योगी सर्वोपति बताई गई हैं और बास्तविक है भी , यदि मानव काया न होती तो हम संसार के इतिहास का पता नही लगा सकते थे न ही इतिहास रच सकते थें अब इस प्रकार की व्यवस्था हो चुकी है । जब तक सृष्टि रहेगी , इस पृथ्वी के निमार्ण से विनाष तक का इतिहास होगा । यदि आज का मानव चाहे तो अपने कर्मो को माध्यक से अपना बर्तमान व भविष्य का निमार्ण स्वंय कर सकता है । जिस व्यक्ति में अपने कर्मो की समीक्षा करने की ष्षक्ति हो जाती है ऐसे व्यक्ति ही मानव से महान व महापुरूष बन जाते है । आज का मानव या व्यक्ति बुध्दिमान, विवेकषील, ज्ञानी, वैज्ञानिक, अध्यात्मिक, धार्मिक क्षेत्रों में बहुत कुछ आगे है । लेकिन प्रकृति के विधान के बिरूध्द कार्य करने पर अनेक परिणाम भी मानव जीवन के वितरीत है । यदि मानव चाहे तो अपनी भारतीय संस्कृति व संस्कारों को आज भी बचा सकता है लेकिन उसे बहुत कुछ अपने इतिहास से सीखना होगा ।

मानव काया प्राप्त करने के साथ ही हम संसारिक जीवन में प्रवेष माॅ के गर्भ से ष्षुरू करते है, हमारा इतिहास, कहावत, पराम्परा, कथाये इस बात को ्रपमाणित करती है कि जब भी पुरूष -महिला का मिलन होता है, इस मिलन के दौरान सृष्टि के बिधान के अनुसार ही माॅ गर्भ धारण करती है, जब माॅ गर्भ धारण करती है तो माॅ को इस बात का पता हो जाता है कि अब वह माॅ बनने बाली है, एक माॅ को अपने जीवन की सर्वाधिक खुषी का अनुभव इसी समय से होता है उसके मन की ष्षाॅति का क्रम यही से ष्षुरू होता है, माॅ के गर्व धारण करने के साथ ही उसके खान पान रहन सहन में बहुत कुछ परिवर्तन होने लगता है, उसका मन तरह तरह से बिचलित होता है, वह संसार की बर्तमान एवं भौतिक विचार धाराओं में बहने लगती है, जैसे ही गर्भ का सातवाॅ महिना ष्षुरू होता है, माॅ बनने बाली बहू बेटी की गोदी की रस्म भराई होती है , माॅ बनने बाली महिलाओं को संस्कृति एंव संस्कारों धार्मिक ग्रन्थों, कथाओं को बाचने एवं सुनने केलिए प्रेरित किया जाता है ।  यौन क्रियाओं से दूर रहने केलिए परहेज किया जाता है । ऐसे समय में गर्भ धारण करने बाली महिलायें अपने पति के मन को संतान के प्रति आकर्षित करते हुये उन्हे ब्रम्हचर्य जीवन जीने के साथ मन को प्रषन्न करने केलिए संयम से सम्भाल कर रखती है, उनके मन व भावनाओं को ध्यान रखते हुये गीत संगीत, मधुरवाणी पे्रम व्यवहार व स्नेह के साथ संतान के संसारिक जीवन में अवतरित होने की प्रतिक्षा कराती व करती है , प्रत्येक माॅ-पिता को अपने जीवन में प्रकृति के अनुसार समय ग्रह व तिथि के अनुसार संतान पैदा करना चाहिये । संतान तीन तरह से पैदा होती है, जो माता-पिता प्रकृति को साक्षी मान कर ईष्वर का ध्यान कर बंष को संचालित करने केलिए तप त्याग संयम व धर्म के अनुसार संतान उत्पत्ति की इच्छा से ग्रह तिथि समय के साथ संतान पैदा करने की बिधि अपनाते है ऐसी संतान परिवार, समाज व राष्ट्र व धर्म के प्रति लगनषील, चरित्रवान, आज्ञाकारी व आदर सत्कार से भरी होती है । जो संतान केवल पति-पत्नि के प्रेम प्रसंग व काम बासना की पूर्ति के दौरान पैदा होती है वह मंदबुध्दि, माता -पिता, समाज बिरोधी, अलगाववादी व धर्म बिरोधी होती है ऐसी सन्तान का  किसी पर बिष्वास नही होता है । तीसरी संतान वह होती है जिसकी माॅ या बाप के जीवन में छल कपट, व्देष भावना से जीवन ग्रस्त होता है, स्वयं के जीवन में सन्तुष्टि नही होती है तथा सामने बाले के प्रति सन्तुष्टि की भावना न होकर,  भय से ग्रस्त होकर, छल पूर्वक या धोका की भावना से काम बासनाओं की पूर्ति को  अन्जाम दिया जाता है , ऐसी संतान के माॅ या पिता में केवल कामबासना की पूर्ति का लक्ष्य होता है ऐसी संतान पैदा होने के बाद परिवार में गृह कलह, परिवार व समाज बिरोधी देष द्रोही, अपराध अन्याय अत्याचारी होती है , घर परिवार दोस्तों मित्रों के साथ धोकेवाज धर्म बिरोधी  नास्तिक होती है । ऐसी संतान स्वंय का जीवन तबाह होता है साथ ही दूसरों का जीवन नष्ट करता है । इसलिए जातिय या अन्य जातिय विवाह या जीवन साथी को चुनते समय कुल परिवार बंष , खानदान, संस्कृति एवं संस्कारों का ध्यान रखा जाना चाहिये साथ ही जीवन जीनेे केलिए एक दूसरे के प्रति विष्वास में कोई संदेह नही होना चािहये ।  मन की संतुष्टि या आत्म सम्मान की कमी, विचारों मे तालमेल न होने के साथ संदेह का जन्म होने के बाद मानव जीवन में टकराहट व खटास षुरू होती है जिसका अंत परिवार, समाजबिरोधी होकर कोर्ट कचहरी, तलाक या आत्म हत्या हत्या में बदल जाते है । मानव जीवन पषु जीवन से अधिक खतरनाक हो जाता हे ।

अब सवाल उठता है कि मन का सुख किस तरह से मिले इसके लिए मानव जीवन की संरचना पर विचार करना होगा, मानव जीवन हमें किस तरह से प्राप्त हुआ है इसके बारे में चिन्तन व मनन करने की अति आवष्यकता होगी  ।  संसार में जितने भी जींव जन्तु पषु पंक्षी, मानव है सभी में अपने जीवन जीने की कला है सभी में स्नेह व प्यार होता है । अक्रामण अक्रोष, क्रोध की भावना होती है , प्रत्येक जींव को मौत से भय रहता है । संृष्टि संरचना के साथ ही अपने अपने भोजन की व्यवस्था की गई हैं, प्रत्येक प्रभावषाली व बड़ा जीव छोटे जींवों को अपना भोजन बनाने की क्षमता रखता है । प्रत्येक जींव अपने मन व आत्मा को समझता है लेकिन वह लालच व अहंम में अपनी बुध्दि विवके व ज्ञान को खो बैठता है यही उसका पतन का कारण होता है ।  कामबासना एकान्त की जगह होती है इस पर नियंत्रण करना ही बुध्दिमानी होती है ।

मानव जीवन एक ऐसा जीवन है जिसमें मनुष्य पैदा होने के साथ ही सीखना प्रारम्भ करता है और अंतम समय तक कुछ न कुछ सीखने की लालसा रखता है , अब बात आती है कि जीवन का जो आनंद उठाना जानते है वह जिस जाति व धर्म में पैदा होते है उसकी संस्कृति व संस्कारों के अनुसार  मानव को बुरे कार्यो को रोकने एवं पापों से दूर रहने केलिए धर्म की स्थापना होती है इसलिए उसे धर्म के अनुसार चलना होता । प्रत्येक जाति का अपना अपना धर्म है लेकिन प्रत्येक धर्म का मालिक परमपिता एक है उसके आने जाने के रास्ता अनेक हो सकते हे लेकिन पहुॅचने की मंजिल एक ही होती है । जो व्यक्ति जाति व धर्म के बिरूध्द कार्य करता है उसका न तो परिवार व समाज में सम्मान होता है न ही मानव समाज स्वीकार कर पाता है । इसलिए प्रत्येक मानव का अपने जीवन जीने केलिए बहुत कुछ त्याग करना होता है तथा परिवार  समाज की जो परम्पराये होती है उनका निर्वाहन करना होगा  । जब व्यक्ति परिवार व समाज की परम्पराये का निर्वाहन करना जान लेता है तो मानव सेवा मानव कल्याण के साथ सत्य व असत्य की पहचान अपने आप कर लेता है । दूसरों के साथ ऐसा व्यवहार नही करना चाहिये जो स्वयं प्रसन्द न हो  ।  जो व्यक्ति इस प्रकार की भावना के साथ कार्य करते है वही मानव कहलाने की क्षमता रखते हे  ।  मानव का मानव से घृणा नही करना चाहये ्रपकृति ने जींव के कर्मो के अनुसार ही उसे दण्ड देने का बिधान निर्मित किया है । जो जींव प्रकृति के नियमों व बिधान के बिरूध्द कार्य करते है उन्हे तरह तरह से दुःख व कष्ट परेषानी होती है । सुख मानव के बिचारों पर निर्भर करता हैं , जो कार्य आपके मन व विचारों के अनुरूप होगें उनसे आप सुख का अनुभव करेगें जो आपके प्रतिकूल होगें उनके कारण आप दुःख का अनुभव करते हो । सुख व दुःख अपने कर्मो व बिचारेां पर निर्भर है इसलिए हम ऐसे ही कार्य करें जिससे हम स्वयं सुखी हो और दूसरो को सुख पहुॅचाने का लगातार प्रयास करें । पर उपकार करने से ही मन को ष्षाॅति मिलती है ।  आप इस बात का अनुभव करे कि जो भी हम कार्य करते है उनका लाभ हम स्वयं कितना उठा रहे हैं या हमारे परिवार के लाभ उठा रहे है , अच्छे कार्यो में सभी आपके साथ हेाते है , गलत व बूरे कार्यो से हम व्यक्ति आपसे मुॅह मोड़ लेगा । यदि जीवन का समझने का अर्थ है ।

प्रकृति ने मानव योनी दी, मानव काया दी तो इस मानव काया को प्राप्त करने केलिए हमें किस तरह से कार्य करना चाहये जो नही करते है उन्हे ष्षारीरिक, मानसिक, सामाजिक आर्थिक कष्ट मिलते है तथा तरह तरह से रोग व्याधिओं से गस्त होता है , इसके बाद परिवार, समाजविरोधी कार्य करने बाला, अपराध व अन्याय करने बाले व्यक्ति को मानव रक्षा केलिए बनाये गये कानून संविधान के तहत दण्ड व सजा दी जाती है । इसलिए मानव जीवन का जीने केलिए हमें सर्व प्रथम मानव होने का गर्व करते हुये मानव रूप में अवतरित परमपिता परमेष्वर के बनाये व बताये गये मार्ग को अपनाना चाहिये । भगवान देवताओं, अवतरित महापुरूषों के जीवन के आर्दर्षो के चरित्र को जीवन में प्रतिदिन अपनाने का प्रयास करना चाहिये ।  मनुष्य जब पैदा होता है तो उसकी न तो कोई जाति या धर्म होता है न गरीव व अमीर होता है उसे इन सभी बातों से अनुभव कराया जाता है ।  आप किसी  भी जाति व धर्म के व्यक्ति है या रहे लेकन सत्य का ध्यान रखे असत्य से दूर रहे । मानव सेवा करे, दुःखी पीडि़त परेषान असहायों रोगीओं की मदद करें गरीवों को भोजन व बस्त्रों का दान करें । भारतीय संस्कृति व संस्कार संसार के देषों से अलग है ।  भारतीय संस्कृति व संस्कारों के कारण ही  आज भारत देष आत्म निर्भर है , मर्यादाओं को ध्यान रखते हुये जीवन जीये । इस मन की सुख व ष्षाॅति केलिए हम अपना सुख चैन स्वंय नष्ट न करें न दूसरो का करें ।  कड़ी मेहनत व लगन से कार्य करने बाले मानव को अपने कार्य क्षेत्र में सफलता प्राप्त होती है ।  धन का संग्रह एक सीमा तक अपनेे जीवन काल की सुरक्षा केलिए ही किया जाना चाहिये इसके बाद उस धन को व्यापार, देष हित समाज हित दूसरो का पालन पोषण षिक्षा व संस्कारों पर खर्च करना चािहये ।  इस आलेख के माध्यम से यदि आपको हमोर बिचार अच्छे लगे तो जीवन में आज से ही परिवर्तन करने का प्रयास करें  ।  मानव अपनी ष्षक्ति के माध्यम से  भूतकाल बर्तमान व भविष्य की समस्त कार्यषैली का अनुभव कर सका है । ईष्वर से मिलने का रास्ता ही सत्य है । 

  



---संतोष गंगेले---
 फोन :09893196874

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