चुनाव 2014...और फिर शुरू हुआ ‘जमूरे’ का खेल ! - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

Breaking

प्रबिसि नगर कीजै सब काजा । हृदय राखि कौशलपुर राजा।। -- मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी ।। -- सब नर करहिं परस्पर प्रीति । चलहिं स्वधर्म निरत श्रुतिनीति ।। -- तेहि अवसर सुनि शिव धनु भंगा । आयउ भृगुकुल कमल पतंगा।। -- राजिव नयन धरैधनु सायक । भगत विपत्ति भंजनु सुखदायक।। -- अनुचित बहुत कहेउं अग्याता । छमहु क्षमा मंदिर दोउ भ्राता।। -- हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता। कहहि सुनहि बहुविधि सब संता। -- साधक नाम जपहिं लय लाएं। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएं।। -- अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के । कामद धन दारिद्र दवारिके।।


शुक्रवार, 14 मार्च 2014

चुनाव 2014...और फिर शुरू हुआ ‘जमूरे’ का खेल !

  • - अबकी बार चुनाव आयोग ने भी दरियादिली दिखाई है और खर्च सीमा बढा दी है. जीतने वाला दिल पर हाथ रख कर नहीं कह सकता है कि उसने चुनाव आयोग की निर्धारित खर्च सीमा का उल्लंघन नहीं किया है


वफा जिनसे की वो बेवफा हो गये...वो वादे ए मोहब्बत के क्या हो गये...। जमूरा आता है. तमाषा दिखाता है. कलाबाजी करता है. रस्सी पर चलाता है. वाहवाही लूटता है. कटोरा लेकर बच्चे को घुमाता है. पैसे बटोरता है और चला जाता है. हमारी हैरत कुछ देर का कौतूहल होती है. इनाम में तालियां बजाते हैं. मन किया तो बटुआ से निकाल कर दो चार पैसे न्योछावर किये और अपने काम धंधे में रम गये. कहीं कुछ नहीं बदलता. सब कुछ सामान्य रहता है. चुनावी वादे भी हमारी जिंदगी में जमूरे के खेल जैसा ही है. चुनाव के वक्त आते हैं और गूलड के फूल की तरह गायब हो जाते हैं. कुछ ऐसा ही नजारा कोसी प्रमंडल समेत सूबे के कई अन्य लोकसभा क्षेत्रों का भी है. अमूमन हरेक लोस व विस क्षेत्रों की गलियों व मोहल्लों में चर्चा आम हो चली है. सडक गली मैदान के चारों तरफ जमूरों का मजमा लगने लगा है. चुनावी मौसम है तालियों की गडगडाहट बटोरी जा रही है. वोट के लिए करतब दिखाये जा रहे हैं. रैलियों में लोगों को ढो ढोकर लाया जा रहा है. रैलियों में मुफत का खाना पीना, सब कुछ. पिछले चुनावी मौसम से बेहतर सुविधा बात...इस काम में कोई पीछे नहीं है. ईमानदारी का दम भरने वालों को भी वोटर्स को घूस देने से गुरेज नहीं. टीवी के परदे पर वादों की झडी लगायी जा रही है. किसी को हिसाब देने की जरूरत नहीं कि वोटर को  रहसपने दिखाने के नाम पर धन कहां से लाया जा रहा है और कितना धन लुटाया जा रहा है. अबकी बार चुनाव आयोग ने भी दरियादिली दिखाई है और खर्च सीमा बढा दी है. जीतने वाला दिल पर हाथ रख कर नहीं कह सकता है कि उसने चुनाव आयोग की निर्धारित खर्च सीमा का उल्लंघन नहीं किया है. जमूरों के बीच प्रतिद्वंदिता छिडी है. एक से बढ कर एक वायदे किये जा रहे हैं. स्वर्ग सजा देने का भरोसा भरने की कोषिष. लंबे चैडे इष्तिहार. खुद को महान और दूसरों को बेईमान साबित करने का प्रचार. वोट के बदले जीवन में सुविधाओं का अंबार लगा देने का दावा. जब तक हम अपना वोट नहीं डाल देते, ये नजरों से ओझल नहीं होंगे. वोट डालते ही फिर सन्नाटा. सब गायब हो जाते हैं. लोकतंत्र के बाजार में हर पांच साल पर ऐसी जमूरेबाजी सजती है. करतब चलता है. पांच साल पहले का दिन हमें याद नहीं रहता. हम वादे को नया मान कर यकीन कर लेते हैं. गलती से याद आ जाये कि फलां वादा तो पूरा हुआ ही नही ंतो वादा करने वाला मजबूरियां गिना देता है. कभी गंठबंधन की मजबूरी तो कभी नौकरषाही की अकर्मण्यता की दुहाई. गिडगिडाते हुए जमूरा बता जाता है कि इस बार बख्ष दो. फुल मेजोरिटी मसलन पूर्ण बहुमत दो. मजबूर नहीं रहूंगा तो सारे वादे पूरे कर दूंगा. हम जानते हैं कि फुल मेजोरिटी देना हमारे वष की बात नहीं. सो उसका बहाना तो बना ही रहेगा. वोट डालना हमारा धर्म है, धोखा खाने के बावजूद हम जमूरे की मजबूरी खत्म होने की दुआ भर कर सकते हैं.

दिलचस्प होगा लोस चुनाव: यह लोकसभा चुनाव काफी दिलचस्प होने वाला है. कांग्रेस की कमान राहुल गांधी संभाल रहे हैं तो भाजपा की नरेंद्र मोदी. इसके अलावा, बहुत कम समय में अरविंद केजरीवाल ने खुद को साबित किया है. उन्होंने एक ऐसा नया महल खडा किया है कि लोग आम आदमी पार्टी को एक विकल्प के तौर पर देखने लगे हैं लेकिन फिलहाल यह सिर्फ दिल्ली और कुछ बडे षहरों तक सीमित है. असली लडाई राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी के बीच है. राहुल युवा हैं जिनके पास बहुत तजुर्बा नहीं है. उन्हें गांधी परिवार का सदस्य होने का फायदा मिलता है. जबकि नमो तीन बार गुजरात के सीएम बन चुके हैं. 

राहुल का हाथ खाद्य सुरक्षा और लोकपाल जैसे विधेयक के साथ है जबकि मोदी की हर सभा में गुजरात में हुए या फिर हो रहे विकास की बातें ही रहती हैं. नमो की लोकप्रियता के पीछे जितनी भाजपा की कामयाबी है उससे ज्यादा इसके लिए कांग्रेस की विफलता जिम्मेदार है. वह एक अच्छा षासन देने में नाकाम साबित हुई है. हालांकि चुनावी मौसम में एक बार फिर राहुल गांधी समेत कई अन्य यूपीए घटक दलों के नेताओं को आम जनता की परेषानी चुभने लगी हैं लेकिन ऐसा लगता है कि चुनाव से पहले ही कांग्रेस हार मान चुकी है. भाजपा के साथ मजबूत पक्ष यह है कि करीब 12 वर्शों से एनडीए से दूरी बना कर रहने वाले रामविलास पासवान एक बार फिर गठबंधन में षामिल हो गये हैं. 

वर्श 02 में गुजरात दंगों के बाद एनडीए के मंत्री पद से इस्तीफा देकर मिसाल कायम करने वाले रामविलास पासवान को नरेंद्र मोदी सेक्यूलर लगने लगे हैं. ऐसी स्थिति सिर्फ रामविलास पासवान के साथ नहीं है बल्कि कई अन्य क्षेत्रीय दलों ने भी नमो की लोकप्रियता को भुनाने का प्रयास किया है. पिछली सरकार में यूपीए को समर्थन देने वाले करूणानिधि को भी मोदी अच्छे लगने लगे हैं. अब ऐसा लग रहा है कि मौका मिलते ही द्रमुक एनडीए के साथ जा सकता है. उधर, तीसरे मोर्चे में हर कोई खुद को प्रधानमंत्री के तौर पर पेष करने में लगा है. इस वजह से इसकी भी नैया पार लगने वाली नहीं दिखती. मायावती और मुलायम सिंह यादव का रंग चुनाव के बाद सही तौर पर सामने आता है. 

नीतीष कुमार थाली पीटकर कह रहे हैं कि जो बिहार को विषेश राज्य का दर्जा देगा उसी को वे समर्थन देंगे. लेकिन अब नीतीष के पास कोई रास्ता नहीं है वे एनडीए से अलग हो चुके हैं और यूपीए से कोई गठजोड नहीं बन सका है. सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि तीसरे मोर्चे का कोई भविश्य नहीं है. इन सबके बीच सूबे में लालू प्रसाद यादव भी लालटेन लेकर प्रचार करने निकल पडे हैं. उन्हें लगता है कि पिछले चुनाव में जो गलती की गई थी अबकी बार उस गलती को दोहरायी नहीं गई है. भारत में राजनीति में सब कुछ संभव है. छोटे और क्षेत्रीय दल भी बडी पार्टियों को चुनौती देते हैं जो लोकतंत्र के लिए अच्छा है लेकिन स्वार्थ, जाति और धर्म के नाम पर जिस तरह राजनीति हो रही है वह हमारे लोकतंत्र के लिए चिंता का विशय है. 

कांग्रेस की राह पर भाजपा: कांग्रेस के देष पर लंबे अरसे के षासन ने राजनीतिक खेल के तमाम अन्य खिलाडियों को राज हथियाने का एक अनुकरणीय माॅडल भी दिया है. सत्ता के दावेदारों के लिए सीधा समीकरण बनता है कि अगर राज चाहिये तो कांग्रेसी बनो. चुनावी समर में उतरने तक प्रमुख दावेदार भाजपा इस माॅडल को पूरी तरह से आत्मसात कर चुकी है. जब तक तीसरे मोर्चे के नाम पर भी यही माॅडल झाड पोंछ कर बाहर निकला जाता रहा है वहीं खेल इस भी चल निकला है. चुनावी समर में महिला से लेकर मीडिया तक, श्रमिक से सरमायेदार, किसान से कमेरा, उपभोक्ता से व्यापारी, विद्यार्थी से बुद्धिजीवी, पेषेवर से अकुषल, संगठित से असंगठित, युवा, बेरोजगार, दलित महादलित, आदिवासी, पिछडा, अगडा, अल्पसंख्यक, षिक्षक, वकील, डाॅक्टर, सैनिक, कर्मचारी, अफसर, पेंषन भोगी, षहरी व ग्रामीण, वनवासी हर किसी के लिए पार्टी में प्रकोश्ठ तैयार किए गए हैं और हर एक के सामने फेंकने के लिए छोटे बडे टुकडे मौजूद हैं. आज की भाजपा इस लिहाज से कांग्रेस की हूबहू प्रतिबिंब नजर आती है. 



live aaryaavart dot com


कुमार गौरव,
मधेपुरा. 

कोई टिप्पणी नहीं: