कविता : अब कोई सपना नहीं - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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मंगलवार, 18 जून 2024

कविता : अब कोई सपना नहीं

अब कोई सपना नहीं।

सब टूट गया सपना वहीं।।

जब बेटी ने जन्म लिया।

तब पिता की आंखें नम हुई।

अब जितना मैं कमाऊंगा।

संजोकर उसे रख पाऊंगा।

ताकि बेटी की शादी में।

दहेज लूटा मैं पाऊंगा।।

कहते हैं सब, वह बेटी है।

तो क्या उसका मान नहीं?

जन्म से पराया बना के।

क्या उसका आत्म सम्मान नहीं?

क्या लिखी है उसकी किस्मत में?

क्या वह माता-पिता की प्रिय नहीं?

जब से जन्मी लड़की घर में।

रूठ गई मुस्कान कहीं।

यह दोष नहीं है लड़की का।

बेटी बनकर जो आई है।

पूछो उस ईश्वर से।

क्यों यह रचना बनाई है?

नौ महीने गर्भ में पाला।

जीवन के हर रंग में ढाला।

फिर भी क्यों वह पराई है?

क्यों बेटों सा प्यार न पाई वह?

माता-पिता की सेवा की।

संजोया घर का हर कोना।

उम्र से पहले बड़ी हुई वह।

खुद की किस्मत पर आया रोना।।

मेरे जन्म से पिता कर्ज में।

माता की चिंता हुई मैं।

आंखों में वजह नमी की।

कैसे जाऊं ब्याही मैं?





Nandini-kumari-charkha-feature


नंदनी कुमारी

वर्ग 10वीं

उच्च माध्यमिक विद्यालय जारंग पूर्वी,

गायघाट, मुजफ्फरपुर, बिहार

(चरखा फीचर)

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