आलेख : आस्था के मसले पर ‘कानूनी जंग‘ कब तक? - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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बुधवार, 22 मार्च 2017

आलेख : आस्था के मसले पर ‘कानूनी जंग‘ कब तक?

करोड़ों हिन्दुओं की आस्था से जुड़ा श्रीराम जन्मभूमि विवाद पर सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका पर देश की सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि यह एक संवेदनशील और भावनात्मक मुद्दा है। बेहतर होगा कि इस मुद्दे को मैत्रीपूर्ण ढंग से सुलझाया जाए। जबकि याचिकाकर्ता सुब्रमण्यम स्वामी ने कोर्ट से कहा है कि उन्होंने एक पक्ष से सुलह की पेशकश  की है, लेकिन वह राजी नहीं हैं। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है कि क्या बातचीत से बनेगा राम मंदिर? आस्था के सवाल पर कानूनी जंग कब तक? क्या राम मंदिर के मसले पर बातचीत ही रास्ता है? कोर्ट के सवाल पर क्या राम मंदिर पर सुलह हो सकती है? राम मंदिर पर बातचीत का विरोध क्यूं? 



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हालांकि अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी का भाजपा ने स्वागत किया है। भाजपा ने कहा है कि पार्टी अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण का समर्थन करती है। वह चाहती है कि मैत्रीपूर्ण ढंग से सभी पक्षों की सहमति से अयोध्या में राम मंदिर बनें। क्योंकि यह आस्था का मसला है। राम मंदिर सहमति से बनने पर सामाजिक व्यवस्था और तानाबाना भी प्रभावित नहीं होगा। ऐसा इसलिए क्योंकि यह संवेदनशील मुद्दा है और इससे लाखों लोगों की भावनाएं जुड़ी हुई हैं। भाजपा का मानना है कि जो चीज मध्यस्थता से सुनिश्चित की जा सकती है, वह काम अदालती फैसले से नहीं हो सकता है। मध्यस्थता की स्थिति में दोनों पक्षों को खुशी होगी। अदालती फैसले की स्थिति में एक पक्ष खुश होगा और दूसरा नहीं। जबकि बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी है जो आपसी बातचीत पर सहमति नहीं हैं। कमेटी की दलील है कि सुलह की कोशिश पहले भी हो चुकी है, नतीजा नहीं निकला, इसलिए मसला कोर्ट से हल होगा। यह अलग बात है कि कोर्ट 31 मार्च को अपना फैसला सुनायेंगी। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या देश के सबसे संवेदनशील मसले को आपसी बातचीत से नहीं निकाला जा सकता।  

हो जो भी भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की छाप तो बन ही चुकी है कि वह जो ठान लेते हैं पूरा करते है। ऐसे में तो कयास लगाएं ही जा सकते है कि संसद में कानून लाने व मंदिर निर्माण पर तो किसी न किसी रोज चर्चा होगी ही, भले ही तुष्टीकरण के घनचक्कर में कुछ ना हो पाएं। क्योंकि अब सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर निर्माण को तूल दे दी है। कहा जा सकता है यह सब जो वादे-दावों के बीच माहौल गरमाया जा रहा है उसके पीछे कहीं न कहीं यूपी में भाजपा को प्रचंड बहुमत मिलना है। जिस तरह पूर्व में भाजपा-आरएसएस और इनसे जुड़े हुए सभी संगठन मंदिर निर्माण को लेकर एक्सपोज्ड हो चुके हैं, उससे तो यही लगता है सिर्फ बयानबाजी के कुछ नहीं है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार की मानें तो भगवान राम के प्रति सिर्फ भाजपा को नहीं, बल्कि देश के बहुसंख्यक लोगों की आस्था श्रद्धा है। पर, लोगों की श्रद्धा को उभारकर इसका राजनीतिक लाभ लेना भाजपा और आरएसएस की आदत बन चुकी है। शायद इसीलिए वह हमेशा इस मुद्दे को जिंदा रखना चाहते हैं। समय-समय पर इस मसले को उभारते भी रहते हैं। इनका धर्म-आस्था से कोई लेना-देना नहीं है। 

हर चुनाव में भाजपा का नारा होता है-रामलला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे, तारीख नहीं बताएंगे। जबकि सच तो यह है कि मंदिर का निर्माण और स्थल दोनों तय है। ऐसे में मंदिर का निर्माण या तो कोर्ट के फैसले से होगा या आपसी रजामंदी से। बिल्कुल, यह बात सोलहों आना सच है कि बीजेपी का वजूद ही राम मंदिर से है। अगर आज वह सत्ता में है या मोदी को मौका मिला है तो इसके पीछे राम मंदिर समर्थकों की बड़ी भूमिका है। यह अलग बात है कि समर्थक हो या सरकार सार्वजनिक तौर पर कुछ बोलने से बचती है लेकिन इस मुद्दे को वह भी चाहते है जिंदा रहे। तभी तो तमाम मनाही के बावजूद कभी विनय कटियार तो कभी साक्षी महराज, तो कभी उमा भारती तो कभी संत समाज मंदिर तो कभी मोहन भागवत तो कभी प्रवीण तोगड़िया मुद्दे को उठा ही देते है। कुछ हद तक इससे जुड़े वोटर भी मंदिर मुद्दे पर ही वोटिंग करते दिखाई पड़ते है। 2014 लोकसभा चुनाव हो या ताजा विधानसभा चुनाव इसका जीता-जागता उदाहरण है। ऐसे में केंद्र सरकार को चाहिए कि वह संसद में कानून बनाकर मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करें। क्योंकि राम मंदिर हिन्दुओं के लिए राजनीति नहीं, आस्था का मुद्दा है। 

हालांकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हो या केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह सभी इस मुद्दे पर खामोश रहते है। पूछे जाने पर कहते है सरकार के एजेंडे में राम मंदिर नहीं है। सबका साथ सबका विकास की बात करते है। लेकिन संत समाज अब दोनों नेताओं के बयान से इतर चेतावनी देते फिर रहे है कि सरकार राम मंदिर के लिए कानून बनाने में बहानेबाजी के बजाएं पहल करें। जनता को धोखा न दें। राज्यसभा में बहुमत नहीं है, का तर्क बेमानी है। जबकि ‘महाकुंभ 2013 में राजनाथ ने भाजपा अध्यक्ष के नाते बयान दिया था कि सरकार बनी तो कानून बनाकर मंदिर बनवाएंगे। वैसे भी भाजपा को अप्रैल 2017 तक राज्यसभा में भी बहुमत मिल जाएगा। उसके बाद कानून बनाया जा सकता है। 

देखा जाय तो राम मंदिर बनाने का वादा करने वाली भाजपा के पास इसके लिए इच्छाशक्ति का अभाव है। अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार के समय उसके पास बहाना था कि वह दूसरे दलों के समर्थन पर टिके हैं, लेकिन अब भाजपा कूटनीतिक बयानबाजी कर रही है। अब तो सुप्रीम कोर्ट ने भी पहल कर दी है। हालांकि आपसी सद्भाव, समन्वय व संवाद के जरिए राजनैतिक दल इस मसले को हल कर मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। लेकिन अब साफ हो गया है कि इस मुद्दे पर भाजपा सिर्फ राजनीति ही कर रही है। अयोध्या में राममंदिर निर्माण को संसद में बहुमत की नहीं, बल्कि इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। भाजपा राज्यसभा में बहुमत न होने की बात उठाकर इस मामले में देश की जनता को भ्रमित कर रही है। केंद्र सरकार 1990 में ही राममंदिर समेत आसपास की 65 बीघा जमीन का अधिग्रहण कर चुकी है। 

सच तो यह है कि राम मंदिर निर्माण की पहल करने में केंद्र सरकार के सामने कोई संवैधानिक अड़चन नहीं है। उनके अनुसार इस दिशा में मौजूदा केंद्र सरकार का मार्ग पूर्व की संप्रग सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट में दाखिल शपथ पत्र से प्रशस्त हो रहा है। इसमें संप्रग सरकार ने कहा था कि यदि साबित हो जाए कि बाबरी मस्जिद का निर्माण किसी ढांचे को तोड़कर हुआ था, तो वह हिन्दुओं की मांग का समर्थन करते हुए मंदिर निर्माण में सहयोग करेगी। हाई कोर्ट के निर्णय से स्पष्ट हो गया है कि रामलला जिस भूमि पर विराजमान हैं, वहां पहले मंदिर था और आर्कियॉलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (एएसआइ) की रिपोर्ट से भी यह तथ्य प्रमाणित हो चुका है। ऐसे में सरकार के सामने मंदिर निर्माण की दिशा में सहयोग को लेकर कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। मंदिर निर्माण की उपेक्षा ठीक नहीं है और इससे जन भावनाएं आहत होंगी। मंदिर निर्माण में विलंब से रामभक्तों का गुस्सा ज्वालामुखी की तरह फट सकता है। मंदिर निर्माण का कानून बनाने के लिए भूमि अधिग्रहण बिल की तरह केंद्र सरकार लोकसभा में प्रस्ताव पेश करके इसे पारित कराने का प्रयास करे। 



(सुरेश गांधी)

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