प्रतीकों से प्रतिबोध : 24 तीर्थंकरों के प्रतीक चिन्हों पर विशेष - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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गुरुवार, 1 अगस्त 2013

प्रतीकों से प्रतिबोध : 24 तीर्थंकरों के प्रतीक चिन्हों पर विशेष

प्रतीकों के द्वारा प्रतिबोध देने की जैन साहित्य की अपनी एक विशिष्ट शैली है। प्रतीक, उपमा, दृष्टान्त द्वारा जहाँ व्याख्यान शैली में प्रभाव और चमत्कार पैदा होता है, वहीं एक छोटे से वाक्य द्वारा गम्भीर व व्यापक अर्थ का विस्तार भी हो जाता है। प्रतीकों से आने वाले भविष्य का, शुभ-अशुभ का तथा श्रेष्ठ निकृष्ट का सन्देश ग्रहण किया जाता है। जो बात जो सन्देश या जिन भावों को प्रकट करने में शब्द अधूरे व असमर्थ सिद्ध होते हैं, उन्हें प्रतीक बड़ी ही सहजता और स्पष्टता के साथ बड़ी प्रखर और सम्प्रेषणीय शैली में प्रकट कर देते हैं। श्रमण संघीय तृतीय पट्टधर आचार्य सम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी म. सा. ने प्रतीकों से प्राप्त होने वाले प्रतिबोध को स्पष्ट करते हुए बताया है कि प्रतीकों का सम्बन्ध हमारे श्रद्धेय महापुरुष तीर्थंकरों के जीवन के साथ जुड़ता है। तीर्थंकरों के जीवन के साथ भारत का प्राचीन प्रतीकशास्त्र इतना गहरा जुड़ा है कि बिना इसे समझे उनके जीवन के, व्यक्तित्व के घटक गुणों को, उनके सन्देशों को, उनकी भावनाओं की सूक्ष्म तरंगों को समझा नहीं जा सकता। तीर्थंकरों के चिन्हों में अधिकतर पशु एवं पक्षियों के चिन्ह सांसारिक पर्यावरण में भी सम्बन्ध रखते हैं। उन पशु पक्षियों की रक्षा और संवर्धन के साथ मानव जाति के साथ उनके निकट सम्बन्ध व सहयोग की भावना भी इन चिन्हों से व्यक्त होती है।

इन प्रतीकों से प्रकट होते रहस्य, भाव, सम्प्रेषक तत्त्व महत्त्वपूर्ण हैं और वह हमारे जीवन दर्शन को स्वच्छ दृष्टि देने वाला है। प्रतीकों की यही अज्ञात गूढ़ भाषा महत्त्वपूर्ण है और हमारे जीवन के लिए विशेष उपयोगी है। अतः प्रतीक बोध ही हमारे लिए प्रतिबोध बन सकता है। इन प्रतीकों से प्रकट होते रहस्य, भाव, सम्प्रेषक तत्त्व महत्त्वपूर्ण हैं। वह हमारे जीवन दर्शन को स्वच्छ दृष्टि देने वाला है। प्रतीकों की गूढ़ भाषा महत्त्वपूर्ण है और हमारे जीवन के लिए विशेष उपयोगी है।

1. वृषभ: कृषि का आधार होने के कारण वह शाकाहार और अहिंसा का प्रतीक है। वृषभ गौ वंश का स्वामी है। गौ-नाम इन्द्रियों का भी है। इसलिए इन्द्रियों पर स्वामित्व या संयम रखना भी सूचित करता है। शास्त्रों में वृषभ को भार वहन में समर्थ, अथक, श्रमशील और बलिष्ट माना गया है। वह सिर्फ घास पात खाकर इतना बलवान होता है कि कंधों पर लिए भार को किनारे तक पहुँचाता है। वृषभ प्रतीक को मिलने वाले प्रतिरोध को स्पष्ट करते हुए आचार्य सम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी म. सा. ने हमें यह प्रेरणा ग्रहण करने का सन्देश दिया कि हम वृषभ की तरह शाकाहारी तथा अहिंसक बने। उसकी तरह समर्थ, श्रमशील और बलिष्ठ बने। उससे उत्तरदायित्व निभाने की शिक्षा ग्रहण करें। वृषभ के प्रतीक से हमें सरलता और सात्विकता की भी शिक्षा मिलती है।

2. हाथी: हाथी पशुओं में श्रेष्ठ और बुद्धिमान प्राणी माना जाता है। युद्ध के मैदान में आगे डटकर वह शत्रु पर विजय प्राप्त करता है। उसकी शूरवीरता श्रेष्ठता की परिचायक है। आचार्य श्री के अनुसार हमें जीवन संग्राम में डटकर विजयश्री प्राप्त करने की प्रेरणा ग्रहण करनी चाहिए। आचार्य सम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी म. सा. ने कहा है कि हाथी की लम्बी सूँड, सूचित करती है जो कुछ भी ग्रहण करो, पहले उसे गहराई से देखो, जाँच पड़ताल करो, अपनी ग्रहण शक्ति को विकसित करो। बड़े कान सभी की बातें सुनकर बड़ पेट में रखने की सूचना देते हैं अर्थात् बातों को पचाने के साथ-साथ गम्भीर बनो।

3. अश्व : अश्व शक्ति और गति का प्रतीक है। जैन शास्त्रों में कहा गया है - मणो साहस्सिओ भीमो दुटठस्सो परिधावइ-अर्थात् मन दुष्ट अश्व की तरह बड़ा साहसिक और तेज दौड़ने वाला है। किन्तु इसे अगर ज्ञान की लगाम लगा दो तो यही शक्तिपुंज बन जाता है। आचार्य सम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी म. सा. के अनुसार शिक्षित और लगाम डाला हुआ अश्व जैसे युद्धों में विजय व लक्ष्मी दिलाता है, वैसे ही सुशिक्षित व संयमित मन जीवन में शक्ति और विजय प्राप्त कराता है। अश्व को प्रतीक मानकर विनय, संयम, ज्ञान आदि की शिक्षाएं ग्रहण करनी चाहिए। भगवान संभव नाथ का प्रतीक चिन्ह है, उनके चरणों में मन अश्व लग जाये तो असंभव भी संभव हो सकता है।

4. बन्दरः भगवान अभिनन्दन का चिन्ह है। बन्दर चंचलता का प्रतीक है, मन भी चंचल है। इसलिए मन की चंचलता की उपमा बन्दर से की जाती है। जब बन्दर ने भगवान अभिनन्दन के चरणों में आश्रय लिया तो वह वन्दनीय हो गया। इसी प्रकार मन जब भगवान के चरणों में लगा दिया जाय, तो वह भी संसार में वन्दनीय हो जाता है। हनुमान जैसा परम भक्त वीर बन्दर जाति में जन्म लेता हैं बन्दर जैसे चंचल मन को भक्ति में लगा दे तो वह विश्ववन्घ हो जाता है। तीर्थंकर चरणों में मन रूपी संकट को लगाकर स्थित प्रज्ञ बन जाओ, यही इस प्रतीक का बोध है, मर्म है, रहस्य है।

5. क्रोंच: भगवान सुमतिनाथ की शरण ग्रहण करने वाला क्रोंच पक्षी हमेशा जाग्रति का सन्देश देता है। कहा जाता है - क्रोंच पक्षी नींद नहीं लेता, रात को जब सारा संसार सोता है, तो वह आकाश की ओर पाँव करके पड़ा रहता है, जाग्रत-अप्रमत्त होकर। इसलिए इसे उत्तानपाद भी कहा गया है। आचार्य सम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी म. सा. के अनुसार मनुष्य को इतना स्वार्थी और प्रमादी नहीं होना चाहिए कि अपने सुख में किसी की चिन्ता नहीं रहे। सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में - वाली उदारता भी एक गुण है। उत्तराध्ययन सूत्र में जहेव कुंचा समइक्कमंता (14/36) क्रोंच पक्षी की तरह मायाजाल को काटकर उड़ जाने में चतुरता और अप्रमत्तता का सन्देश दिया गया है।

6. रक्त कमल: भगवान पद्मप्रभु का लांछन है। कमल अपनी निर्लेपता, कोमलता और सुन्दरता के कारण संसार के धर्मग्रन्थों एवं साहित्य में प्रसिद्ध है। भगवान महावीर ने बार-बार कमल पुष्प् की उपमा देकर साधक की संसार में कमल की भाँति निर्लेप जीवन जीने की प्रेरणा दी है। गीता-महाभारत में भी पद्मपत्रभिवाम्मसि-जल में कमल की तरह रहने की शिक्षा देकर प्रतीकार्य घोषित किया गया है। काव्यों में कमल पवित्र प्रेम का प्रतीक है। जो मन प्रभु के चरणों से प्रेम करता है, वह कमल की तरह पवित्र प्रेम का प्रतिनिधि बन जाता है। आचार्य सम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी म. सा. के अनुसार मनुष्य, सुन्दर, कोमल और निर्लेप रहे। साथ ही प्रभु के चरणों से प्रेम करो। आध्यात्मिक जीवन जिये।

7. स्वस्तिक: जैन साहित्य में स्वस्तिक अष्ट मंगल को शाश्वत मंगल प्रतीकों में माना गया है। तीर्थंकर के समवसरण चक्रवर्ती की सभाओं, विजय यात्राओं में स्वस्तिक चिन्ह अंकित रहता है। स्वस्तिक का प्रतीक वैदिक और बौद्ध धर्म में भी मांगलिक माना गया है। भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक और सत्यं, शिवं, सुन्दरं का प्रतीक माना गया है। स्वस्तिक शब्द का अर्थ है - सु ़ अस्ति त्र कल्याण हो। उसकी रेखाएं ऊँकार से मिलती हंै उसकी रेखाएं एक दूसरे को काटती हैं। इसका तात्पर्य है - जन्म मरण की रेखाएं एक दूसरे को काटकर चतुर्गति रूप संसार का निर्माण करती हैं। ज्ञान की रेखा से अज्ञान की रेखा कट जाये तो चार गति से मुक्ति भी मिल जाती है। ज्ञान से अज्ञान को काटो। स्वस्तिक के चारों कोने-ज्ञान, दर्शन, तप और चरित्र रूप मोक्ष मार्ग के प्रतीक है। आचार्य सम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी म. सा. के अनुसार स्वस्तिक आर्य संस्कृति का प्रतीक है और संसार के प्रायः सभी देशों और संस्कृतियों में स्वस्तिक लिखने का प्रचलन रहा है और इसे मंगल चिन्ह माना गया है। भगवान सुपाश्र्वनाथ के चरणों में अंकित होने से उसकी मांगलिकता असंदिग्ध है।

8. चन्द्रमा: भगवान चन्द्रप्रभ का लांछन है। उनका नाम ही चन्द्रप्रभ है - चन्द्र की प्रभा से युक्त। चन्द्रमा जीवन की हानि, लाभ, उत्थान, पतन, वृद्धि तथा हानि का प्रतीक है। सुन्दरता के लिए भी चन्द्रमा की उपमा दी जाती है, इसे शीलता का प्रतीक भी माना जाता है। ज्ञाता सूत्र में चन्द्रमा के उदाहरण से वृद्धि-हानि का प्रतिबोध दिया गया है। वृद्धि हानि जीवन का क्रम है, संसार का स्वरूप् है। आचार्य सम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी म. सा. ने कहा है कि : चन्द्रमा की तरह संसार के सभी भौतिक सुख कभी बढ़ते हैं और कभी घटते हैं। जन्म से मृत्यु तक जीवन कलाएं घटती बढ़ती रहती है। इसलिए नश्वरता का बोध करो। चन्द्रमा इस नश्वर जीवन में भी आभायुक्त, प्रभायुक्त बने रहने का सन्देश देता है। यदि जीवन में शुभ भावों का उदय होगा तो यह जीवन विकसित होता हुआ एक दिन पूर्णिमा तक पूर्णोदय प्राप्त करेगा अन्यथा कलाएं घटते-घटते एक रेखा मात्र रह जाएंगी।

9. मकर: भगवान पुष्पदन्त का लांछन मकर अपने कुछ खास गुणों के लिए प्रसिद्ध है। मकर समुद्र अथवा गहरी जल राशि में रहता है। गहरे जल में रहकर डूबता नहीं, मस्ती से तैरता रहता है। आचार्य सम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी म. सा. मकर के प्रतिबोध से समझाते हैं:- संसार में भोग, विलास, धन, सत्ता आदि के अथाह जल के बीच रहकर भी मकर की तरह तैरते रहो, उसमें लिप्त मत बनो, डूबो मत; जल में रहकर जल पर तैरते रहने की शिक्षा मकर देता है। विष्णु ने भी मत्स्य अवतार लेकर धरती को अपने ऊपर धारण कर लिया, पानी में डूबने नहीं दिया। उत्तराध्ययन सूत्र में - गागग्गहीए महिसेवज्रत्रे - भैंसा मकर के द्वारा जल में पकड़े जाने पर अपना पैर छुड़ा नहीं सकता। कामदेव के ध्वज में भी मकर का चिन्ह है, जो सूचित करता है जिसके मन में लालसा रहेगी, वह वासना के मगरमच्छ द्वारा मारा जाता है।

10. श्रीवत्स: भगवान शीलतलनाथ के चरणों का सद्चिन्ह सभी महापुरुषों ने अपने हृदय पर, वक्षस्थल पर धारण किया है। महापुरुषों के शुभ लक्षणों में उनके वक्ष स्थल पर श्रीवत्स की आकृति बताई जाती है। श्री वत्स का अर्थ होता है लक्ष्मी-पुत्र। जिन महापुरुषों के वक्षस्थल पर श्रीवत्स होता है, वे लक्ष्मी पुत्र न होकर स्वभाव से लक्ष्मीपति होते हैं। संसार के समस्त ऐश्वर्य के स्वामी होते हैं। लक्ष्मी को दासी मानकर जीते हैं। श्री वत्स को क्षमा और धैर्य का प्रतीक बताया गया है। सन्तों, महात्माओं एवं सिद्ध पुरुषों के वक्षस्थल पर भी श्रीवत्स का चिन्ह प्रायः देखने को मिलता है। इससे यह अनुमान लगाना अस्वाभाविक नहीं माना जा सकता कि इस प्रतीक को अर्थात् क्षमा एवं धैर्य को जीवन में, हृदय में धारण करने वाला ही महापुरुष बनता है।

11. गेंडा: श्रेयांसनाथ भगवान के चरणों में आश्रय लेने वाला गेंडा पशुओं में अपने बल विक्रम से अजेय माना जाता है। इसे खड्गी कहते हैं। एक सींग होता है, खाल इतनी मोटी होती है कि तलवारों के के प्रहार से भी नहीं कटती। इसलिए गेंडे की खाल प्रहार निरोधी मानी जाती है और ढ़ाल बनाने के काम आती हैं। आचार्य सम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी म. सा. के अनुसार गेंडे की खाल की तरह क्षमा का कवच धारण करने वाले को दूसरों के क्रोध, दुर्वचन आदि प्रहारों का घाव नहीं लग सकता। अतः क्षमा धारण कर अपने को गेंडे की तरह प्रतिरोधी बनाओ। जैसे उसके एक सींग है, वैसे ही एकाकीभाव से संसार में रहो।

12. महिष: भगवान वासुपूज्य के चरणों की छाया में बैठा महिष सभी को दो सन्देश देता है - 1. मैं खूब खा पीकर हृष्ट-पुष्ट हो गया हूँ, परन्तु आलसी हूँ इसलिए लोग तिरस्कारपूर्वक मुझे कहते हैं भैंसा बना हुआ है। बहुत अधिक भोजन करने से असंयम बढ़ता है, आलस बढ़ता है, उष्णता बढ़ती हैं इस कारण में दलदल में जाकर फंसता हूँ, कीचड़ में अपने को छुपाता हूँ। जो असंयमी होगा, वह मोह, माया, वासना के दलदल में फँसा ही रहेगा। असंयम के फलस्वरूप् जब कभी देवी-देवताओं के नाम पर बलि दी जाती है तो महिष का नाम ही आता है। लोग महिष की गरदन पर तलवार चलाकर अपनी मनोकामना पूर्ण करना चाहते हैं। आवश्यकता से अधिक भोजन नहीं करना चाहिए।

13. शूकर: भगवान विमलनाथ का लांछन शूकर प्रत्यः मलिनता का प्रतीक है। गंदगी व कीचड़ प्रिय शूकर की उत्तराध्ययन सूत्र में दुर्बुद्ध व दुराचारी व्यक्ति से तुलना की गई है। कण कुण्डगं चइत्ताणं विट्ठं भुजंइ सूयरो-चावलों का भोजन छोड़ सूअर विष्टा खाता है। ऐसा मलिन वृत्ति वाला पशु भगवान विमलनाथ के चरणों में जाकर आश्रय लेता है, तो यह ‘वराह’ कहलाने लगता हैं। इसमें सहिष्णुता का एक गुण भी है। उसकी चमड़ी व हड्डियाँ मजबूत होती हैं। अतः दृढ़ता और सहिष्णुता का गुण लेने के लिए शूकर से प्रेरणा ग्रहण करें।

14. श्येन: भगवान अनन्तनाथ के चरणों का लांछन है श्येन अर्थात् बाज। श्येन शब्द का अर्थ है जिसे देखकर दूसरे काँपने लग जायें। बाज मांसाहारी एवं शिकारी पक्षी है। वह शिकारियों के लिए शिकार तलाशता है। बड़ा तेज तर्रार, निशानेबाज, धूर्त, फुर्तीला और किसी से भी नहीं डरने वाला बाज अपने लक्ष्य पर झपटकर उसे प्राप्त करने की अद्भुत तेजी रखता है। आचार्य सम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी म. सा. के अनुसार यदि मनुष्य अपने आध्यात्मिक लक्ष्य के प्रति निष्ठावान बन जाये, बाज की तरह झपटकर अपने जीवन के महान लक्ष्य को प्राप्त करने में लीन हो जाये तो दुर्गुण भी सद्गुण बन सकता है। लक्ष्य बोधकता सीखने के लिए बाज को प्रतीक माना जा सकता है।

15. वज्र: भगवान धर्मनाथ के चरणों का लांछन रूप वज्र दृढ़ता का प्रतीक है। वज्र से यह प्रेरणा ग्रहण करने की आवश्यकता है कि कष्टों में वज्र के समान दृढ़ रहो, धर्म एवं मर्यादा पालन में वज्र तुल्य अचूक बने रहो। मिथ्यात्व, अज्ञान और मोह पर वज्र की भाँति टूट पड़ो तो फिर धर्म की प्राप्ति तुम्हें निश्चित ही हो जायेगी।

16. हरिण: भगवान शान्तिनाथ का लांछन हरिण भोलेपन, अज्ञान और चपलता का प्रतीक है। साथ ही उसमें संगीत का अद्भुत प्रेम या मोह है। वह शिकारी के मधुर संगीत के स्वर सुनकर शिकारी के रूप में सामने खड़ी मौत को भूल जाता है। आचार्य सम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी म. सा. फरमाते थे कियदि हम हरिण की तरह मीठे शब्दों-संगीतों की माया में फँसेंगे तो मारे जाएंगे। इस दुनिया में रहना है तो पूर्ण सावधान होकर जीना है। चापलूसों की मीठी, चिकनी चुपड़ी बातों के जाल में नहीं फँसना है वर्ना हरिण की तरह अकाल मृत्यु का ग्रास बनते देर नहीं लगेगी। अगर शान्ति प्राप्त करना है तो हरिण के समान मन को सीधा घास फूस खाकर सन्तुष्ट रखना सीखना होगा और साथ ही चैकन्ना रहना होगा।

17. छाग (बकरा): भगवान कुन्थुनाथ का चिन्ह है - छाग अर्थात् बकरा। बकरा बहुत ही सीधा, भोला और शाकाहारी प्राणी है। भगवान महावीर ने उत्तराध्ययन सूत्र में बताया है कि स्वार्थी धोखेबाज मनुष्य बकरे को पालता है, खूब हरी घास और कन्द मूल खिलाकर मोटा ताजा बनाता है और एक दिन जब मेहमान आते हैं, तो चुपचाप पकड़कर उसके गले पर छुरी चला देता है। बेचारा मैं-मैं करता रह जाता है। बकरे के जीवन से हमें यह शिक्षा मिलती है कि कोई हमारे साथ आकस्मिक रूप् से अधिक - प्रेम, दया और सहानुभूति दिखाये तो हमें सावधान हो जाना चाहिये, उस पर तुरन्त विश्वास नहीं करना चाहिये क्योंकि लोग अपना स्वार्थ साधने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। खाने-पीने, भोग विलास के लोभ में पड़कर बकरा दूसरों का भोजन बन जाता है। अतः कभी भी इन्द्रियों की दासता स्वीकार नहीं करना चाहिए। बकरा सदा मैं-मैं करता रहता है। मैं-मैं (अहंकार) करके गला कटाता है। अतः हमें (अहंकार) मैं-मैं से बचना चाहिये। जो अहंकार करता है, उसका परिणाम बकरे की तरह होता है।

18. नंद्यावर्त: भगवान अरहनाथ का चरणचिन्ह नंद्यावर्त अष्टमंगल में एक मंगल है। नंद्यावर्त में एक कोने से अर्थात् पूर्व दिशा से प्रवेश करेंगे तो चक्रव्यूह की भाँति घूमते-घूमते अन्त में पश्चिमी द्वार तक पहुँच जायेंगे। बीच में घुमाव अवश्य हैं पर पड़ाव नहीं है, अवरोध नहीं है, कहीं भी रूकना नहीं है। बस, अपनी गति से चलते ही रहना है। इसी प्रकार उत्तर द्वार में प्रवेश करेंगे तो दक्षिण द्वार से निकल जायेंगे। ये चार द्वार और बीच की घुमावदार यात्रा ज्ञान दर्शन चारित्र तप की यात्रा को दर्शाती है। ज्ञान के द्वार से साधना क्षेत्र में प्रवेश करेंगे तो घूमते-घूमते विविध मार्गों की यात्रा करते-करते स्वतः दर्शन द्वार तक पहुँच जायेंगे। चारित्र द्वार से प्रवेश करने पर चारित्र के विविध अंगों का साधना के क्षेत्र में प्रवेश कर निरन्तर चलना जारी रखें तो लक्ष्य तक निश्चित पहुँचेंगे।

19. मंगल कलष: भगवान मल्लीनाथ का यह चिन्ह हमें जीवन में पूर्णता प्राप्त करने की प्रेरणा देता है। कलश मंगल का प्रतीक है। यात्रा प्रस्थान के समय भरा हुआ कलश मिल जाये तो शुभ शकुन माना जाता है। कलश का पेट (उदर) अत्यन्त विशाल है, परन्तु मुख छोटा है। आचार्य सम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी म. सा. के अनुसार मनुष्य को ज्ञान प्राप्त करने के लिए सद्गुणों का संग्रह करने के लिए कलश की तरह हृदय को विशाल बनाना चाहिए, परन्तु मुख से प्रशंषा नहीं करना, अपनी बड़ाई नहीं करना चाहिए। मुख छोटा रखो, बन्द रखो। सम्पूर्ण कुंभो न करोति शब्दं - भरा हुआ कुम्भ कभी भी शब्द नहीं करता। उसी प्रकार बड़े आदमी ज्ञानी जन अपने मुख से अपनी प्रशंसा नहीं करते। कलश प्यासों की प्यास बुझाने का प्रतीक है। अपने द्वार पर आने वाला प्यासा, याचक और इच्छुक व्यक्ति बिना तृप्ति नहीं लौटे, कलश यह संकेत देता है।

20. कच्छप: भगवान मुनिसुव्रत के चरणों में आश्रित कच्छप जीने की एक विशिष्ट शैली सिखाता है। अध्यात्म में साधक को कछुए की तरह संसार में रहने की शिक्षा दी गई है। गीता में कहा है - जैसे कछुआ खतरा देखकर अपनी सभी इन्द्रियों को, शरीर के अंगों-पांगों को छुपाकर एक गेंद की तरह निश्चेष्ट होकर पड़ा रहता है और इस प्रकार अपनी रक्षा करता है, शत्रु से स्वयं को बचाता है। उसी प्रकार साधक संसार में रहते हुए पापों से, बुराइयों से अपने को बचाता रहे। आचार्य सम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी म. सा. ने कहा है कि भगवान महावीर उत्तराध्ययन सूत्र में कहते हैं - जहाँ कुम्भे से अंगाई - जैसे कछुआ अपने अंगों को छुपाकर स्वयं को खतरे से बचाता है, वैसे ही साधक को पापों से, हिंसा आदि आस्रवों से बचना चाहिए। कछुआ जल और थल सभी जगह समान रूप से दौड़ने में समर्थ हैं। मनुष्य को अपनी क्षमता इतनी विकसित करनी चािहए कि जब, जहाँ, जैसी परिस्थिति हो, उसके अनुकूल अपनी शक्ति लगाकर अपना कार्य साध ले। कछुआ चलने में मन्द गति जरूर है, परन्तु वह अपनी गति से निरन्तर चलता ही रहता है। साधक भी भले ही मन्द गति से चले, परन्तु बिना रूके, बिना विश्राम लिए चलता रहे। लक्ष्य की निष्ठा के लिए बढ़ता रहे।

21. नीलकमल: भगवान नमिनाथ का चरण चिन्ह है। कमल की जातियाँ अनेक हैं। श्वेत कमल, रक्त कमल, नील कमल आदि। परन्तु उसकी प्रृकृति व स्वभाव तो एक ही है निर्लोपता। नीलकमल की शोभा-सुषमा आँखों को बड़ी सुरम्य मोहक लगती है और शीतलता व शान्ति भी पहुँचाती है। कमल हमें निष्काम और निर्लेप जीवन की शिक्षा देता है।

22. शंख: भगवान नेमिनाथ (अरिष्टनेमि) के चरणों में अंकित शंख हमें शंख जैसा उज्ज्वल और सुपात्र जीवन जीने की प्रेरणा देता है। भगवान महावीर ने कहा-शंख पर किसी अन्य प्रकार का रंग नहीं चढ़ता। शंख सदा श्वेत ही रहता है। उसी प्रकार वीतराग प्रभु शंख की भाँति राग-द्वेष के रंग से निर्लेप रहते हैं। आचार्य सम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी म. सा. ने कहा है कि उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है - जहां सखम्मि पंय निहृये दुहओ वि निरायइ। शंख में रखा हुआ दूध कभी विकृत नहीं होता। शंख में एक प्रकार का रसायन है जो दूध को फटने नहीं देता। उसी प्रकार सुयोग्य, विनीत, व्यक्ति, श्रुत ज्ञान को धारण करके श्रुत ज्ञान की भी रक्षा करता है और स्वयं भी उसमें सुशोभित होता हैं। कहा जाता है कि शंख ध्वनि से ही ऊँ की ध्वनि का विस्फोट हुआ। इतनी विशेषताओं के कारण शंख हमें निर्मल मन रहने की, पात्र बनने की, मधुर और आदरणीय वचन बोलने की, धीर-गम्भीर ओजस्वी वाणी बोलने की शिक्षा देता है।

23. नाग: भगवान पाश्र्वनाथ का चिन्ह है। हिन्दू धर्म में नाग को गले में धारण करने वाले शिव शंकर कहलाते हैं और जैन संस्कृति में भगवान पाश्र्वनाथ भी सप्तफणी नाग पर आसीन बताये जाते हैं। आचार्य सम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी म. सा. के अनुसार साँप कभी अपना बिल (घर) नहीं बनाता। वह बने बनाये बिल में ही प्रवेश करता है। इसी प्रकार साधु कहीं अपना घर नहीं बनाये, सहज रूप में जो भूमि पर स्थान उपलब्ध हो जाये, वहीं विश्राम कर ले। साँप चाहे जितना टेढ़ा चले, आंटे खाकर चले परन्तु जब बिल में प्रवेश करता है, तो सीधा हो जाता है। उसी प्रकार मनुष्य बाहर चाहे जितनी धूर्तता, कपट करे परन्तु अपने स्वजन गुरु आदि के सामने सीधा रहे, सरल और सहज रहे। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है:- जहा य भोइ, तणुयं भुयंगो, निम्मोयणिं हिच्च पलेइ भुतो। (14/34) जैसे भुजंग अपनी कैंचुली छोड़कर मुक्त मन से चलता है। कैंचुली त्याग कर उस कैंचुली की तरफ वापस देखता भी नहीं, उसी प्रकार जिन विषयों का, भोगों का त्याग कर दिया जाय, वापस मुड़कर भी उनकी तरफ नहीं देखे। 

24. सिंह: भगवान महावीर की चरण शरण में विराजमान सिंह हमें अनेक संदेश देता है।हिंसा का बल चाहे जितना प्रचण्ड हो, उसे अन्त में अहिंसा की शरण लेनी ही पड़ती है। जैसे मैंने वर्धमान की चरण-शरण ग्रहण की है। इसलिए संसार में हिंसा से नहीं, अहिंसा से ही रक्षण मिलेगा। सिंह पराक्रम और शौर्य का प्रतीक है। अपने बल विक्रम पर वह वन का राजा बनता है और सम्पूर्ण वन प्रदेश में अकेला निर्भय विचरण करता है। भगवान महावीर ने कहा है - चाहे तुम अहिंसक हो, दयालु हो, परन्तु दुर्बल, कायर और भयभीत मत बनो। दुर्बल, कायर, भयभीत रहने वाला संसार में जीवित नहीं रह पाता। जो वीर्यवान है, वही जीतता है। विजय श्री का वरण करता है। इसलिए जहाँ भी रहो, जिस क्षेत्र में रहो सिंह की तरह पराक्रमी, वीर्यवान और निर्भय बन कर रहो। सिंह जैसा पराक्रमी पशु भी जब कहीं चलता है, तो दो कदम आगे बढ़कर पीछे देखता है। जीवन में चाहे जितनी तेज गति से बढ़ो, प्रगति कितनी ही त्वरित हो, परन्तु प्रगति के साथ सावधानी जरूर बरतो, आगे बढ़ने के साथ पीछे मुड़कर भी देखो, समाज, राष्ट्र तुम्हारे साथ है।

कहते है - सिंह भूखा मर जाता है परन्तु कभी घास नहीं खाता। तात्पर्य यह - अपने स्वभाव के विरूद्ध कोई काम मत करो। जीवन में कभी हीनता मत आने दो। इस प्रकार निर्भय वृत्ति, सावधानी, स्वभाव में दृढ़ रहने की प्रेरणा हमें सिंह से मिलती है। आचार्यश्री के अनुसार ये प्रतीक हमें अपने लक्ष्य के प्रति अगाध श्रद्धा और अक्षय प्रेरणा देते हैं। जब किसी तथ्य की अनेक विलक्षणताओं, सम्प्रेषणाओं को व्यक्त करने में मस्तिष्क, उपयुक्त शब्द नहीं खोज पाती, तब वही बोध एक प्रतीक के माध्यम से मिल जाता है।

ये प्रतीक भौतिक जीवन को सुखी, सफल और सन्तुष्ट बनाने के लिये हमें प्रेरणा देते हैं, साथ ही हमारे लिए आध्यात्मिक जीवन का मार्ग प्रशस्त करने की दृष्टि से मोक्ष प्राप्ति का दिशा बोध भी देते हैं। इन प्रतीकों का मन्तव्य हृदयंगम कर लेने से व्यक्तिगत जीवन तो सुखी होगा ही, राष्ट्र और समाज के लिए भी उपयोगी होगा।




- आचार्य सम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी म.
प्रस्तुति - दिनेश मुनि 
(श्रमण संघीय सलाहकार)








(प्रस्तुत आलेख श्रमण संघीय तृतीय आचार्य सम्राट् गुरुदेव श्री देवेन्द्र मुनि जी म. द्वारा उदयपुर प्रवास के दौरान  दिया गया प्रवचन है। जिसे आलेख रुप देकर पाठकों के सामने प्रस्तुत किया गया है। प्रस्तुति: श्रमण संघीय सलाहकार दिनेश मुनि। )

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