भाई-बहन के बीच प्रेम का ऐसा झरना बहता है, जो आपकी जिंदगी को खुशियों से भर देता है। इस रिश्ते का डीएनए ही कुछ ऐसा है कि मुसीबत के वक्त जब कहीं से मदद की उम्मींद नहीं होती है, तब भी कलाई पर बंधा स्नेह जिन्दगी की डोर थामने के लिए खड़ा हो जाता है। अर्थात रक्षाबंधन भाई-बहन के बीच वह रिश्ता है जिसमें गंगाजल की तरह बहनें धारा तो भाई कल-कल। बहनें टहनी तो भाई श्रीफल, बहने स्नेहिल तो भाई वत्सल या यूं कहें भाई-बहनों के सभी सवालों का जवाब है रक्षाबंधन। या यूं कहें भाई-बहन का नाता स्नेह, ममता, वात्सल्य, करुणा और रक्षा के भावों के ताने-बाने में बुना होने से अनूठा ही है। यह नाता जितना स्नेहमय है उतना ही शालीन और पावन भी। क्योंकि इसमें जुड़ी होती है बचपन की यादें। साथ खेलना, झगड़ना, शरारतें और भी बहुत कुछ। जन्म से जुड़ा ये रिश्ता वक्त के साथ मजबूत होता जाता है
बेशक, कहने को राखी सिर्फ एक पतले से धागे को कलाई पर बांधने का त्योहार है। लेकिन, इस महीन सी डोर में जीवन को संबल व दिशा देने वाली कितनी शक्ति है, ये तो वे ही बता सकते हैं जिनके मन में बहन के प्रति प्यार बसा है। भाई-बहन का यह भाव प्राचीन काल से हमारे यहां रहा हैं। इस संबंद्ध को लेकर सबसे प्राचीन विमर्श ऋुग्वेद के यम-यमी सुक्त मिलता है। यम और यमी दोनों विवस्वान यानी सूर्य की संतानें है, दोनों जुड़वा भाई-बहन है। यम अपनी बहन को इस संबंध की मर्यादा का बोध कराते हैं। भाई-बहन के बीच परस्पर रक्षा का संबंध भी एकतरफा नहीं है, केवल भाई ही बहन की रक्षा नहीं करता, बहन भी आड़े वक्त में भाई को बचाती है। रक्षाबंधन का पर्व और राखी के धागे इस पारस्परिक रक्ष्य-रक्षक संबंध के प्रतीक हैं। यूं तो नारी, मां, बेटी या पत्नी के विभिन्न रुपों में पुरुषों से जुड़ती है पर उन सब में अपनत्व और अधिकार के साथ-साथ, कहीं न कहीं कुछ पाने की लालसा रहती है। नारी का सबसे सच्चा स्वरुप बहन के रिश्ते में ही प्रकट होता है। मां-बाप भले ही लड़के-लड़कियों में भेद करें पर बहन के मन में ऐसा करने का चाव होता है जिससे भाई के जीवन में खुशहाली रहे। यही वजह है कि भाई-बहन के प्रेम का प्रतीक रक्षाबंधन यानी रक्षा की कामना लिए कच्चे धागों का ऐसा बंधन जो पुरातन काल से इस सृष्टि में रक्षा के आग्रह और संकल्प के साथ बांधा और बंधवाया जाता है। इस दिन बहनें अपने भाइयों की कलाई पर राखी बांधती हैं और उनके लिए मंगल कामना करती हैं। तो वहीं, भाई भी अपनी बहनों को इस पवित्र बंधन के बदले उपहार देने के साथ ही उसकी रक्षा करने का वचन देते हैं। कहा जा सकता है रक्षाबंधन के पर्व का संबंध रक्षा से है।
देखा जाए तो रक्षाबंधन सिर्फ भाई-बहन का त्योहार नहीं है बल्कि ये इंसानियत का पर्व है। यह अनेकता में एकता का पर्व है, जहां जाति और धर्म के भेद-भाव को भूलकर एक इंसान दूसरे इंसान को रक्षा का वचन देता है और रक्षा सूत्र में बंध जाता है। रक्षा सूत्र के विषय में श्रीकृष्ण ने कहा था कि रक्षा सूत्र में अद्भुत शक्ति होती है। रक्षा बंधन भाई-बहन के प्यार का त्योहार है, एक मामूली सा धागा जब भाई की कलाई पर बंधता है, तो भाई भी अपनी बहन की रक्षा के लिए अपनी जान न्योछावर करने को तैयार हो जाता है। बहनों का स्नेह, प्यार और दुलार भाइयों के लिए उनके सुरक्षा कवच का काम करता है। वहीं बहनों का मान-सम्मान भाइयों की प्राथमिकता होती है। आजकल बहनें ज्यादा सजग हो गई हैं। अब वे भाइयों के पीछे नहीं, उनके बचाव में सबके सामने खड़ी होने लगी हैं। शायद इसी सेवा भाव के रिश्ते को नमन करते हुए चिकित्सा परिचर्या में लगी महिलाओं को सिस्टर कहा जाता है। वो लोग बड़े खुशकिस्मत होते हैं जिनके बहनें होती हैं क्योंकि जीवन में यह एक ऐसा पवित्र रिश्ता है जिससे आप बहुत कुछ सिखते हैं। पुरुषों के चारित्रिक विकास में मां-बाप से भी ज्यादा एक बहन का संवाद ज्यादा असर करता है। बहन से संवाद से ना केवल पुरुष के नकारात्मक विचारों में कमी आती है बल्कि उसके अंदर नारी जाति के लिए आदर भ्ज्ञी पनपता है।
रक्षाबंधन पर्व की भारतीय समाज में इतनी व्यापकता और गहराई से समाया हुआ है कि इसका सामाजिक महत्व तो है ही, धर्म, पुराण, इतिहास, साहित्य और फिल्में भी इससे अछूते नहीं हैं। गुरुकुल परंपरा के अंतर्गत शिक्षा पाने वाला युवा जब शिक्षा पूरी करने के पश्चात गुरुकुल से विदा लेता था, तो वह आचार्य का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए उसे रक्षा सूत्र बांधता था, जबकि आचार्य अपने विद्यार्थी को इस कामना के साथ रक्षासूत्र बांधता था कि वह भावी जीवन में अपने ज्ञान कासमुचित ढंग से प्रयोग करे। मौजूदा समय में पूजा आदि के अवसर पर बांधा जाने वाला कलावा भी रक्षा-सूत्र का ही प्रतीक होता है, जिसमें पुरोहित और यजमान एक-दूसरे के सम्मान की रक्षा करने के लिए एक-दूसरे को अपने बंधन में बांधते हैं। रक्षा-बंधन का पर्व हमारे सामाजिक ताने-बाने में इस प्रकार रचा-बसा हुआ है कि विवाह के बाद भी बहनें भाई को राखी अवश्य बांधती हैं, फिर चाहे उनका ससुराल मायके से कितनी ही दूर क्यों न हो। या तो वे भाई के घर इसी विशेष प्रयोजन से स्वयं पहुंचती हैं अथवा भाई उनके घर आ जाते हैं। अगर आना-जाना संभव न हो, तो डाक से राखी अवश्य भेज दी जाती है। आज के दौर में महिलाओं पर जो अत्याचार बढ़ रहे हैं, उसका मूल कारण यही है कि लोग बहन की अहमियत भूलते जा रहे हैं। बेटों का वर्चस्व बढ़ने और बेटियों को उपेक्षित करने से समाज खोखला होता जा रहा है। गौर कीजिए एक समय, बहन जी शब्द में अपार आदर छलकता था और लोग किसी भी बहन के लिए न्योछावर होने के लिए तत्पर रहते थे। आज इन रिश्तों की सामाजिक अहमियत कम होने के कारण ही महिला उत्पीड़न के मामले बढ़ रहे हैं। जबकि सच यह है कि बेटियों में छिपा बहन का प्यार ही स्वस्थ समाज की बुनियाद गढ़ पायेगा।
रक्षाबंधन मनाने की विधि
एक थाली में रोली, चन्दन, अक्षत, दही, रक्षासूत्र और मिठाई रख लें। भाई की आरती के लिए थाली में घी का दीपक भी रखें। पूजा की थाली को सबसे पहले भगवान को समर्पित करें। ध्यान रहे कि भाई पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुंह कर के ही बैठे। पहले भाई को तिलक लगाएं। फिर राखी बांधे और उसके बाद आरती करें। फिर मिठाई खिलाकर भाई की मंगल कामना करें। इस बात का ख्याल रखें कि राखी बांधते समय भाई और बहन दोनों का सिर जरूर ढका हो। इसके बाद माता-पिता और गुरु का आशीर्वाद लें। भाइयों को ध्यान रखना चाहिए कि बहनों को उपहार में काले कपड़े, तीखी या नमकीन चीज ना दें। ऐसा उपहार दें जो दोनों के लिए मंगलकारी हो।
रक्षाबंधन के दिन पूजन से परिवार में खुशहाली
रक्षाबंधन का ये पावन पर्व आपकी कई समस्याओं का समाधान भी बनकर आता है। रक्षाबंधन के दिन विधि-विधान से पूजन करने से मानसिक या शारीरिक समस्याओं का समाधान संभव है। इसके लिए सबसे पहले सफेद वस्त्र धारण करके पूजा के स्थान पर बैठें। अपनी गोद में पानी वाला एक हरा नारियल रखें। इसके बाद ओउम सोम सोमाय नमः का जाप करें। फिर नारियल को बहते हुए जल में प्रवाहित कर दें। जिन्हें नजदीकी रिश्तों में समस्या आ रही हो, वे रक्षाबंधन की शाम को चावल, दूध और चीनी की खीर बना कर शिव जी को अर्पित कर दें। इसके बाद सफेद फूल डालकर चन्द्रमा को अघ्र्य दें। खीर को प्रसाद की तरह समस्त परिवार के लोगों को दें और खुद भी ग्रहण करें। राखी बांधते समय बहनें अगर इन मंत्र का उच्चारण करती है तो भाईयों की आयु में वृ्द्धि होती है। जो इस प्रकार है, “येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबलःद्व तेन त्वांमनुबध्नामि, रक्षे मा चल मा चल।।
बेहद अशुभ संयोग में मनेगा रक्षाबंधन
भाई-बहनों के स्नेह का पर्व रक्षाबंधन 7 अगस्त है। इस दिन चंद्रग्रहण भी होगा। ऐसा संयोग 12 साल बाद बन रहा है। यानी भद्रा नक्षत्र का योग बन रहा है। इस दौरान कोई भी शुभ कार्य करना अच्छा नहीं माना जाता है। खास बात यह है कि इस दिन एक साथ रक्षा बंधन, चंद्रग्रहण और सावन माह के आखरी सोमवार का भी संयोग पड़ रहा है। सात अगस्त को श्रावण मास का आखिरी सोमवार भी है और रक्षाबंधन भी। ज्योतिष गणित के अनुसार सुबह 11.04 बजे तक भद्रा है। इसके बाद दोपहर 1.29 बजे से चंद्रग्रहण का सूतक लग जाएगा। इस बीच 11.05 से लेकर दोपहर 1.28 तक यानि ढाई घंटे तक ही राखी बांधी जाएगी। भद्रा और सूतक के दौरान रक्षाबंधन नहीं मनाया जा सकता है। यह अशुभ होता है। हांलाकि चंद्रग्रहण रात 10.53 बजे से शुरू होगा जो मोक्षकाल देर रात 12.48 बजे तक रहेगा। लेकिन इसका सूतक 9 घंटे पहले ही लग जाएगा। रक्षाबंधन के दिन सूतक दोपहर 1.53 बजे से शुरू हो जाएगा। सूतक व भद्रा काल में सभी प्रकार के शुभ कार्य वर्जित रहते हैं। इस वजह से पर्व भी प्रभावित होगा। बहनें अपने भाइयों को राखी भद्रा की समाप्ति और सूतक लगने से पहले मिलने वाले शुभ मुहूर्त में बांध सकती हैं। ऐसे में वे सुबह 11.05 बजे से लेकर दोपहर 1.53 तक ही राखी बांध सकेंगी। ग्रहण की अवधि 1 घंटा 55 मिनट रहेगी। चंद्रग्रहण पूर्ण न होकर खंडग्रास होगा और संपूर्ण भारत में दिखेगा। इस वजह से सभी जगह ग्रहण का प्रभाव रहेगा। सूतक लगने पर शुभ कार्य के साथ ही मंदिर में स्थापित भगवान के विग्रह का स्पर्श नहीं करना चाहिए। भोजन करना भी वर्जित माना गया है। ग्रहण के मोक्षकाल के बाद पवित्र सरोवर में स्नान कर दान-पुण्य करना चाहिए। वर्ष 1990 में श्रावण पूर्णिमा को चंद्र ग्रहण था। पूर्णिमा तिथि, सोमवार एवं श्रावण नक्षत्र इस बार की तरह ही तब भी थे। इसका सभी राशियों पर अलग-अलग प्रभाव पड़ेगा। श्रावण माह की पूर्णिमा को श्रावणी उपाक्रम किया जाता है। लेकिन इस वर्ष ग्रहण होने से उपाक्रम श्रावण शुक्ल पंचमी तिथि या हस्त नक्षत्र युता पंचमी में करना चाहिए जो कि 28 जुलाई को है। ग्रहण या संक्रांति से युक्त दिन में उपाक्रम नहीं करते।
पहले और अब में फर्क
पुराने जमाने में जब स्त्री और पुरुष की भूमिकाएं बिल्कुल बंटी हुई थीं तब यह रस्म पैदा हुई होगी कि बहन भाई की कलाई पर धागा बांधें और उससे अपनी रक्षा का वचन मांगे। मगर अब स्त्री-पुरुष की भूमिकाओं में पुराने तरह का विभाजन नहीं है। यदि बहन पर आफत पड़ने पर भाई उसकी रक्षा कर सकता है तो भाई पर मुसीबत आने पर बहन भी उसकी सहायता और रक्षा कर सकती है। आज ऐसी कई बहनें हैं जिन्होंने जरूरत पड़ने पर भाई को अपनी किडनी या अन्य अंग देकर जीवनदान किया है। स्वयं के पैरों पर खड़ी ऐसी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बहनें भी हैं जिन्होंने भाइयों को आर्थिक कठिनाइयों से उबारा है। अपने प्रिय भाई को दीदियां अपने हिस्से की चॉकलेट देती आई हैं तो भाई का अपराध अपने सिर लेकर उन्हें बचपन में मां-बाप की डांट से बचाती भी आई हैं। बड़ा भाई छोटी बहन के सिर पर हाथ रखता है तो बहन भी तो ऐसा निःस्वार्थ प्रेम करना जानती है, जिससे मुकाबला सिर्फ मां का प्यार ही कर सकता है। अतः राखी को हम रक्षा-सूत्र के बजाए मोह का धागा भी कह सकते हैं। और यह रेशमी सूत्र भाई और बहन के बीच ही नहीं, बहनों-बहनों और भाईयों-भाईयों के बीच यह अद्दश्य धागा है। सच कहें तो जिस भी रिश्ते में अपनत्व भरा जुड़ाव है, मोह का यह धागा होता ही है।
छह जार साल पुराना है रक्षा बंधन का इतिहास!
1947 के भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में जन जागरण के लिए भी इस पर्व का सहारा लिया गया। रवींद्रनाथ टैगोर ने बंग-भंग का विरोध करते समय रक्षाबंधन त्योहार को बंगाल निवासियों के पारस्परिक भाईचारे तथा एकता का प्रतीक बनाकर इस त्योहार का राजनीतिक उपयोग आरंभ किया। 1905 में उनकी प्रसिद्ध कविता मातृभूमि वंदना का प्रकाशन हुआ, जिसमें उन्होंने इस पर्व का उल्लेख किया है। शास्त्रों के अनुसार रक्षिका को आज के आधुनिक समय में राखी के नाम से जाना जाता है। रक्षाबंधन के संदर्भ में भी कहा जाता है कि अगर इस पर्व का धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व नहीं होता तो शायद यह पर्व अब तक अस्तित्व में रहता ही नहीं। हिन्दू धर्म में प्रत्येक पूजा कार्य में हाथ में कलावा ( धागा ) बांधने का विधान है। यह धागा व्यक्ति के उपनयन संस्कार से लेकर उसके अन्तिम संस्कार तक सभी संस्करों में बांधा जाता है। राखी का धागा भावनात्मक एकता का प्रतीक है। स्नेह व विश्वास की डोर है। धागे से संपादित होने वाले संस्कारों में उपनयन संस्कार, विवाह और रक्षा बंधन प्रमुख है। भविष्य पुराण के अनुसार, जब देव-दानव के युद्ध में दानव हावी होने लगे, तो भगवान इंद्र घबराकर गुरु बृहस्पति के पास गए। वहां बैठी इंद्र की पत्नी इंद्राणी सब सुन रही थीं। उन्होंने रेशम का धागा मंत्रों की शक्ति से पवित्र करके अपने पति के हाथ पर बांध दिया। वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। लोगों का विश्वास है कि इंद्र इस लड़ाई में इसी धागे की मंत्र शक्ति से विजयी हुए थे। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन यह धागा बांधने की प्रथा चली आ रही है। यह धागा धन, शक्ति, हर्ष और विजय देने में पूरी तरह समर्थ माना जाता है। इस त्योहार से कई ऐतिहासिक प्रसंग जुड़े हैं। राजपूत जब लड़ाई पर जाते थे तब महिलाएं उनको माथे पर कुमकुम तिलक लगाने के साथ-साथ हाथ में रेशमी धागा बांधती थी। यह विश्वास था कि यह धागा उन्हें विजयश्री के साथ वापस ले आएगा। मेवाड़ की रानी कर्मावती को बहादुरशाह द्वारा मेवाड़ पर आक्रमण करने की सूचना मिली। रानी उस समय लड़ने में असमर्थ थी अतः उन्होंने मुगल बादशाह हुमायूं को राखी भेज कर रक्षा की याचना की। हुमायूं ने मुसलमान होते हुए भी राखी की लाज रखी और मेवाड़ पहुंच कर बहादुरशाह के विरुद्ध मेवाड़ की ओर से लड़ाई लड़ी। हुमायूं ने कर्मावती व उनके राज्य की रक्षा की। एक अन्य प्रसंग में कहा जाता है कि सिकंदर की पत्नी ने अपने पति के हिंदू शत्रु पोरस (पुरू) को राखी बांधकर अपना मुंहबोला भाई बनाया और युद्ध के समय सिकंदर को न मारने का वचन ले लिया। पोरस ने युद्ध के दौरान हाथ में बंधी राखी और अपनी बहन को दिए हुए वचन का सम्मान किया और सिकंदर पर प्राण घातक प्रहार नहीं किया। रक्षाबंधन की कथा महाभारत से भी जुड़ती है। जब युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा कि मैं सभी संकटों को कैसे पार कर सकता हूं, तब भगवान कृष्ण ने उनकी तथा उनकी सेना की रक्षा के लिए राखी का त्योहार मनाने की सलाह दी थी। कृष्ण और द्रौपदी से संबंधित वृत्तांत में कहा गया है कि जब श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया था तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई। द्रौपदी ने उस समय अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उंगली पर पट्टी बांध दी थी। यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। कृष्ण ने इस उपकार का बदला बाद में चीरहरण के समय उनकी साड़ी को बढ़ाकर चुकाया था।
(सुरेश गांधी)
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