दरभंगा 27 जनवरी, मिथिला में विद्वानों के बीच शास्त्रार्थ की परंपरा रही है। इतिहास के पन्नों को देखें तो मिथिलांचल की पावन धरती पर जगह-जगह शास्त्रार्थ हुआ करता था और इस दौरान उस जगह पर मेला सा नजारा होता था। फिर धीरे-धीरे यह परम्परा पीछे छूटती चली गयी। अब मिथिला की धरती पर एक बार फिर से शास्त्रार्थ की परम्परा को पुनर्जीवित करने का प्रयास देश की प्रतिष्ठित संस्कृत विश्वविद्यालयों में शुमार कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय ने किया है। वसंत पंचमी के दिन मां शारदे को साक्षी मानते हुए विश्वविद्यालय के स्थापना दिवस पर पांच दिवसीय शास्त्रार्थ का आयोजन किया गया जिसमें देश के कई जाने-माने विद्वानों ने शिरकत की। मिथिलांचल में शास्त्रार्थ परम्परा का इतिहास रहा है। पूरे मिथिलांचल में मण्डन मिश्र एवं उनकी विदूषी पत्नी भारती के साथ शंकराचार्य के बीच हुए शास्त्रार्थ का प्रसंग आज भी चर्चित है। पांच दिवसीय शास्त्रार्थ में मिथिलांचलवासियों को एक बार फिर विदुषी भारती और शंकराचार्य के बीच हुए शास्त्रार्थ का प्रतीकात्मक रूप देखने को मिला। कुलपति प्रो. सर्व नारायण झा का कहना है कि विलुप्त हो चुके शास्त्रार्थ को फिर से शुरू करने की उनकी मंशा केवल इतनी है कि संस्कृत यानी देव वाणी का प्रचार प्रसार नए सन्दर्भों में भी हो। उन्होंने कहा, “मिथिला में पक्षियों द्वारा संस्कृत में बातें करने का साक्ष्य है तो फिर हमसभी इससे प्रेरणा लेकर आगे क्यों नहीं बढ़ें। उसी विद्वत परम्परा को हम फिर से शुरू करना चाहते हैं।”
प्रो. झा ने कहा कि यह जानकर सुखद आश्चर्य होगा कि नारी शिक्षा को लेकर सरकार की ओर से आज जो भी प्रयास किए जा रहे हैं वे सराहनीय है लेकिन मिथिला के आदिकाल को यदि अवलोकित किया जाये तो इस बात से सभी भलीभांति परिचित हैं कि मण्डन मिश्र की विदुषी पत्नी भारती से शंकराचार्य को शास्त्रार्थ में पराजित होना पड़ा था। कुलपति ने कहा कि जब शंकराचार्य शास्त्रार्थ के लिए मिथिला में मण्डन मिश्र का निवास स्थान खोज रहे थे तो उनके द्वारा पता पूछने पर गांव की पानी भर रही महिलाओं ने संस्कृत में ही श्लोक के माध्यम से उन्हें मण्डन मिश्र के घर का पता बताया था। करीब छह दशकों बाद आयोजित पांच दिवसीय शास्त्रार्थ कार्यक्रम का आज भले ही समापन हो जायेगा लेकिन कार्यक्रम ने मिथिलांचलवासियों को अपनी स्वर्णिम परम्परा को जानने का मौका जरूर दिया है।
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