300 टुकड़ों की फिल्मी कहानी. - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शनिवार, 30 जुलाई 2011

300 टुकड़ों की फिल्मी कहानी.


2008 की 7 मई को की गई टेलीविज़न प्रोडक्शन हाऊस से जुड़े नीरज ग्रोवर की सनसनीखेज हत्या के मामले में मुम्बई की सेशन कोर्ट ने कन्नड फिल्मों की तथाकथित अभिनेत्री मारिया सुसैराज को सबूत मिटाने का दोषी पाया, जबकि उसके प्रेमी एमिल जैरोम को गैर इरादतन हत्या और सबूत मिटाने का दोषी पाया गया। एमिल को 10 वर्ष और मारिया को 3 साल की सजा सुनाई गई। इतना बर्बर गुनाह और सजा ऐसी की सारा समाज सन्नाटे में है, जबकि इसका दोष सारी जनता न्यायालय पर मढ़ रही है। पुलिसिया कार्यवाही और उसके द्वारा अदालत में पेश किये गये कमजोर सबूतों पर किसी का भी ध्यान नहीं जा रहा।
निठारी काण्ड, आरुषि हत्याकाण्ड, जेसिका लाल मर्डर केस और प्रियदर्शिनी मुट्टू हत्याकाण्ड में क्या उचित न्याय हुआ कहा जा सकता है ? जब प्रियदर्शिनी मुट्टू काण्ड के हत्यारे को रिहाई दी गई थी तो जज ने कहा था कि मैं जानता हूँ कि वह हत्या का दोषी है, लेकिन मैं इसे फांसी नहीं दे सकता क्योंकि पुलिस कानूनी तौर पर इसे साबित करने में विफल रही है। आरुषि काण्ड में तो सीबीआई ने अदालत में साफ तौर पर कह दिया कि सबूत नष्ट कर दिये गय है , या फिर लिए ही नहीं गए और असली अपराधी को इतनी छूट दे दी गई कि वह एक-एक करके समस्त सबूतों को आसानी से नष्ट कर दे। हम सभी जानते हैं कि कानून अन्धा होता है, लेकिन यहॉं तो कानून को जानबूझकर अन्धा बनाया जा रहा है।
अदालत मौकये वारदात पर होते हुए भी ऑंखों देखा हाल केस में दर्ज नहीं कर सकती क्योंकि ऐसा करने के लिए उसे विटनेस बॉक्स में आना पड़ेगा और तब वह मुकदमे की सुनवाई नहीं कर सकती, क्यूंकि वह भी एक पक्ष में गिनी जायेगी। इतना सब जानते हुए भी अदालत को साक्ष्य पर ही भरोसा करना पड़ता है। साक्ष्य जुटाने का कार्य विवेचक ऐजेन्सी का होता है। विवेचक ऐजेन्सियों की कैसी विश्वसनीयता रह गई है, यह किसी से छिपा नहीं है।किसी भी प्रकार के आपराधिक षडयन्त्र की कहानी पुलिस की विवेचना पर ही टिकी होती है। स्थानीय पुलिस जातिवाद, राजनीतिक/प्रभावशाली लोगों के प्रभाव में आकर भी सही विवेचना नहीं करती है। आवश्यक साक्ष्य एकत्र ही नहीं करती तो न्याय कैसे हो सकता है। अपने ऊपर के अधिकारियों और राजनेताओं के चंगुल में पुलिस का चरित्र रक्षक के बजाय भक्षक की श्रेणी में पहुंच गया है।
पुलिस की ही कहानी है कि नीरज ग्रोवर के शव के 300 टुकड़े करके उसे जला दिया गया। शव को ठिकाने लगाने के लिए दोषियों ने शापिंग माल जाकर बड़ा सा चाकू भी खरीदा। चूँकि पुलिस ने ऐसा कोई साक्ष्य अदालत के समक्ष पेश ही नहीं किया जिससे यह सिद्ध होता हो कि ग्रोवर की हत्या पूर्व नियोजित साजिश थी। इसी कारण सेशन कोर्ट को यह मानना पड़ा कि एमिल जैरोम ने परिस्थितियों से उत्तेजित हो और जज्बात में बहकर सब्जी काटने वाले चाकू से नीरज ग्रोवर की हत्या कर दी। अदालत ने स्पष्ट कहा है कि हत्या सोची-समझी साजिश के तहत की गई है ऐसा साबित तो नहीं होता। अदालत ने इस बात को भी नहीं स्वीकारा कि मारिया पांच दिन पहले मुम्बई आती है और प्रोडक्शन हाऊस से जुड़े नीरज ग्रोवर से काम मांगती है एवं पांच दिन के अन्दर ही वह नीरज ग्रोवर से हताश हो जाती है तथा उसकी हत्या की साजिश रच देती है। अभियोजन पक्ष ने केस तैयार करने में जानबूझकर चूक की, इसीलिए अदालत के पास 302 की धारा को हटाने के अलावा अन्य कोई विकल्प शेष नहीं रह गया था।
ग्रोवर हत्याकाण्ड ऐसा पहला मामला नहीं है जिसमें अभियोजन पक्ष ने कमजोर आरोप पत्र प्रस्तुत किये हों। दिल्ली में हिरासत में मौत के कारण एक पुलिसकर्मी पर हत्या का आरोप लगाया गया लेकिन मुकदमें के दौरान उसे गैर इरादतन हत्या का दोषी करार देना पड़ा एवं उसे हत्या के आरोप से बरी भी करना पड़ा। दिल्ली के ही हाई- प्रोफाइल मामले में पूर्व नौसेना अध्यक्ष के पौत्र संजीव नन्दा की सजा हाईकोर्ट ने पांच साल से घटाकर दो साल कर दी थी।
अदालत साक्ष्य जुटाने का काम नहीं करती है बल्कि पेश किये गये साक्ष्यों पर ही अपना फैसला सुनाती है। साक्ष्य जुटाने में गड़बड़ी करना पुलिस की आदत बन गई है। बाकी रह गई बहस की बात तो वकीलगणों की कार्यपद्वति भी सन्देह के घेरे में है, फिर चाहे वह अभियोजन पक्ष का वकील हो अथवा बचाव पक्ष का। सब्जी काटने वाले चाकू की क्या परिभाषा है और सब्जी काटने वाला चाकू कितना पैना होता है, इसे 99 प्रतिशत भारतीय जनता जानती है कि उससे ठीक से सब्जी ही कट जाये बहुत है, शरीर के 300 टुकड़े कैसे किये जा सकते हैं ? पुलिस की जांच में तथ्यों एवं साक्ष्यों को छिपाया गया है तथा माननीय जज साहब ने भी न्याय देने में अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं किया है। क से कबूतर ही सीखा और पढ़ा है एवं क से कबूतर के अलावा कुछ भी नहीं देखा। उन्होंने यह जॉंचने की कोशिश ही नहीं की कि क से क्रूरतम कत्ल हुआ है, और अपराधी को सजा एवं पीड़ित को न्याय देना उनका कर्तव्य है।
न्यायालय के फैसले पर ज्यादा टिप्पणी करना न्यायालय की अवमानना हो जाती है और इसमें पुलिस से साक्ष्य मांगने की भी जहमत नहीं कराई जाती। इसपर तो अदालत स्वंय ही सज्ञान ले लेती है, इसीलिए ज्यादा कुछ न लिखना ही श्रेयष्कर है। नीरज ग्रोवर हत्याकाण्ड की जड़ तो वैसे मारिया सुसैराज ही है, जिसने प्रेम एमिल जैरोम से किया और अपने को फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित करने के लिए नीरज ग्रोवर को अपने प्यार के जाल में फंसाकर परलोक तक पहुंचवाया। पता नहीं क्यों सारा मीडिया मारिया को फिल्म अभिनेत्री लिखता है। कन्नड और तेलुगू फिल्मों में काम करने वाली ज्यादातर लड़कियां ब्लू फिल्मों से ही पायदान चढ़ती हैं। इनमें से जिसने इसे सहर्ष स्वीकार करते हुए अपने बदन को चमड़े के सिक्के की तरह इस्तेमाल होने दिया और मुकद्दर ने साथ दिया तो वह कहॉं पहुंच जाती हैं आप अन्दाजा भी नहीं लगा सकते। मर्लिन मुनरो का नाम सुना हो तो बताइये कौन सी हीरोइन उसके समकक्ष थी ? जहॉं सारी सत्ता हमबिस्तर होती थी, क्या पक्ष क्या विपक्ष, उस हीरोइन का नाम था मर्लिन मुनरो।
अपने बालीवुड की बिपाशा बसु को ही ले लीजिए। अमर सिंह और उसके बीच की बातचीत को ही आप सुनलें तो शर्मसार हो जायेंगे। तब आप जान पायेंगे कि हीरोइन क्या होती है और एक हीरोइन बनती है तो वह अपने पीछे कितनी हीरोइन को गन्दे नाले में छोड़कर आ रही होती है। मारिया जैसी हीरोइन की ही रामगोपाल वर्मा जैसे निर्माता-निर्देशकों को आवश्यकता होती है, इसीलिए उन्होंने बिना वक्त गवांये तुरन्त मारिया को ऑफर भी दे दिया। जो अदना सा व्यक्ति अमिताभ बच्चन को गाली दे रहा है, उसका कृत्य कैसा है,यह आसानी से समझा जा सकता है ? अभी कुछ साल पहले तक रामगोपाल वर्मा मारे-मारे घूमते थे, मुम्बई में उनकी हैसियत कौड़ी की तीन थी, लेकिन मुकद्दर ने साथ क्या दिया मुकद्दर के सिकन्दर को ही गाली बकने लगे।
दरअसल रामगोपाल वर्मा ने साजिशन मारिया को न्यौता दिया है। वह जानते हैं कि मारिया की स्टोरी उससे ही पूछने के बाद उसे वे आसानी से अपनी अंगुलियों पर नचा सकते हैं। शिखर पर पहुंचने की चाहत में मारिया ने क्या नहीं कर डाला तब फिर वर्मा जी उसके साथ क्या नहीं कर सकते हैं। उसके प्रेमी एमिल जैरोम को तो अभी कम से कम सात साल तक जेल में ही रहना है। सात साल रामगोपाल वर्मा के लिए पर्याप्त हैं। कुल मिलाकर इस सारे मामले में पुलिस ही असली कसूरवार है। पुलिस चाहे महाराष्ट्र की हो अथवा उत्तर प्रदेश की उसका चरित्र पूरे हिन्दुस्तान में एक सा है।
यह बात अलग है कि उ0प्र0 पुलिस की बागडोर प्रदेश में पुलिस महानिदेशक कर्मवीर सिंह के रहते हुए विशेष पुलिस महानिदेशक ब्रजलाल के हांथ में है। प्रदेश की राजधानी लखनऊ में ही आईबीएन-7 के पत्रकार शलभमणि त्रिपाठी के साथ कैसा सलूक किया गया, सबकी आंखों के सामने है। पीलीभीत में भी खबरों से परेशान वहां के एस.पी. ने एक फोटो-पत्रकार साकेत कुमार को आई.टी.एक्ट में फर्जी फंसा दिया। शिकायत कर्ता की शिकायत में दिये गये मोबाइल नं0 की जांच करने के बजाय पत्रकार को ही झूठा फंसा दिया।
विशेष पुलिस महानिदेशक ब्रजलाल से जब प्रदेश स्तर की अन्यत्र किसी ऐजेन्सी से जांच कराने की बात की गई तो वह पीलीभीत के एस.पी.की ही प्रशंसा करने लगे और बोले कि एस.पी. ठीक से काम कर रहा है और मामला बिल्कुल सही है। इतने बड़े पद पर बैठा अधिकारी जिलों में तैनात अधिकारियों का ठेका कैसे ले रहा है, आखिर कोई तो वजह होगी ? सुश्री मायावती का शासन प्रदेश पुलिस की ऐसी ही कार्यपद्वति पर चलता रहा तो कानून व्यवस्था की स्थिति चिंताजनक बने रहना लाजिमी है। पुलिस अपना खौफ अपराधियों पर बनायेगी तभी प्रदेश में अमन चैन कायम रहेगा।
इसी लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार हेमन्त तिवारी के साथ भी पुलिस ने खौफनाक अन्दाज में हरकत की थी। दैनिक जागरण के कानपुर स्थित प्रबन्धतंत्र की महिलाओं के साथ पुलिस ने कैसा सलूक किया यह अभी छिपा हुआ है, क्योंकि प्रबन्धतंत्र ने उसे बाहर नहीं आने दिया। सुश्री मायावती एवं उनकी मशीनरी से आग्रह है कि वे अपराध को नियन्त्रित करना चाहती है तो पुलिस को नियन्त्रण में करें। यदि आप पुलिस को ठीक कर लेंगे तो अपराध अपने आप कम हो जायेंगे। बड़े पुलिस अधिकारियों को अपनी व्हिम्स पर कार्य नहीं करना चाहिए। केवल कुछ लोगों को खुश करके बाकी जनता के साथ ज्यादती करना अच्छे शासन के संकेत नहीं देता है।
उ0प्र0 के काबीना सचिव कैप्टन शशांक शेखर सिंह को देखना चाहिए कि न्याय पाना मानव का मूलभूत नैसर्गिक अधिकार है और न्याय देना शासन का कर्तव्य। यह आम नागरिक के द्वारा मांगी जाने वाली कृपा या भीख नहीं है, जैसा विशेष पुलिस महानिदेशक समझते हैं। सभ्यता और शिष्टता न्यायविहीन समाज में जीवित नहीं रह सकते। संविधान में देश के प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय दिलाने का वादा किया गया है। न्याय की इसी विषद परिकल्पना को मूर्तरुप देना शासन का कर्तव्य है। अब वक्त आ गया है कि प्रदेश के काबीना सचिव, विशेष पुलिस महानिदेशक को समझा दें कि जनता के लिए कार्य करें ना कि पुलिस कप्तानों के लिए।


सतीश प्रधान
(satishpradhan@hotmail.co.in)

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