यह मानसिक रोग लाता है गंभीर बीमारियाँ
वो जमाना बीत गया जब लोग बिना बताए अपने काम-काज को पूरी तन्मयता और बेहतरी के साथ पूरा कर देते थे और कभी श्रेय पाने का नाम तक नहीं लेते। जो हुआ वो हमारा कर्त्तव्य था, यही सोचकर हमारे पुरखे अपने रोजमर्रा के काम हों या समाज और क्षेत्र के, अच्छी तरह पूरे करते थे। भरपूर मेहनत करने के बावजूद न कभी थकते न उफ करते। हराम की कमाई उन्हें कभी रास नहीं आयी। जो पाना है उसे अपनी मेहनत से पाना है, यही उनका मूलमंत्र था और यही कारण था कि उनमें शारीरिक सौष्ठव और प्रसन्नता हमेशा बनी रहती।
अब कोई काम करना नहीं चाहता। लोग चाहते हैं बिना मेहनत के उनके भण्डार भरे रहें, बैंक बैलेन्स और लॉकर भरपूर रहें, विलासिता के सारे साजों-सामान उनके घर की शोभा बढ़ाएं और दुनिया का वह सारा ऐश्वर्य उनकी मुट्ठी में कैद हो, जिसके लिए कोई मेहनत नहीं करनी पड़े। जो लोग सरकारी बाड़ों हैं वे भी, और वे भी जो इन स्थायी चुग्गाघरांे के बाहर हैं। गलती से इस युग में पैदा हो गए ईमानदार और मेहनती लोगों को छोड़कर सारे चाहते हैं कि बिना कुछ किए-धरे बँधी-बँधायी रकम जमा होती रहे और ड्यूटी में भी मेहनत व काम उसी के लिए करें जो एडीशनल मिलने वाली है।
नाते-रिश्ते, समाज, धरम-करम और मानवीय संवेदनशीलताओं को खँटी पर टाँगे बैठे इन लोगों को सपने में भी हराम की कमाई दिखती है और दिखते हैं वे तमाम रास्ते, जो मुफतिया टकसालों तक पहुंचते हैं। इन लोगों की एक किस्म और भी मजेदार है। ये वे ही काम करते हैं जिनमें माल-ताल दोनों की संगत हो। जलेबियाँ, रसगुल्ले और गुलाबजामुन दिखेंगे तो मजे से काम करेंगे और चाशनी तक न बची हो तो फिर बहाने बनाते फिरते हैं। माहिर इतने कि सारी दुनिया के बजट का सफाया करना इनके लिए बाँये हाथ का खेल है। इनकी पूरी जिन्दगी ही गुजर जाती है हर कहीं खुरचन तलाशते-तलाशते। हर कहीं के उच्छिष्ट से खुश रहते हैं। हरामखोरी की ऐसी जबर्दस्त विषबेल अपने यहाँ घुस आयी है जिसके सामने नैतिक और सामाजिक मूल्य, राष्ट्रीय चरित्र आदि सब कुछ गौण ही हो चले हैं।
बहुत बड़ी तादाद ऐसे महापुरुषों की है जिनके जीवन का एकमात्र ध्येय सारी दुनिया का माल हजम कर जाना ही रहा है। फिर चाहे वो सरकारी खजाना हो या गैर सरकारी। सरकारी बाड़ों में इस किस्म के लोगों की भरमार है। तो दूसरे क्षेत्रों में भी इस गोत्र के लोगों की कोई कमी नहीं है। हाल के वर्षों में एक नई किस्म उभर कर सामने आयी है। चाहे कहीं भी रहें, इन लोगों को वही काम रास आते हैं जिनमें मलाई हो। मलाई दिखे तो ये हृष्ट-पुष्ट दिखते हैं और न मिलने की स्थितियों में मरियल टट्टू से भी ज्यादा बीमार दिखते हैं।
इनका मुख और मुद्राएं तथा शरीर इतना अभ्यस्त हो जाता है कि ये वे सारे अभिनय कर लेते हैं जिनसे गंभीर बीमार होने का परिचय मिलता है। यह कृत्रिम बीमारी का नाटक ही है जिसके कारण ऐसे लोग अपने कार्यस्थलों पर कभी टाईम पर नहीं आते, सीट पर नहीं मिलते। इनका आना क्या और जाना क्या। जब मर्जी हो आएंगे, कुछ देर बतिया कर गायब हो जाएंगे। बतरस के तो इतने आदी कि फिजूल की चर्चाओं में घण्टों रमे रहेंगे, काम की बात करो तो बीमार हो जाएं।
इनके पास बीमार होने का बेमिसाल बहाना होता है, फिर बीमार होने के इनके अभिनय का तो कोई जवाब ही नहीं, नख से लेकर शिख तक ऐसी
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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