नदी जल बंटवारे का हो हल - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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गुरुवार, 27 सितंबर 2012

नदी जल बंटवारे का हो हल


दक्षिण की गंगा कही जाने वाली कावेरी नदी के जल बंटवारे को लेकर एक बार फिर से दो पड़ोसी राज्यों-कर्नाटक व तमिलनाडु के बीच तलवारें खिंच चुकी हैं। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में नौ साल के लंबे अंतराल के बाद हुई कावेरी नदी प्राधिकरण की बैठक में भी दोनों राज्य प्रधानमंत्री के सुझाए गए हल से सहमत नहीं हुए। अब कर्नाटक ने प्रधानमंत्री से अपने निर्देश पर पुनर्निवार की अपील की है तो तमिलनाडु फिर से शीर्ष न्यायालय का दरवाजा खटखटाने की तैयारी कर रहा है। 

दअरसल, अंतरराजीय नदियों के जल बंटवारे से जुड़ा विवाद सदियों पुराना है। जब कभी मानसूनी बारिश कम होने के कारण सूखे की स्थिति उत्पन्न होती है तो नदी के उद्‌गम स्थल वाले और उसके बहाव क्षेत्र में आने वाले राज्यों के बीच पानी की हिस्सेदारी को लेकर विवाद शुरू हो जाता है। चाहे मामला कावेरी नदी के पानी को लेकर कर्नाटक व तमिलनाडु के बीच विवाद का हो अथवा पंजाब-हरियाणा व राजस्थान या फिर राजस्थान-मध्यप्रदेश अथवा बिहार-उत्तर प्रदेश के बीच नदी जल बंटवारे का विवाद, इन सबका कारण एक ही है कम बारिश के समय जल प्रबंधन और समानुपातिक वितरण व्यवस्था का अभाव है।

देश की १८ प्रमुख नदियों में से १७ नदियां अंतरराज्यीय हैं और इससे ही नदी जल बंटवारे को लेकर होने वाले विवाद का अंदाजा लगाया जा सकता है। उत्तरी राज्यों की अपेक्षा दक्षिणी राज्यों में पानी के बंटवारे को लेकर राजनीति ज्यादा होती है। जहां उत्तरी राज्यों की उत्पति हिमनद जैसे स्त्रोत से होती है और उनकी लंबाई काफी अधिक है वहीं दक्षिणी राज्यों की नदियां न सिर्फ बारिश पर आधारित हैं बल्कि इनकी लंबाई भी अपेक्षाकृत कम है। 
चूंकि नदी जल बंटवारा का मामला दो या अधिक राज्यों से जुड़ा होता है, इसलिए इसमें केंद्र सरकार की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। केंद्र का फैसला चाहे जो भी उसकी व्याख्या संबंधित राज्यों में राजनीति नफा-नुकसान के आधार पर ही होती है। कावेरी के मामले में इस बार भी ऐसा ही हो रहा है। जहां कर्नाटक में सत्ता पक्ष और विपक्ष तमिलनाडु को पानी देने को लेकर एकजुट है वहीं तमिलनाडु में सत्तारूढ़ दल और मुख्य विपक्षी पार्टी  की राय अलग-अलग है। कर्नाटक में इस संवेदनशील मुद्दे पर एकजुटता कारण अगले साल होने वाला विधानसभा चुनाव भी एक कारण है।

वैसे पानी हमारे संविधान में राज्यों के क्षेत्राधिकार में आता है। इसी आधार पर नदियों के उद्‌गम वाले राज्य नदी के जल को अपनी संपदा मान बैठते हैं जिसके कारण जल बंटवारे की समस्या काफी गहरा जाती है। परन्तु अब वह वक्त आ गया है कि एक से अधिक राज्यों से बहने वाली नदियों को राष्ट्रीय संपदा घोषित कर राज्यों के बीच पानी के बंटवारे के लिए नीति बनाई जाए। जल संसाधन मंत्रालय से जुड़ी संसदीय सलाहकार समिति ने हाल ही में ऐसा सुझाव भी दिया है। समिति का मानना है कि पानी राष्ट्रीय संपदा है, इस पर राज्यों का एकाधिकार नहीं माना जा सकता। इस सिफारिश के विरोधियों का तर्क है कि संविधान ने भले पानी को समवर्ती सूची में न रखा हो, मगर दो या अधिक राज्यों से गुजरने वाली नदियों के नियमन और विकास को लेकर केंद्र अगर नियम-कायदे बनाना चाहता है या संबंधित राज्यों के बीच जल बंटवारे के विवाद की सूरत में दखल देना चाहता है तो इसमें कोई संवैधानिक अड़चन कभी नहीं रही है। संघीय सूची में जहां पानी का मसला आया है वहां ऐसे अधिकार केंद्र को दिए गए हैं। इन्हीं के बल पर सतलुज, नर्मदा, कावेरी आदि से जुड़े विवादों के मद्देनजर केंद्र ने समय-समय पर समझौते की कोशिशें की हैं। लेकिन यह भी सच है कि पानी के समवर्ती सूची में नहीं होने के कारण ही अंतरराज्यीय नदियों के जलबंटवारे पर कोई राष्ट्रीय नीति नहीं बन पाई है।

अब सवाल है कि अंतरराज्यीय नदियों के जल बंटवारा विवाद का हल कैसे हो। इसका एक हल हो सकता है नदियों को जोड़ना। प्रसिद्ध समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया ने सबसे पहले नदियों को आपस में जोड़ने की बात कही थी। इसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने २००२ में भयंकर सूखे की स्थिति को देखते नदियों को जोड़ने की योजना बनाई थी लेकिन मामला शीर्ष अदालत में पहुंच गया। एक दशक बाद इसी साल सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस प्रस्ताव को हरी झंडी दी है लेकिन इसके राह में रोड़े भी कम नहीं हैं। नदियों को जोड़ने की बात आसान लग सकती है, किन्तु मैदान में इस परियोजना को उतारना बेहद जटिल, दुष्कर और जोखिम भरा काम है। पर्यावरणीय और भौगोलिक संतुलन के बिगड़ने जैसे हालात तो पैदा होंगे ही, राज्यों में परस्पर टकराव के साथ कई देशों से भी मतभेद उत्पन्न होंगे। चीन से ब्रह्मपुत्र नदी के जल को लेकर विवाद पहले से ही बना हुआ है। बांग्लादेश, पाकिस्तान और नेपाल से भी तालमेल बिठाना आसान नहीं होगा। बड़े पैमाने पर स्थानीय लोगों के विस्थापन और पुनर्वास का संकट भी झेलना होगा। हालांकि नदियां जुड़ जाती हैं तो बाढ़ की विनाश लीला से निजात मिलने के साथ ही वर्ष २०५० तक १६   करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि में सिंचाई भी होने लगेगी। जबकि वर्तमान में सिंचाई के सभी संसाधनों व तकनीकों का उपयोग करने के बावजूद १४ करोड़ हेक्टेयर भूमि में ही बमुश्किल सिंचाई हो पा रही है। वैसे नदियों को जोड़ना तब आसान होगा जब देश की जिन नदियों को जोड़ा जाना है, उन्हें राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर केंद्र सरकार के हवाले कर दिया जाए और इस परियोजना को 'राष्ट्रीय परियोजना' की श्रेणी में लाकर इस पर अमल शुरू हो। दूसरा है खनिज संपदा के तर्ज पर पानी रायल्टी की व्यवस्था लागू की जाए। पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने कुछ समय पहले यह बात उठाई थी कि अगर कोयला व खनिज अयस्क किसी राज्य की संपदा हो सकती है और उसके दोहन पर उसे रायल्टी मिलती है तो यह व्यवस्था नदियों के पानी के मामले में भी होनी चाहिए। उनका तर्क है कि नदियों के उद्‌गम स्थल वाले राज्य के लिए नदी की पानी उसकी प्राकृतिक संपदा के समान है और उसे इसका हक मिलना भी चाहिए। लेकिन यह व्यवस्था भी लागू कर पाना आसान नहीं है।

किसी देश की विकासशील अर्थव्यवस्था के तीन प्रमुख सिरे हैं, पानी, बिजली और आधुनिक तकनीक। तकनीक की उपलब्धता तो देश में सर्व-सुलभ हो गयी है, लेकिन पानी और बिजली की भयावह समस्या से कमोवेश पूरा देश जूझ रहा है। कृषि आधारित अर्थव्यवस्था होने के कारण देश में नदी जल बंटवारे पर राष्ट्रीय नीति और पानी प्रबंधन की सुदृढ़ व्यवस्था होना आवश्यक है तभी हम विकास की राह पर आगे बढ़ पाएंगे।

(श्वेता झा)
बेंगलूरु-72

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