चेले या अनुचर न बनाएँ ,अपने समकक्ष स्थापित करें - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शुक्रवार, 31 मई 2013

चेले या अनुचर न बनाएँ ,अपने समकक्ष स्थापित करें

आजकल चेले-चपाटी और अनुचरों की फौज स्थापित करना बड़े लोगों का महान और असाध्य रोग हो गया है। संसार को छोड़ कर भगवान की तलाश में निकले बाबाओं से लेकर जनता के नुमाइन्दों के रूप में पूजे जा रहे लोग हों या फिर दुनियादारी में रमे हुए खास इंसान... सभी को अपना कद बढ़ाने के लिए ऎसे लोग चाहिएं जो उनकी नींव की ऊँचाई बढ़ाते रहें और वे कंगूरों के रूप में ऊपर से ऊपर बढ़ते रहकर आसमान की ऊँचाई को छू लेने के लिए तमाम कोशिशों को पूरा करते रहें। आजकल अपने स्वार्थ और लोभ-लालच को पूरा करने के लिए किसी को भी पटा लेने या कि भरमाने का सर्वाधिक आसान रास्ता है पूरे झुक कर पाँव पकड़ लो और दण्डवत चरण स्पर्श करने के तमाम आसनों, मुद्राओं और भावों का प्रदर्शन कर लो या कि चेले बन जाओ। एक बार चेला हो जाने का मतलब सामने वाला यही समझ लेता है कि दासत्व की पराकाष्ठा हो गई और अब दीक्षा पूरी। जैसे कि किसी एक गली में दूसरी गली से आने वाले कुत्ते पर तब तक दूसरे कुत्ते भौं-भौं करते रहते हैं जब तक कि सामने वाला पूँछ दबाकर विनयी मुद्रा में न आ जाए। एक बार झुक कर सलाम कर लिए जाने के बाद दोनों कुत्ते फिर मित्रता के दायरे में बँध जाते हैं।

यही स्थिति आजकल आदमियों पर आजमायी जाने लगी है और आदमी है कि एक-दूसरे को भ्रमित करता हुआ अपने काम निकलवाने और प्रतिष्ठा जमाने के सारे रामबाण नुस्खों का प्रयोग करता हुआ अपने आपको दुनिया का सर्वाधिक भाग्यशाली और लोकप्रिय समझने लगा है। ऎसे ही भ्रमों और आस-पास के लोगों की अति विनयी हरकतों की वजह से आजकल कई लोगों को अपने आपके ईश्वर होने का भ्रम हो गया है। अपने क्षेत्र में भी ऎसे संप्रभुओं और स्वयंभू अधीश्वरों की संख्या कोई कम नहीं है जिन्हें भ्रमित और कामी तथा स्वार्थी लोग धर्म-कर्म, परिवार और भगवान को छोड़-छुड़ाकर इन्हें ही ईश्वर मानकर इधर-उधर भटकने लगे हैं। जमाने के लिए ईश्वर बने ऎसे लोग और उनके अनुचरों तथा चेलों की भारी भीड़ दिन-रात परस्पर परिक्रमा करती हुई मानवता को लज्जित करने के सारे रास्ते खोलने लगी है।  कई लोग पीढ़ियों और बरसों से जाने किन-किन की परिक्रमा कर थकते रहे हैं मगर हैं वहीं के वहीं। न खुद कुछ कर पाए हैं, न इनमें अपने बूते अब कुछ कर लेने का माद्दा ही बचा है।

एक बार कोई अनुचर बन जाता है तब उसके खून में अंधानुचरी के जींस पनप जाते हैं जो आने वाली कई पीढ़ियों तक चलते रहते हैं और ऎसे में दास परम्परा को आगे बढ़ाते हुए ये लोग तथा इनके वंशज आजादी के मूल्यों और आदमी की स्वतंत्र पहचान तक को भुला बैठते हैं। इन दिनों गुरुओं का ज्वार आया हुआ है, बड़े-बड़े लोग अपने चरणस्पर्श कराने के लिए हमेशा आतुर बने रहने लगे हैं। जब भी कोई इनके पाँव छूता है तब इन्हें स्वर्गीय आनंद की अनुभूति होती है जो उनके चेहरों से अच्छी तरह पढ़ी जा सकती है। इसी अनुपात में मनुष्यों की एक सर्वस्व समर्पण का हुनर रखने वाली चरणस्पर्शी प्रजाति भी विकसित हो गई है जिसे किसी के भी चरण छूने पड़ें, कोई गुरेज नहीं, बस अपना काम होना चाहिए। कोई आश्चर्य नहीं कि आने वाले समय में ऎसे लोग गिद्धों, कुत्तों, गधों और सूअरों से लेकर उन सभी के पाँव छूने न लग जाएं जिनसे इन्हें थोड़ा भी काम हो। अपने काम के लिए ये लोग कुछ भी स्पर्श कर सकते हैं, करवा सकते हैं, फिर चरणस्पर्श की बात तो है ही क्या।

जो लोग समाज में हैं उन्हें चाहिए कि वे अपने ज्ञान और हुनर तथा सामथ्र्य का संवहन नई पीढ़ी में करने के लिए सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना से आगे आएं न कि ज्यादा से ज्यादा लोगों पर प्रभाव या अधिकार जमाने अथवा साम्राज्यवादी भावना से। वास्तविक लोकप्रियता पाँव छुआ देने या सामने वालों से दण्डवत प्रणाम करवा लेने से नहीं आ सकती बल्कि इसके लिए लोगों के हृदय पर अधिकार करना ज्यादा श्रेयस्कर होता है। अपने पास जो हुनर या ज्ञान है वह समाज का ही है और समाज में बाँटने के लिए ही है इसलिए हम किसी को कुछ सीख दे रहे हैं तो उस पर दया या कृपा नहीं कर रहे हैं बल्कि हम सामाजिक फर्ज की अदायगी ही कर रहे हैं। इसलिए किसी पर अहसान न जताएं। यह मानकर चलें कि अपने ज्ञान या हुनर को पात्र लोगों में हस्तान्तरित नहीं करेंगे तो हमारी गति-मुक्ति नहीं होने वाली।  इसलिए जो कुछ अपने पास है उसे उदारतापूर्वक पात्र लोगों में बाँटें।

अनुचरों और चेले-चपाटियों की फौज रखने और निरन्तर इनका विस्तार करते रहने का काम हद दर्जे के धूत्र्त, पाखण्डी और नालायक लोग ही करते हैं जिनका जीवन अंधेरों का पैगाम देने वाले स्वार्थों, कुटिलताओं और षड़यंत्रों में ही रमा रहता है। चाहे वे बाबा हों या गृहस्थी। जिस किसी विधा या हुनर में हम दक्ष हैं, हमें चाहिए कि उसे नई पीढ़ी को दें तथा अनुचर बनाने की बजाय संगी-साथी बनाएं और भ्रातृत्व भाव को प्रधान मानकर कर्म तथा सेवा करें। ऎसा होने पर ही हमारा जीवन सफल है तथा आसानी से गति-मुक्ति के सारे रास्ते अपने आप खुल सकते हैं।




---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com

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