विशेष : कश्मीर की आदि संत-कवयित्री ललद्यद - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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गुरुवार, 23 दिसंबर 2021

विशेष : कश्मीर की आदि संत-कवयित्री ललद्यद

yogini-laldad
(योगिनी ललद्यद संसार की महानतम आध्यात्मिक विभूतियों में से एक हैं, जिसने अपने जीवनकाल में ही ‘परमविभु’ का मार्ग खोज लिया था और ईश्वर के धाम/ प्रकाश-स्थान में प्रवेश कर लिया था।वह जीवनमुक्त थीं और उसके लिए जीवन अपनी सार्थकता और मृत्यु भयंकरता खो चुके थे। उसने ईश्वर से एकनिष्ठ होकर प्रेम किया था और उसे अपने में स्थित पाया था। ललद्यद के समकालीन कश्मीर के प्रसिद्ध सूफी-संत शेख नूरुद्दीन वली/ नुंद ऋषि ने कवयित्री के बारे में जो विचार व्यक्त किए हैं, उनसे बढ़ कर इस महान कवयित्री के प्रति और क्या श्रद्धांजलि हो सकती है:

‘उस पद्मपोर/ पांपोर की लला ने/ दिव्यामृत छक कर पिया/ वह थी हमारी अवतार/ प्रभु! वही वरदान मुझे भी देना।’)

ललद्यद को कश्मीरी जनता ललेश्वरी, ललयोगेश्वरी, लला, लल, ललारिफ़ा आदि नामों से जानती है। इस कवयित्री का जन्मकाल विद्वानों के बीच विवाद का विषय बना हुआ है। डा० ग्रियर्सन तथा आर० सी० टेम्पल ने लल द्यद की जन्मतिथि न देकर उसकी जन्मशती का उल्लेख किया है। उनके अनुसार कवयित्री का आविर्भाव १४वीं शताब्दी में हआ था तथा वह प्रसिद्ध सूफ़ी संत सय्यद अली हमदानी के समकालीन थी। डा० जी० एम० सूफ़ी तथा प्रेमनाथ बजाज़ ललद्यद का जन्म सन् १३३५ ई० में मानते हैं। श्री जियालाल कौल के मतानुसार ललद्यद का जन्म १४वीं शती के मध्य में सुल्तान अलाउद्दीन (१३४७ ई०) के समय हआ था। श्री जियालाल कौल जलाली ललद्यद का जन्म १४वीं शती के दूसरे दशक में भाद्रपद की पूर्णिमा को मानते हैं। "वाकयाते कश्मीर" में लल द्यद का जन्मकाल ७४८ हिजरी तदनुसार १३४८ दिया गया है। कश्मीर के सुप्रसिद्ध इतिहासकार हसन-खूयामी ने तारीख-ए कश्मीर में ललद्यद का जन्म वर्ष ७३५ हिजरी तदनुसार १३३५ ई० दिया है। विद्वानों द्वारा निर्दिष्ट विभिन्न जन्म-तिथियों का विश्लेषण करने पर ललद्यद का जन्मकाल १३३५ ई० अधिक उपयुक्त ठहरता है। संभव है कि ललद्यद का जन्म-नाम कुछ और रहा होगा। 'लल' कश्मीरी में तोंद को कहते हैं तथा 'द्यद' किसी भी आदरणीया प्रौढ़ा के लिए प्रयुक्त होनेवाला आदर-सूचक शब्द है। कहते हैं कि योगिनी ललद्यद अपनी ‘रूहानी मस्ती’ में प्रायः अर्धनग्नावस्था में घूमती रहती थी और उसकी तोंद इतनी विकसित थी कि उसके गुप्तांग उस तोंद से ढके रहते थे। पं० गोपीनाथ रैना ने अपनी पुस्तक "ललवाक्य" में ललद्यद का जन्म-नाम पद्मावती बताया है ।('लल वाक्यानि' १९२०, पृ० ३ तथा "द वर्ड आफ लला प्राफ़ेट्स” १९२९) यह भी कहा जाता है कि ललद्यद ने अपने जीवनकाल में तत्कालीन युवराज शहाबुद्दीन, प्रसिद्ध मुसलमान सन्त सैयद जलालुद्दीन बुखारी, सैयद हुसैन समनानी, सैयद अली हमदानी आदि से भेंट की थी। ये घटनायें क्रमशः ७४८ हि०, ७७३ हि०, और ७८१ हि० की हैं। स्पष्ट है कि ललद्यद का इन हिजरी वर्षों के पूर्व न केवल जन्म हुआ था अपितु वह पूर्णतया सयानी भी हो चुकी थी।  ललद्यद की मरण-तिथि जन्म-तिथि के समान ही अनिश्चित है। केवल इतना कहा जाता है कि जब ललद्यद ने प्राण त्यागे तो उस समय उसकी से देह कुन्दन के समान दमक उठी। यह घटना इस्लामाबाद/अनंतनाग के निकट विजबिहारा में हई बतायी जाती है। ललद्यद का पार्थिव शरीर बाद में किधर गया, उसे कहाँ जलाया गया आदि, इस सम्बन्ध में कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता। किंवदन्ती है कि प्रसिद्ध सन्त-कवि शेख नरुद्दीन वली ने जिसका जन्म १३७६ ईसवी में हुआ, ललद्यद के फटकारने पर अपनी माँ के स्तनों से दुग्ध-पान किया था। इससे ललद्यद का कम से कम १३७६ ई० तक जीवित रहना सिद्ध होता है।  


ललद्यद का जन्म पांपोर के निकट सिमपूरा गाँव में एक ब्राह्मण किसान के घर हुआ था । यह गाँव श्रीनगर से लगभग ९ मील की दूरी पर स्थित है। तत्कालीन प्रथानुसार ललद्यद का विवाह उसकी बाल्यावस्था में ही पांपोर ग्राम के एक प्रसिद्ध ब्राह्मण घराने में हुआ। उसके पति का नाम सोनपंडित बताया जाता है। बाल्यकाल से ही इस आदि-कवयित्री का मन सांसारिक वन्धनों के प्रति विद्रोह करता रहा जिसकी चरम-परिणति बाद में भाव-प्रवण दार्शनिक "वाख-साहित्य" के रूप में हुई। लल द्यद को प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा अपने कुल-गुरु श्री सिद्धमोल से प्राप्त हुई। सिद्धमोल ने उसे धर्म, दर्शन, ज्ञान और योग सम्बन्धी विभिन्न ज्ञातव्य रहस्यों से अवगत कराया तथा गुरुपद का अपूर्व गौरव प्राप्त कर लिया। अपनी पत्नी में बढ़ती हुई विरक्ति को देखकर एक बार सोनपंडित ने सिद्धमोल से प्रार्थना की कि वे लल द्यद को ऐसी उचित शिक्षा दें जिससे वह सांसारिकता में रुचि लेने लगे। कहते हैं कि सिद्धमोल स्वयं लल द्यद के घर गये। उस समय सोनपण्डित भी वहाँ पर मौजूद थे। इससे पूर्व कि गुरुजी लल द्यद को सांसारिकता का पाठ पढ़ाते, एक गम्भीर चर्चा छिड़ गई। चर्चा का विषय था- १. सभी प्रकाशों में कौन-सा प्रकाश श्रेष्ठ है, २. सभी तीर्थों में कौन-सा तीर्थ श्रेष्ठ है, ३. सभी परिजनों में कौन-सा परिजन श्रेष्ठ है, और ४. सभी सुखद वस्तुओं में कौन-सी वस्तु श्रेष्ठ है ? सर्वप्रथम सोनपण्डित ने अपनी मान्यता यों व्यक्त की: ‘सूर्य-प्रकाश से बढ़कर कोई प्रकाश नहीं है, गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं है, भाई के बराबर कोई परिजन नहीं है, तथा पत्नी के समान और कोई सुखद वस्तु नहीं है।‘ गुरु सिद्धमोल का कहना था नेत्र-प्रकाश के समान और कोई प्रकाश नहीं है, घुटनों के समान और कोई तीर्थ नहीं है, जेब के समान और कोई परिजन नहीं है, तथा शारीरिक स्वस्थता के समान और कोई सुखद वस्तु नहीं है।‘ योगिनी लल द्यद ने अपने विचार यों रखे :‘मैं अर्थात आत्मज्ञान के समान कोई प्रकाश नहीं है, जिज्ञासा के बराबर कोई तीर्थ नहीं है, भगवान् के समान और कोई परिजन नहीं है तथा ईश्वर-भय के समान कोई सुखद वस्तु नहीं है। लल द्यद का यह सटीक उत्तर सुनकर दोनों सोनपण्डित तथा सिद्धमोल अवाक रह गये । माना जाता है कि “लल्द्यद की तबियत में वचपन से ही कुछ ऐसी बातें थीं जिनसे जाहिर होता है कि इसके दिल व दिमाग पर प्रारम्भ से ही गैर मामूली प्रभाव था। वह प्रायः अकेली बैठती और गहरे सोच में डबी रहती। दुनिया की कोई दिलचस्पी उसके लिए आकर्षण का केन्द्र न बन सकी। वह प्रायः इस असाधारण स्वभाव के कारण अपनी सहेलियों के बीच हास-परिहास का विषय बन जाती । ("कश्मीरी ज़बान और शायरी, पृष्ठ ११३ भाग २) 


विवाह के पश्चात् ससुराल में ललद्यद को अपनी सास की कटु आलोचनाओं एवं यन्त्रणाओं का शिकार होना पड़ा। किन्तु वह उदारशीला यह सब पूर्ण धैर्य के साथ झेलती रही।। एक दिन ललद्यद पानी भरने घाट पर गई हुई थी। मां ने पुत्र को उकसाया-देख तो यह चुडैल घाट पर इतनी देर से क्या कर रही है! सोनपण्डित लाठी लेकर घाट पर गये । सामने से ललद्यद सिर पर पानी का घड़ा लिए आ रही थी। सोनपण्डित ने जोर से लाठी घड़े पर चलाई। घड़ा फूट कर खण्डित हो गया, किन्तु कहते हैं कि पानी ज्यों-का-त्यों उस देवी के सिर पर टिका रहा। घर पहुँचकर ललद्यद ने इस पानी से बर्तन भरे तथा जो पानी बचा रहा उस पानी को खिड़की से बाहर फेंक दिया। थोड़े दिनों के बाद उस स्थान पर एक तालाब बन गया जो अभी भी "लल-नाग" (तडाग) के नाम से प्रसिद्ध है। इसी प्रकार एक दिन ललद्यद के ससुर ने एक भोज का आयोजन किया।ललद्यद अपनी दैनिक चर्या के अनुसार घाट पर पानी भरने के लिए गई। वहाँ बातों ही बातों में सहेलियों ने उसे छेड़ा-‘आज तो तेरे घर में तरह-तरह के पकवान बने हैं, आज तो पेट भर तुझे स्वादिष्ट पदार्थ खाने को मिलेंगे।‘ लल द्यद ने दीनतापूर्वक उत्तर दिया: "घर में चाहे मिठाई(भाजी) बने या लड्डू मेरे भाग्य में तो पत्थर के टुकड़े ही लिखे हैं।" कहते हैं कि ललद्यद की निर्दयी सास उसे कभी भरपेट भोजन नहीं देती थी। दिखावे के लिए थाली में एक पत्थर रखकर उसके ऊपर भात का लेप करती, नौकरों की तरह काम लेती आदि। (इस घटना का आधार लेकर कश्मीर में एक कहावत प्रचलित हो गई है - "ललि नीलवठ चलि न जांह" अर्थात् लल के भाग्य से पत्थर कहाँ टलेंगे।)  इस समय तक ललद्यद की अन्तर्दृष्टि दैहिक चेष्टाओं की संकीर्ण परिसीमाओं को लांघकर असीम में फैल चुकी थी। वह वन-वन अन्तर्ज्ञान का रहस्य अन्वेषित करने के लिये डोलने लगी। यहाँ तक कि उसने वस्त्रों की भी उपेक्षा कर  दी। उसकी आचार-मर्यादा कृत्रिम व्यवहारों से बहुत ऊपर उठकर समष्टि  में गोते लगाने लगी। नाचती, गाती तथा आनन्दमग्न होकर विवस्त्र क घूमती रहती। पुरुष उन्हीं को मानती जो भगवान से डरते हों और  ऐसे पुरुष उसके अनुसार इस संसार में बहुत कम थे। शेष के सामने दि नग्नावस्था में फिर घूमने-फिरने में शर्म कैसी? कहते हैं कि एक दिन ललद्यद को  प्रसिद्ध सूफ़ी संत मीर सैयद हमदानी सामने से आते दिखाई पडे। उसने कि एकदम अपनी देह को आवृत्त करने का प्रयास किया। निकट पहुँचकर  संत हमदानी ने पूछा ‘हे देवि, तुमने अपनी देह की यह क्या हालत बना रखी है ? तुम्हें नहीं मालूम कि तुम नंगी हो।‘ ललद्यद ने सकुचाते  हए उत्तर दिया-‘हे खुदा-दोस्त, अब तक मेरे पास से केवल औरतें गुजरती रहीं, उनमें से कोई पुरुष अथवा आँखवाला नहीं था। आप मुझे मर्द  तथा तत्त्वज्ञानी दीख पड़े, इसलिए आपसे अपनी देह छिपा रही हैं। एक और घटना इस प्रकार है। कहते हैं कि जब ललद्यद संत हमदानी को दूर ने से आते देखा तो वह चिल्लाती हुई दौड़ पड़ी कि आज मुझे असली पुरुष के दर्शन हो रहे हैं, असली पुरुष के दर्शन हो रहे हैं---‘। वह एक बनिये के पास गई और तन ढकने  के लिए वस्त्र मांगे। बनिये ने कहा कि आज तक तुम्हें कपड़ों की आवश्यकता नहीं पड़ी तो इस समय क्यों माँग रही हो? ललद्यद ने उत्तर दिया-‘वे जो महापुरुष सामने से आ रहे हैं, मुझे पहचानते हैं और मैं उन्हें।‘ इतने में सन्त हमदानी समीप पहुँच गये। पास ही एक नानबाई का तन्दूर जल रहा था। ललद्यद तुरंत उसमें कूद पड़ी। मुस्लिम सन्त पूछ-ताछ करते वहाँ पहुँच गये और उन्होंने आवाज़ दी ‘ऐ लला, बाहर आओ, देखो तो कौन खड़ा है।‘कहते हैं उसी क्षण ललद्यद सुन्दर व दिव्य वस्त्र धारण किये प्रत्यक्ष हो गईं । ( इस घटना पर भी कश्मीरी में एक कहावत प्रचलित है- "आये  वआ’निस त ग’यि काँदरस" )अर्थात् आयी तो थी बनिये के पास किन्तु गई नानबाई के पास। 


ललद्यद के कोई सन्तान नहीं हुई थी। प्रकृति ने इस बन्धन से उसे मुक्त रखा था। कवयित्री ने स्वयं एक स्थान पर कहा है-"न प्यायस, न जायस, न खेयम हंद तने शोंठ" (न मैं प्रसूता बनी और न मैंने प्रसूता का आहार ही किया।)  विपरीत पारिवारिक परिस्थितियों ने ललद्यद को एक नई जीवन-दृष्टि प्रदान की। उसने अपनी समस्त अभीष्ट पूर्तियों को व्यापक रूप दे दिया तथा अपनी आत्मा के चिर-अन्वेषित सत्य को ज्ञान एवं भक्ति की मर्मस्पर्शी अभिव्यक्तियों में साकार कर दिया। ये स्फुट किन्तु सरस अभिव्यक्तियाँ "वाख" कहलाती हैं। कबीर की भाँति ललद्यद ने भी “मसि-काग़ज़" का प्रयोग कभी नहीं किया। उसके वाख गेय हैं जो प्रारम्भ में मौखिक परम्परा में ही प्रचलित रहे तथा उन्हें बाद में लिपिबद्ध किया गया। इस दिशा में सर्वप्रथम ग्रियर्सन महोदय का नाम उल्लेखनीय है। उन्होंने महामहोपाध्याय पं० मुकुन्दराम शास्त्री की सहायता से १०६ वाख एकत्रित किये तथा उन्हें "ललवाक्यानि" के अन्तर्गत सम्पादित किया। यह पुस्तक सन् १९२० में ‘रायल एशियाटिक सोसाइटी,’ लन्दन से प्रकाशित हुई है। श्री आर०सी० टेम्पल की पुस्तक "द वर्ड आफ़ लला" में ललद्यद के वाक्यों का गम्भीर अध्ययन मिलता है । यह पुस्तक सन् १९२४ में विश्वविद्यालय प्रेस, कैम्ब्रिज में प्रकाशित हुई है। राजानक भास्कराचार्य का लल द्यद के ६० वाखों का संस्कृत रूपान्तरण भी मिलता है। ललद्यद के वाखों (वाक्यों) का संकलन व अनुवाद करने में जिन दूसरे विद्वानों ने उल्लेखनीय कार्य किया है, उनके नाम हैं-सर्वश्री सर्वानन्द चरागी, आनन्द कौल बामजई, रामजू कल्ला, जियालाल कौल जलाली, गोपीनाथ रैना, प्रो० जियालाल कौल, आर. के. वांचू तथा नन्दलाल तालिब। श्री सर्वानन्द चरागी ने "कलाम-ए-ललारिफ़ा" के अन्तर्गत लल द्यद के १०० वाखों का हिन्दी में अनुवाद किया है। श्री आनन्द कौल वामजई ने ७५ तथा रामजू कल्ला ने "अमृतवाणी" में १४६ ललवाखों को प्रकाशित किया है।  कहते हैं कि सन् १९१४ में ग्रियर्सन ने ललवाक् एकत्रित कर उन्हें पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित करने की इच्छा प्रकट की। इस कार्य के लिए उन्होंने उस समय के प्रसिद्ध कश्मीरी विद्वान पं० मुकुन्दराम शास्त्री का सहयोग लिया। मुकुन्दराम ने काफ़ी खोज की किन्तु ललवाख सम्बन्धी कोई भी सामग्री उनको हाथ न लगी। एक बार  वे बारामूला से ३० मील दूर "गअश" नाम के गांव में पहुँचे। वहाँ पर उनकी भेंट धर्मदास नामक एक हिन्दू सन्त से हुई। इस सन्त को ललद्यद के अनेक वाख (वाक्) कण्ठस्थ थे। मुकुन्दराम ने इन वाकों का संग्रह कर उन्हें संस्कृत व हिन्दी रूपान्तर के साथ ग्रियर्सन महोदय को सौंप दिया। इन्हीं “वाकों" को बाद में ग्रियर्सन ने सन् १९२० में लन्दन से प्रकाशित करवाया। 


पं० जियालाल कौल जलाली ने अपनी पुस्तिका "ललवाख" में ३८ वाखों का हिन्दी में अनुवाद किया है। जम्मू व कश्मीर कल्चरल अकादमी द्वारा प्रकाशित "ललद्यद" (१९६१) में लगभग १३५ वाख आकलित हैं। इस पुस्तक के सम्पादक श्री जियालाल कौल तथा श्री नन्दलाल तालिब हैं।  लल द्यद के "वाख" प्रायः छन्द-मुक्त हैं। चार-चार पादों के ये स्फुट 'वाख' लययुक्त हैं। इनमें कवयित्री ने जीवन दर्शन की गूढ़तम गुत्थियों को सहज-सरल रूप में गूँथ दिया है। ललद्यद के कृतित्व का परिचय पहली बार "तारीख-ए-कश्मीर" (१७३० ई०) में मिलता है। इसके पूर्व वह उपेक्षिता ही रही है। श्रीवर की "जैनराज तरंगिणी" तथा जोनराज की "जैनतरंगिणी" में भी उसका कोई उल्लेख नहीं मिलता है।वस्तुतः १८वीं शती के पूर्वार्द्ध में ललद्यद के कृतित्व की ओर जनता का ध्यान गया और उसका विधिवत् महत्त्वांकन होने लगा। ललद्यद के वाख-साहित्य का मूलाधार दर्शन है। उसका प्रत्येक वाख दार्शनिक चेतना को आगार है जिस पर प्रमुखतः शैव, वेदान्त, तथा सूफ़ी दर्शन की छाप स्पष्ट है। जिस समय ललद्यद का आविर्भाव हआ उस समय कश्मीर में इस्लाम धर्म का एक विचार-पदधति के रूप में आगमन हो चका था। देश में घोर अशान्ति व धामिक अव्यवस्था व्याप्त थी। धर्मान्ध कट्टरपन्थी अपने-अपने धर्म-सम्प्रदायों का प्रचार प्रसार करने में दत्तचित्त थे। सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक विषमतायें भी जनता को आड़े हाथों ले रही थीं। ऐसे विकट क्षणों में ललद्यद ने जनता के समक्ष धर्म के वास्तविक स्वरूप को स्पष्ट करते हुए जनवाणी में परम सत्य की सार्थकता को ऐसी व्यापक तथा सर्वसुलभ  शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित किया जिसमें न कोई दुराव था, न कोई आवरण  और न कोई विक्षेप । ललद्यद की यह सत्य-प्रतिष्ठा विशुद्धतः उसकी अन्तरानुभूति की देन है। ललद्यद विश्वचेतना को आत्मचेतना में तिरोहित मानती है। सूक्ष्म अन्तर्दष्टि द्वारा उस परमचेतना का आभास होना सम्भव है। यह रहस्य उसे अपने गुरु से ज्ञात हुआ था:-‘गोरन दोपनम कुनय वचन, न्यबरअ  दोपनम अंदर तवय ह्यातुम नगय नचुन’ (गुरु ने मुझे एक रहस्य की बात बताई-बाहर से मुख मोड़ और अपने अन्तर को खोज । बस, तभी से यह बात हृदय को छू गई और मैं विवस्त्र नाचने लगी।) दरअसल, ललद्यद उस सिद्धावस्था को पहुँच चुकी थी जहाँ स्व और पर की भावनायें लुप्त हो जाती हैं। जहाँ मान-अपमान, निन्दा-स्तुति आदि भावनायें मन की संकुचितता को लक्षित करती हैं। जहाँ पंचभौतिक काया मिथ्याभासों एवं क्षुद्रताओं से ऊपर उठकर विशुद्ध स्फुरणाओं का केन्द्रीभूत पुंज बन जाती है: 

युस हो मालि हैड्यम, गेल्यम मसखरु करुयम,

सुय हो मालि मनस खट्यम न जांह । 

शिव पनुन येलि अनुग्रह कर्यम, 

लुकहुन्द हेडुन व मे कर्यम क्याह ।। 

(चाहे कोई मेरी अवहेलना करे या तिरस्कार, मैं कभी मन में उसका बुरा न मानूंगी। जब मेरे शिव का मुझ पर अनुग्रह है तो लोगों के भला-बुरा कहने से क्या होता है ?)  इस असार-संसार में व्याप्त विभिन्न विरोधाभासों को देखकर लल द्यद का अन्तर्मन विह्वल हो उठा और उसे स्वानुभूति का अनूठा प्रसाद मिल गया: 

गाटुला अख वुछुम बौछि सुत्य मरान,

पन ज़न हरान पोहुन्य वाव लाह । 

निश बौद अख छुम वाजस मारान, 

तनु लल बु प्रारान छैन्यम न प्राह । 

(एक प्रबुद्ध को भूख से मरते देखा, पतझर सा जीर्ण-शीर्ण हुआ पड़ा। एक निर्बुद्ध से रसोइये को पिटते देखा, तभी से यह मन बाहर निकल पड़ा।)  शंकर के अद्वैत का लल द्यद ने पूर्ण सहृदयता के साथ निरूपण किया है। सकल सृष्टि में जो गोचर है वह परमात्मा का ही व्यक्त रूप है। "मैं ही ब्रह्म हूँ", वह मेरे पास है-मुझसे अलग नहीं है। उसे है ढंढ़ने के लिए तनिक एकाग्रता, लगन तथा त्याग की आवश्यकता है। कुत्सित स्वार्थ, सीमित मनोवृत्ति आदि का विसर्जन भी अनिवार्य है: 

लल बु द्रायस लोलरे, 

छांडन रूज़स दौह क्यौह राथ ।

वुछुम पंडिता पननि गरे, 

सुय में रो’टमस न्यछतुर तु साथ ॥ 

(मैं उस परम शक्ति को घर से ढूंढते-ढूंढ़ते निकल पड़ी। उसे ढूंढते ढंढ़ते रात-दिन बीत गये। अन्त में देखा, वह मेरे ही घर में विद्यमान है। बस, तभी से मेरी परमात्म-साधना का उचित मुहूर्त निकल आया।)  ललद्यद ने धर्म के नाम पर प्रचलित मिथ्याचारों, बाह्याडम्बरों तथा विक्षेपों का खुलकर खण्डन किया है। कबीर की भाँति उसने दोनों हिन्दुओं तथा मुसलमानों को खरी-खोटी सुनाई है। धर्म का वास्तविक अर्थ है मन की शुद्धता। वस्तुत: यही शुद्धता जीव को परमतत्व तक पहुँचा सकती है। 

बुथ क्याह जान छुय,वौंदु छुय कन्य, 

असलुच कथ जांह संनिय नो।

परान तु लेखान वुठ तु औं गजि गजी, 

अंदरिम दुय जांह चजिय नो ।। 

(मुखाकृति अत्यन्त सुन्दर है किन्तु हृदय पत्थर-तुल्य है-उस में तत्व की बात कभी समायी नहीं। पढ़-पढ़ व लिख-लिखकर तुम्हारे होंठ व तेरी उंगलियाँ घिस गईं मगर तेरे अन्तर का दुराव कभी दूर न हुआ।)  ललद्यद का कृतित्व सांस्कृतिक पुनर्जागरण, मानव-कल्याण तथा सामाजिक पुनरुत्थान की दार्शनिक अभिव्यक्ति है जिसमें सरसता, स्पष्टता एवं सजीवता एक साथ गुम्फित है। उसके वाकों में धर्मदर्शन सम्बन्धी तथ्यों की प्रधानता के साथ-साथ काव्यात्मक सौन्दर्य की गहनता भी विपुल मात्रा में दृष्टिगत होती है। अपनी भावनाओं को मूर्तरूप प्रदान करने के लिए कवयित्री ने प्रमुखतया उपमा, उत्प्रेक्षा, विरोधाभास अनुप्रास आदि अलंकारों का प्रयोग किया है। अप्रस्तुत-विधान के अन्तर्गत संयोजित कार्य-व्यापार साधारण जन-जीवन से लिये गये हैं, जिनमें सहजता के साथ-साथ पर्याप्त अभिव्यञ्जना शक्ति समाहित है। रस परिपाक की दृष्टि से सम्पूर्ण वाक्-साहित्य में प्रायः शान्त रस की प्रबलता है। 


भाषागत दृष्टि से ललद्यद के वाख विशेष महत्व के हैं। लल द्यद के पूर्व कोई भी संरचना ऐसी नहीं मिलती जो कश्मीरी में लिखी गई हो। यद्यपि कुछ विद्वान् शितिकण्ठ की “महानय प्रकाश" को कश्मीरी की प्रथम कृति मानते हैं किन्तु उसकी भाषा कश्मीरी के उतनी निकट नहीं है जितनी लल द्यद के वाकों की है। भाषा-वैज्ञानिक-दृष्टि से इन वाकों का अध्ययन अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हो सकता है। लल द्यद की भाषा मूलतः संस्कृत निष्ठ है, जिस पर यत्र-तत्र फ़ारसी-अरबी शब्दों का प्रभाव भी मिलता है। संस्कृत के अनेक शब्द कवयित्री ने अपने मूल रूप में प्रयुक्त किये हैं, जैसे प्रकाश, तीर्थ, अनुग्रह, कर्म, बान्धव, मूढ़, मनुष्य, नारायण, मन, शीत, तृण, उपदेश, अचेतन, आहार, शिव, हर, गगन, भूतल, पवन, फल, दीप, तीन शम्भु, अर्घ्य, ज्ञान, राम, गीता, मूर्ख, पंडित, मान, संन्यास आदि। किन्हीं डाक संस्कृत शब्दों का कश्मीरी-संस्करण करके प्रयोग किया गया है, जैसे समसार = संसार, दर्शन = दरशुन, बौद = बुद्धि, गोपत = गुप्त, सौख = सुख, मौख = मुख, शिन्य = शून्य, ल’ज़ = लज्जा, रु’ख = रेखा, त्रेशना = तृष्णा आदि। अरबी फ़ारसी से लिये गये कुछ शब्द इस प्रकार हैं--साहिब, दिल, जिगर, मुश्क, गुल, खार, बाग, कलमा, शिकार आदि । ललद्यद का कोई भी यथेष्ट स्मारक, समाधि या मंदिर कश्मीर में नहीं मिलता है। शायद वे इन सब बातों से ऊपर थीं। वे, दरअसल, ईश्वर (परम विभु) की प्रतिनिधि बन कर अवतरित हुर्इं और उसके फरमान को जन-जन में प्रचारित कर उसी में चुपचाप मिल गर्इं, जीवन-मरण के लौकिक बंधनों से ऊपर उठ कर- ‘मेरे लिए जन्म-मरण हैं एक समान/ न मरेगा कोई मेरे लिए/ और न ही/ मरूंगी मैं किसी के लिए!’ योगिनी ललद्यद संसार की महानतम आध्यात्मिक विभूतियों में से एक हैं, जिसने अपने जीवनकाल में ही ‘परमविभु’ का मार्ग खोज लिया था और ईश्वर के धाम/ प्रकाश-स्थान में प्रवेश कर लिया था।वह जीवनमुक्त थीं और उसके लिए जीवन अपनी सार्थकता और मृत्यु भयंकरता खो चुके थे। उसने ईश्वर से एकनिष्ठ होकर प्रेम किया था और उसे अपने में स्थित पाया था। ललद्यद के समकालीन कश्मीर के प्रसिद्ध सूफी-संत शेख नूरुद्दीन वली/ नुंद ऋषि ने कवयित्री के बारे में जो विचार व्यक्त किए हैं, उनसे बढ़ कर इस महान कवयित्री के प्रति और क्या श्रद्धांजलि हो सकती है: ‘उस पद्मपोर/ पांपोर की लला ने/ दिव्यामृत छक कर पिया/ वह थी हमारी अवतार/ प्रभु! वही वरदान मुझे भी देना।’




-- डॉ० शिबन कृष्ण रैणा --

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