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सोमवार, 17 मार्च 2014

विशेष : पत्रकारों को जागना होगा

पत्रकारों राजेश दुबे की असामयिक मृत्यु ने  पत्रकार जगत को झकझोर दिया। पिछले कुछ वर्षों से बड़े मीडिया घरानों ने कार्यरत  पत्रकार एवं अन्य कर्मचारियों  र  पत्रकार संगठन से न जुड़ने के अघोषित आदेश दे रखे है। इतना ही नहीं समाचार  पत्रों में  पत्रकार संगठन के समाचार के  प्रकाशन  पर भी रोक लगा रखी है। 

बड़ा दुख होता है जिन  पत्रकार एवं गैर  पत्रकार कर्मचारियों के कंधे  पर बैठकर मीडिया घराना अपने मिशन को भूलकर व्यवसाय को दिन-रात ऊंचाई  र ले जा रहे है और आर्थिक रू  से सशक्त हो रहे है वो मीडिया से जुड़े अ ने कर्मचारियों की असामयिक मृत्यु  र चु  बैठे है। मानवता है तो आगे आये और मानवियता दिखाये। 

वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन कभी भी नहीं चाहती कि जिस खेत का अनाज खाते है उस खेत को बंजर कर दें। केन्द्र सरकार के बेज बोर्ड मात्र बेज निर्धारित करता है उसके  पास कोई ऐसा अधिकार नहीं कि मीडिया कर्मियों को बेज दिला सके। अत: बेज बोर्ड की आवश्यकता नहीं। मालिक और कर्मचारी के मधुर रिश्ते होने चाहिये, एक दूसरे के दु:ख-सुख में भागीदार बनना चाहिये। मीडिया घरानों को यह सोचना होगा कि उनके कर्मचारी दैनिक वेतन भोगी की तरह न रहे। 

प्रदेश में  पत्रकार राजेश दुबे की ही एक मात्र घटना नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में ऐसी कई घटनाएं हुई जिनमें मीडिया घरानों के मालिकों ने स्वत: आगे आकर ना के बराबर मदद दी। इतना ही नहीं जनस� र्क विभाग ने भी अपनी सीमा में रहकर मदद की। जो कि ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ कहावत को चरितार्थ करता है। विभाग ने वर्ष 2012 में बीमा योजना लागू की।  प्रचार और  प्रसार न होने से  पत्रकार साथी लाभ नहीं ले  पाये। बड़े शहरों के बड़े पत्रकारों (कांटेक्ट  पर काम करने वाले) को आर्थिक आवश्यकता नहीं जो कि अच्छे  पैकेज पर काम करते है जिनकी संख्या सीमित है। आज सरकार एवं  प्रशासनिक स्तर  पर इनका ही दबदबा है के कारण शायद 2013 में जनसम्पर्क विभाग बीमा योजना को मूर्त रूप नहीं दे पाया। मु�यमंत्री एवं जनस�पर्क मंत्री हमेशा जब भी बीमा योजना की बात करते थे तब जवाब देते थे कि शीघ्र शुरू हो रही और वर्ष 2014 आ गया। 2013 में बीमा योजना लागू न होना यह तय करता है कि मु�यमंत्री, जनस� र्क मंत्री के आवश्वासन को अधिकारी वर्ग ने झूठा सिद्ध कर दिया। 

बीमा योजना की ही तरह  पत्रकारों  पर जबरिया दर्ज होते प्रकरण है।  पत्रकारों के प्रकरणों की जांच एस. पी  अथवा डी.आई.जी. को शासन के आदेशानुसार करना चाहिए।  परन्तु अधिकतम ए.एस.आई. के द्वारा की गई जांच की टी   र एस. ी. तक आंख बंद कर हस्ताक्षर कर देते है। जब  पत्रकार  पर प्रकरण दर्ज होता है तब मीडिया मालिक ‘जले  पर नमक छिड़क देता है याने उस  पत्रकार को संस्थान से निकाल देता है।’ 

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