विशेष : आधुुिनक समाज के 'महाबाभन'...!! - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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मंगलवार, 18 मार्च 2014

विशेष : आधुुिनक समाज के 'महाबाभन'...!!

changing socity
श्मशान में शवदाह से लेकर अंतिम क्रिया तक संपन्न कराने वाले महाबाभनों से सभी का कभी न कभी पाला पड़ता ही है। बेचारे इस वर्ग की भी अजीब विडंबना है। सामान्य दिनों में लोग इन्हें देखना भी पसंद नहीं करेंगे। लेकिन किसी अपने  के निधन पर मजबूरी में अंतिम क्रिया संपन्न होने तक यही वीअाइपी बने रहेंगे। इधर काम निपटा और उनसे फिर वही दूर से नमस्कार वाला भाव। हमारे राजनेता भी समाज के एेसे ही महाबाभन बनते जा रहे हैं। मीडिया सामान्य दिनों में तो बात - बात पर राजनेताओं की टांगखिंचाई से लेकर लानत - मलानत करता रहता है। देश की हर समस्या के लिए राजनेताओं को ही जिम्मेदार ठहराने का कोई मौका मीडिया हाथ से नहीं जाने देता। लेकिन वि़ंडबना देखिए कि  इन्हीं  मीडिया घरानों द्वारा आयोजित चिंतन शिविरों में उन्हीं राजनेताओं को बुला कर उनसे व्याख्यान दिलवाया जाता है। 

एेसे चिंतन शिविरों का आलोच्य विषय  भारत किधर..., कल का भारत... भारत का भविष्य ... भारत आज और कल ... वगैहर कुछ भी हो सकता है।  अभी हाल में एक राजनेता की एेसे शिविर में मौजूदगी चिंतन का आयोजन कराने वाले  मीडिया हाउस को इतनी जरूरी लगी कि सादगी की मिसाल बने उस नेता के लिए चाटर्र प्लेन भिजवा दिया। अपनी समझ में आज तक यह बात नहीं आई कि बेहद ठंडे व बंद  कमरों में सूट - बूट पहन कर गरीबी , देश या  दुनियादारी के बारे में चिंतन करने से आखिर किसका और क्या  फायदा होता  होगा । मेरा मानना है कि  कम से कम   एेसे चिंतन से अंततः उसका फायदा तो नहीं ही होता है, जिसके बारे में चिंतन किया जाता है। अब चिंतन करने वालों का कुछ भला होता हो, तो और बात है। अंतरराष्ट्रीय कहे जाने वाले कई क्लबों के एेसे कई अनेक चिंतन शिविरों में जाना हुआ, जहां एेसे लोगों को सूट - टाई से लैस होकर मंचासीन देखा जाता है, जिनका गांव - समाज से कभी कोई नाता नहीं रहा।  

कुछ देर की अंग्रेजी में गिट - पिट के बाद सभा खत्म और फिर खाना व अंत में पीने के साथ एेसी सभाएं खत्म हो जाती है। एेसे चिंतनों पर मैने काफी चिंतन किया कि एेसी सभाओं से आखिर किसी को क्या फायदा होता होगा। लेकिन मन में य़ह भी ख्याल आता रहा कि बगैर किसी प्रकार के लाभ के सूटेड - बूटेड महाशय एेसे समारोहों में झक तो मारेंगे नहीं।  निश्चय ही उनका कुछ जरूर भला होता होगा। मुझे एक कारोबारी द्वारा आयोजित  एेसे कई शिविरों में भाग लेने का मौका मिला , जिसमें  हमेशा मुख्य अतिथि एक कारखाने के महाप्रबंधक हुआ करते थे। कुछ दिन बाद बड़े कारखाने के बगल में कारोबारी महाशय का एक और छोटा कारखाना खुल गया, और उस दिन के बाद से कभी उस कारोबारी को किसी चिंतन शिविर में नहीं देखा गया।   लेकिन  हम गरीब - गुरबों पर चिंतन का दायरा लगातार बढ़ता ही जा रहा है। अपना तेज मीडिया भी इससे अछूता नहीं रह पाया है। अपने तेजतर्रार तरुण तेजपाल अपने मीडिय़ा हाउस के लिए गोवा में चिंतन करने और कराने ही गए थे, लेकिन वहां की मादकता में एेसे बहे कि अपनी ही मातहत के साथ कथित बदसलूकी कर जेल पहुंच गए। लेकिन इसके बावजूद चिंतन - मनन का दौर थमने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है। अपना मीडिया साल में तीन से चार प्रकार के वायरल फीवर (मौसमी बुखार)  कह लें या फिर संक्रमण  के दौर से गुजरता है। जिसमें  एक पर नंबर वन की दावेदारी की सनक चढ़ी कि फिर धड़ाधड़ शुरू हो जाता है दूसरों पर भी  अपने को नंबर वन साबित करने का बुखार। दूसरा संक्रमण एवार्ड पाने का होता है। 

एक ने दावा किया कि उसे फलां एवार्ड से नवाजा गया है, तो फिर तो एवार्ड की झड़ी ही लग जाती है। पता नहीं थोक में इतने एवार्ड आखिर मिलते कहां है। और तीसरा सबसे बड़ा संक्रमण है फाइव स्टार होटलों में चिंतन शिविर कराने का। जिसमें समाज के उन्हीं लोगों का  महाबाभन की तरह आदर - सत्कार किया जाता है, जिनकी साधारणतः हमेशा टांग खिंची जाती है। देश की समस्याओं के लिए पानी पी - पी कर कोसा जाता है। समझदार लोग इसे पेज थ्री कल्चर कहते हैं, लेकिन पता नहीं क्यों मीडिया हाउस के एेसे चिंतन शिविरों में बोलने वाले लोग मुझे आधुनिक महाबाभन से प्रतीत होते हैं। 




तारकेश कुमार ओझा 
खड़गपुर ( पशिचम बंगाल)
संपर्कः 09434453934 
लेखक दैनिक जागरण से जुड़े हैं।

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