विशेष आलेख : जम्‍मू कश्‍मीर मे सत्‍ता की बाजीगरी - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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गुरुवार, 1 जनवरी 2015

विशेष आलेख : जम्‍मू कश्‍मीर मे सत्‍ता की बाजीगरी

आतंकवादियों के मौत के फरमान और भीषण ठण्‍ड मे मतदाताओं ने जम्‍मू कश्‍मीर मे लोकतंत्र के लिए अपनी जान की बाजी लगा कर अमन के दुश्‍मनों के हौसले पस्‍त कर दिये । लेकिन अब उसी कश्‍मीर मे सरकार बनाने के लिए राजनीतिक दल एक राय नही हो पा रहें है ।जनादेश के छह दिन बाद भी सत्‍ता के लिए बाजीगिरी चल रही है ।यहां सरकार गठन में खासी पेचीदगियां सामने आ रही हैं। सीटों से ज्यादा एक तरफ अलग-अलग विचारधारा, दूसरी तरफ शर्तें गठबंधन सरकार के बनने में रोड़े बन रही हैं। यह ठीक है कि अपने देश मे गठबंधन की राजनीति के कोई नियम कायदे नही है ,लेकिन इस का ये मतलब कतई नही है कि जनादेश की मनमानी व्‍याख्‍या की जाए और ऐसा करते हुए आम जनता की अपेक्षओं को ताख पर रख दिया जाये ।सभी राजनीतिक दलों को ये बात ध्‍यान रखना चाहिए कि जम्‍मू कश्‍मीर पर देश के साथ – साथ दुनियां की भी निगाहें हैं ।पड़ोसी पाकिस्‍तान तो इस मामलें मे गिद दृष्‍टी से लैस है ।यह सही है कि सरकार गठन का सवाल पेचीदा बन जाने के लिए खंडित जनादेश जिम्‍मेदार है ।लेकिन इस तरह के हालात के लिए वहां के राजनीतिक दल ही जवाबदेह हैं ।सरकार गठन मे इस लिए भी मुश्‍किलें आरही हैं कि एक राज्‍य होने के बाद भी जम्‍मू और कश्‍मीर के लोगों ने अलग – अलग राजनीतिक दलों को जनादेश दिया है ।मोदी का जादू , पीडिपी के नारे और नेशनल कांसफ्रेस की विरासत भी जम्‍मू और कश्‍मीर के बीच की खाई को नही पाट सकी । इसी लिए  जम्मू-कश्मीर में पहले हिंदू मुख्यमंत्री के दांव से भाजपा ने अपने कदम पीछे खींच लिए हैं। ताजा राजनीतिक घटनाक्रम से इतना तय है कि सरकार तुरंत बनने का कोई फार्मूला नहीं निकलेगा और इसमें कुछ समय लग सकता है। पहले बिल्कुल पस्त दिख रही पीडीपी ने नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस की तरफ से मिले समर्थन के
संकेतों के बाद अब अपने तेवर ज्यादा कड़े कर दिए हैं।
                       
दरअसल, भाजपा की चिंता है कि यदि पीडीपी और एनसी कांग्रेस के समर्थन से सरकार बना लेती हैं तो नई सरकार में जम्मू की हिस्सेदारी बिल्कुल नहीं होगी। ऐसे में भाजपा उपमुख्यमंत्री पद और जम्मू को सरकार में प्रतिनिधित्व देने के लिए मनाकर पीडीपी के साथ साझा सरकार की कोशिशें भी कर रही है। वैसे भाजपा के प्रबंधक अभी उमर से भी बातचीत कर रहे हैं, लेकिन घाटी के परस्पर विरोधी दलों की लामबंदी का तोड़ ढूंढना
आसान नहीं है। भाजपा के उच्चपदस्थ सूत्रों ने माना कि हिंदू यानी जम्मू के मुख्यमंत्री को रोकने के लिए घाटी के मुख्य प्रतिद्वंद्वियों के हाथ मिला लेने से स्थिति विकट हो गई है। हालांकि, उमर और महबूबा का गठजोड़
बेहद विपरीत है, लेकिन कांग्रेस और अन्य लोगों की पहल ने मामला पेचीदा कर दिया है। भाजपा ने कोशिश की थी कि पीडीपी और वह तीन-तीन साल के कार्यकाल का बंटवारा कर ले। मगर पीडीपी ने छह साल के लिए मुफ्ती मोहम्मद सईद को मुख्यमंत्री बनाने की कड़ी शर्त रखी है। इतना ही नहीं, अनुच्छेद 370 और अफस्पा जैसे कानूनों पर भी भाजपा को पीछे हटने को कहा है। भाजपा यदि खुद का मुख्यमंत्री नहीं बना पाती है तो मंत्रिमंडल में बराबर की हिस्सेदारी लेकर सरकार बनाने के विकल्प पर भी आगे बढ़ सकती है।लेकिन जिस तरह से जम्मू के खिलाफ घाटी की पार्टियों पीडीपी व नेशनल कांफ्रेंस साथ आने को तैयार हुए और कांग्रेस ने भाजपा को अलग-थलग करने की कोशिश की, उसने भगवा पार्टी को रणनीति बदलने पर मजबूर कर दिया। भाजपा की पहली प्राथमिकता तो खुद सरकार बनाने की रही है, लेकिन हिंदू मुख्यमंत्री का दांव उल्टा पड़ता देख उसने अपने तेवर नरम कर लिए हैं। वह सरकार बनाने की संभावनाएं तो तलाश रही हैं, लेकिन घाटी बनाम जम्मू की इस नई मोर्चाबंदी में वह बीच का रास्ता निकालने का विकल्प भी आजमाना चाहती है। माना जा रहा है कि नेशनल कांफ्रेस भाजपा के मुख्यमंत्री के साथ सरकार बनाने के फार्मूले पर राजी होने से कतरा रही है। ऐसे में पीपुल्‍स डेमोक्रेटिक पार्टी  के कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाने और नेकां के उसे बाहर से समर्थन देने के विकल्प की चर्चा शुरू हो गई है। इस बीच नई सरकार के गठन के लिए राज्यपाल ने पार्टियों के साथ विचार-विमर्श शुरू कर दिया है और भाजपा व पीडीपी को इसके लिए बुलाया है। सत्ता हासिल करने के लिए भारतीय जनता पार्टी अपने मुख्य एजेंडे अनुच्छेद 370 की भी बलि देने को तैयार है।
                             
वहीं ऐसी खबरें भी आ रही हैं कि कश्मीर क्षेत्र में भाजपा विरोध के स्वर मुखर होते दिख रहे हैं। घाटी के लोग भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए पीडीपी और एनसी को भेदभाव भुलाकर सरकार बनाने के लिए पत्र लिख रहे हैं।लोगों का कहना हैं कि हमें धर्मनिरपेक्ष सरकार चाहिए। क्षेत्रीय के नाते दोनों दल स्थानीय जरूरतों और भावनाओं को समझते हैं।इस लिए राज्‍य की जनता के हित मे पीडीपी और एनसी को अपने मतभेद भुलाने चाहिए। बिहार के नीतीश-लालू फॉर्मूला  की तर्ज पर अगर ऐसा हो जाये तो दोनों की सीटें होंगी 43+1 निर्दलीय=44 सीटें।कई बार नेताओं ने ऐसे बयान दिये भी हैं ।या फिर  जैसे मोदी को रोकने के लिए जनता दल परिवार एक हो गया, वैसे ही पीडीपी, एनसी और कांग्रेस साथ आ जाएं। यानी 55 सीटें। वहीं हवा मे एक और फॉर्मूला तैर रहा कि भाजपा ने पीडीपी को पार्टी का मुख्यमंत्री बनाने पर केंद्र में दो केबिनेट मंत्रालय देने का प्रस्ताव दिया है।भाजपा किसी भी हालत मे राज्‍य मे पहली बार आये इस मौके को गंवाना नही चाहती है । खुद मोदी के एजेंडे में कश्मीर कितना खास है इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद शायद ही ऐसा कोई महीना बीता हो जब मोदी कश्मीर नहीं गए हों। इस बार अगर जम्मू-कश्मीर में पिछले बार की तुलना में पांच फीसदी मतदान का प्रतिशत बढ़ा है इसका श्रेय भी भाजपा मोदी को दे रही है । साठ फीसदी  मुस्लिम आबादी वाले किश्तवाड़ में पहली बार हिंदू जीता। भाजपा के सुनील कुमार ने सज्जाद अहमद किचलू को हराया।इस बार कश्‍मीर घटी मे भी बदलाव देखने को मिला क्योंकि इस चुनाव से पहले कभी भी किसी चुनाव में कश्मीर में बीजेपी के झंडे नहीं दिखते थे और न ही उसे यहां उम्मीदवार मिलते थे। चुनावी प्रचार और रैली की बात तो बहुत दूर रही। हालत यह थे कि कोई बीजेपी के बारे में बात करना तक पसंद नहीं करता था। एक ऐसी 'अछूत' पार्टी जिसके पास जाने से हर कश्मीरी में बचता था। पर अब हालात बदल से गए हैं। तभी तो कभी अलगाववादी नेता कहे जाने वाले सज्जाद लोन प्रधानमंत्री मोदी को बड़े भाई कहते हैं। पहली बार भाजपा के 33 उम्मीदवार घाटी में चुनावी मैदान में थे। पिछले चुनाव में बीजेपी को महज पूरे कश्मीर में सिर्फ 14 हजार ही वोट मिले थे जबकि इस बार ये बढ़कर 48 हजार से ज्‍़यादा हो गया । यहां पर बीजेपी के 39 केन्द्रीय नेताओं ने सभा की। और तो और हर बार होने वाले चुनावों में अपनी जमानत तक जब्त कराने वाली बीजेपी कई सीटों पर दूसरे नंबर पर तो कई जगहों पर तीसरे नंबर पर रही।
                           
इसके उलट  2008 से सत्ता का वनवास झेल रही पीडीपी इस वनवास को ख्त्म करना चाहती है। ऐसे में सत्ता से बेदखल हुए एनसी भी सिर्फ 15 सीटें जीतने के बाद भी सत्ता का हिस्सा बने रहना चाहती है।शायद इसलिए ही एनसी और पीडीपी को भाजपा से हाथ मिलाने में तकलीफ नहीं है तो इसी तरह 12 सीटें जीतने वाली कांग्रेस को भी पीडीपी या एनसी के साथ जाने से कोई गुरेज नहीं है! इन सब हालातों के चलते सरकार बनाने की पेचीदगियां बरकरार हैं ।यहां पर प्रदेश के राज्‍यपाल की भूमिका भी खासी अहम दिखती है ।लोकतंत्र में जनता पर एक और चुनाव के बोझ से तो बेहतर है कि राज्य में सरकार गठित हो लेकिन सरकार बनेगी कैसे इस पर संशय फिलहाल
बरकरार है! वर्तमान राजनीतिक हालात को देखते हुए चुनाव प्रचार के दौरान एक दूसरे को पानी पी पी कर कोसने वाले राजनीतिक दल अगर हाथ मिलाकर सरकार बना लेते हैं तो हैरानी नहीं होनी चाहिए ! अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षाओं को साधने के लिए राजनीतिक समझौते के गुणा भाग के जरिए कौन जम्मू कश्मीर
की सत्ता पर 6 साल का सफर शुरु करेगा इस पर से भी जल्द ही पर्दा हट ही जाएगा लेकिन जम्मू कश्मीर में सरकार गठन की ये गुणा भाग भाजपा, पीडीपी, एनसी और कांग्रेस के साथ ही उन तमाम छोटे दलों और निर्दलीय विधायकों पर भी जरूर सवाल खड़ा करेगा, जो वोट के लिए चुनाव से पहले जनता के बीच गए तो
किसी और वादे के साथ थे लेकिन सत्ता के लिए अपने वादों से पलट गए ! बहरहाल देखना रोचक होगा कि अपने इस फैसले को ये राजनीतिक दल जनता के सामने कैसे जायज ठहराते हैं !
                                                





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शाहिद नकवी 
इलाहबाद 

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