पुस्तक समीक्षा : कविता में जीवन व व्यवस्था का विश्लेषण। - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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बुधवार, 30 सितंबर 2015

पुस्तक समीक्षा : कविता में जीवन व व्यवस्था का विश्लेषण।

  • युवा कवियत्री संजीता वर्मा ’संयोग’ की काव्य पुस्तिका ’’मैं और मेरी कविताएँ’’,

main or meri kavita
भले ही हिन्दुस्तानी संस्कृति-व्यवस्था, आचार-विचार, खान-पान, रीति-रिवाज, व पर्व-त्योहार नेपाली जन-जीवन को पूरी तरह प्रभावित कर रहा हो, तथापि इस मूल्क में भाषाई विद्वेष की परंपरागत लडाई आज भी जारी है,ऐसे में नेपाल में रहकर हिन्दी की सेवा मील का पत्थर से कम नहीं। नेपाल में पिछले 22-23 वर्षों से और नेपाल से बाहर भारत, चीन, सिंगापुर, फिलिपिंस व अन्य अलग-अलग देशों की साहित्यिक सभाओं-गोष्ठियों में पूरी संजीदगी के साथ भाग लेती रहीं डाॅ0 संजीता वर्मा संयोग की हाल ही में प्रकाशित पुस्तक मैं और मेरी कविताएॅ इसका ज्वलंत प्रमाण है। 

विश्व के मानचित्र पर एक लोकतांत्रिक देश के रूप में हाल हीं में प्रतिष्ठापित नेपाल पिछले कई वर्षों से माओवादियों की शरणस्थली रहा है। नेपाल पर राजघराने की सत्ता और माओवादियों के बीच लंबे संघर्ष का परिणाम यह रहा कि इस देश ने हजारों भावी कर्णधारों को अपनी उपस्थिति में बेवजह दम तोड़ते देखा। औरत मर्द, बच्चों को अपनी बची उम्र की सलामती के लिए प्रार्थनारत देखा गया। एक कवियत्री के रूप में डा0 संजीता वर्मा श्संयोगश् ने नेपाल की आवोहवा में वर्षों तक जो कुछ देखा, सुना, महसूसा और अपनी आत्मा में आत्मसात किया, पूरी ईमानदारी के साथ उन्होंने इस पुस्तक में उकेर दिया। पुस्तक की पहली कविता की पीड़ा बड़ी आसानी से समझी जा सकती है- आजकल तुम/उखड़े-उखड़े से/उदास, आतंकित और त्रस्त दिखते मेरे देश नेपाल तुम.............. को पढ़कर नेपाल की तत्कालीन परिस्थितियों से पैदा हुए कवियत्री. की मनोभावनाओं से बखूबी परिचित हुआ जा सकता है। इसी कविता की आगे की पंक्तियाँ कुछ इस तरह की है-घोषलों के उजड़ जाने से चिडि़यों की मानिंद/एक छोटी सी अपनी दुनिया में/गुलमोहर की तरह/हॅंसते हुए लोगों ने देखा है तुम्हें/नाज था अपने दरख्तों पर जिसे/शांति की रंगीन कलियाॅं जहाॅं खिला करती थी/कविता की अंतिम पंक्तियाॅं कुछ इस तरह है। लहुलुहान होते जा रहे तुम्हारे अंग/मानो केक्टस के काॅंटों ने बिंध डाला हो/ तुम्हारी गोद को शरणस्थली बना/ असंख्य प्राणी हॅंसते - मुस्कुराते/ अपनी उम्र बढ़ाया करते थे/हाशिये पर आज वे किन्तु /कितने डरावने व विभत्स हो गये मेरे देश नेपाल तुम.......... 

पुस्तक की पहली कविता का आगाज हीं यह तय कर देता है कि किन परिस्थितियों में लंबे समय तक लोगोें ने अपना संघर्ष पूर्ण जीवन व्यतीत किया होगा। छोटी-बड़ी चैंसठ कविताओं से सुसज्जित इस पुस्तक की तमाम कविताएॅं अलग-अलग कालावधि के दौरान कवियत्री के भोगे यथार्थ का संजीदा परिचय कराती है। जब किसी देश की आंतरिक व्यवस्था में आतंक, भय, दहशत व दरिंदगी अपनी-अपनी सीमाएॅ लाॅघ रही होती है, किसी साहित्यकार की मनोदशा अन्दर ही अन्दर किन-किन कल्पनाओं, सोंच को आकार प्रदान कर रही होती है, बखूबी समझा जा सकता है। जरा इन पंक्तियों पर गौर फरमाऐगें-काले पत्थरों वाला पहाड़/अभी भी/जो अपनी गहरी चिंतन में शामिल करना चाहता है मुझे/हर रोज एक ताजे स्मरण के साथ।  एक पहाड़ अपनी मूक अभिव्यक्ति से आखिर संदेश क्या देना चाहता है ? कहीं न कहीं कोई टिस जरुर है, जो कवियत्री को बाध्य करता है चिंतन-मनन को। प्रेम-घृणा, छल-पाखंड, विरह-वेदना तथा अपने-पराये की समझदारी को खुलकर प्रदर्शित करने को। इस काव्य पुस्तक की सारी कविताएॅ पढ़ने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुॅचा जा सकता है कि कविताएॅ कमोवेश  अपने अर्थों को पटल पर रखने में सफल हुई है, लेकिन कुछ कविताएॅ उनके अर्थों के साथ सही रुप से नहीं परोसी गईं। कविता लिखने की जल्दबाजी ने कवियत्री को उनके गंभीर चिंतन से भटकाया है, फिर भी घर-परिवार, रोजी-रोजगार, एवं रिश्ते-नातों की परिधि में बॅधकर डाॅ0 संजीता वर्मा का यह प्रयास एक बड़ी प्रेरणा से कम नहीं। 

पुस्तक का नामः-मैं और मेरी कविताएॅ
कवियित्रीः----डाॅ0 संजीता वर्मा संयोग
प्रकाशकः----नेहा प्रकाशन गृह, काठमाण्डू, नेपाल
पृष्ठ संख्याः--74
पुस्तक का मूल्यः-200 रु मात्र (नेपाली करेंसी)

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