उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन मामले पर केन्द्र को फिर फटकार - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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बुधवार, 20 अप्रैल 2016

उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन मामले पर केन्द्र को फिर फटकार

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देहरादून / नैनीताल 20 अप्रैल, नैनीताल उच्च न्यायालय ने उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लागू किए जाने को चुनौती देने वाली याचिका पर आज केन्द्र सरकार को फिर फटकार लगाई और कल इस मामले में फेैसला आ सकता है। राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत की राष्ट्रपति शासन लागू करने और लेखानुदान अध्यादेश को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर महावीर जयंती का अवकाश होने के बावजूद न्यायालय में आज भी बहस हुई।इस मामले में कल भी सुनवाई होनी है और संभवत: कल फैसला भी आ जायेगा। मुख्य न्यायाधीश केएम जोसेफ और न्यायमूर्ति वीके बिष्ट की खंडपीठ ने तीसरे दिन सुनवाई के दौरान सख्त टिप्पणी करते हुए कहा“राष्ट्रपति का आदेश राजा का आदेश नहीं है। पूर्णशक्ति किसी को भी गलत बना सकती है और राष्ट्रपति तथा न्यायधीश भी गलती कर सकते हैं। उनके फैसले की भी समीक्षा की जा सकती है।”न्यायालय ने यह टिप्पणी अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता की दलीलों पर की। खंडपीठ ने यह भी पूछा कि राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश संबंधी जो दस्तावेज उन्होंने न्यायालय को दिए हैं क्या उन पर भी चर्चा हो सकती है। क्या उस दस्तावेज का जिक्र आदेश में किया जा सकता है। इस पर याचिकाकर्ता के वकील ने कहा कि कर्नाटक के एसआर बोम्मई मामले में गोपनीय दस्तावेज का जिक्र किया गया है।
नैनीताल न्यायालय ने फिर पूछा कि केंद्रीय मंत्रिमंडल के उस निर्णय को सार्वजनिक क्यों नहीं किया जा सकता। न्यायालय के इस सवाल पर केंद्र के वकील ने कहा कि इस पर चर्चा की जा सकती है। श्री मेहता ने कहा कि विधान सभा में विनियोग विधेयक गिरने से राज्य सरकार अल्पमत में आ गई थी। उन्होंने विधि आयोग की सिफारिश और मद्रास उच्च न्यायालय के फैसले का भी हवाला दिया। इस पर न्यायालय ने कहा कि यह कैसे कहा जा सकता है कि विनियोग विधेयक गिर गया था। यह कैसे प्रमाणित किया जा सकता है। श्री मेहता ने जवाब दिया कि मत विभाजन की मांग संवैधानिक है। विधान सभा अध्यक्ष मांग स्वीकारने को बाध्य हैं। उन्होंने सरकारिया आयोग की सिफारिश का हवाला दिया। इस पर न्यायालय ने सवाल उठाते हुए कहा कि सिफारिश को उच्चतम न्यायालय ने कानून नहीं माना है। न्यायालय ने यह भी पूछा कि राज्यपाल ने रिपोर्ट में नौ बागियों का जिक्र क्यों नहीं किया। सिफारिश में 27 भाजपा विधायकों का ही हवाला क्यों दिया। इस पर श्री मेहता ने तर्क दिया कि ये सवाल राष्ट्रपति ने नहीं उठाया। वह चाहते तो राष्ट्रपति शासन की मंत्रिमंडल की सिफारिश को पुनर्विचार के लिए लौटा सकते थे। इसका मतलब है कि राज्य में संवैधानिक संकट था। इस पर न्यायालय ने टिप्पणी की कि राष्ट्रपति और न्यायाधीश भी गलती कर हो सकते हैं। उनके फैसले की भी समीक्षा की जा सकती है। न्यायालय ने कहा कि राज्यपाल ने नौ बागियों का जिक्र नहीं किया तो केन्द्रीय मंत्रिमंडल को कैसे पता चला कि मत विभाजन की मांग 35विधायकों ने की थी। बागी विधायकों के अधिवक्ता दिनेश द्विवेदी ने दलील दी कि जब विधायकों ने मत विभाजन की मांग की तो अध्यक्ष ने उसे क्यों नहीं माना। अध्यक्ष को पता था कि सरकार अल्पमत में है। न्यायालय ने श्री रावत के वकील अभिषेक मनु सिंघवी से सवाल किया कि अध्यक्ष ने विनियोग विधेयक पर मत विभाजन की मांग क्यों नहीं मानी, जबकि नियम है कि एक भी सदस्य मांग करता है तो मत विभाजन होना चाहिए। अध्यक्ष हाथ खड़े करा सकते थे, लेकिन ध्वनि मत से विधेयक पारित कैसे कर दिया। इस पर श्री सिंघवी ने कहा कि अध्यक्ष और मुख्यमंत्री गलती करते हैं तो नियमानुसार कार्रवाई का प्रावधान है, लेकिन इस आधार पर अनुछेच्द 356 का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।

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