विशेष आलेख : खुद के संघर्ष से मिलेगा हक - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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बुधवार, 8 मार्च 2017

विशेष आलेख : खुद के संघर्ष से मिलेगा हक

बात समानता की नहीं स्वीकार्यता की हो। बात समानता के अधिकार के बजाय सम्मान के अधिकार की हो। और इस सम्मान की शुरुवात स्त्री को ही करनी होगी स्वयं से। सबसे पहले वह अपना खुद का सम्मान करें, अपने स्त्री होने का उत्सव मनाएं। स्त्री समाज को अपने अस्तित्व का एहसास कराएं कि वह केवल एक भौतिक शरीर नहीं वरन एक भौतिक शक्ति भी हैं। एक स्वतंत्र आत्मनिर्भर व्यक्तित्व है जो अपने परिवार और समाज की शक्ति है न कि कमजोरी जो सहारा देने वाली है। सर्वप्रथम वह खुद को अपनी देह से उपर उठकर स्वयं स्वीकार करें तो ही वह इस देह से इतर अपना अस्तित्व समाज में स्वीकार करा पायेंगी। स्त्री समाज एवं परिवार का हिस्सा नहीं पूरक हैं 

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बेशक,स्त्री सशक्तिकरण का मतलब केवल बाहरी आक्रमण से स्वयं को बचाना नहीं हैं, बल्कि आतंरिक शक्ति से भी लैस होना है, जो आत्मविश्वास, आत्मसम्मान और अन्वेषण के माध्यम से प्रकट होता है। यानी अधिक उत्तरदायित्वों का वहन करना और घर-बाहर दोनों जगहों पर सामंजस्य बनाएं रखने में सफल होना। एक सही निर्णय लेकर एक बड़ी संख्या के हित में काम करने का हुनर स्त्रियों के पास नया नहीं हैं। बरसों से दबे हुए इस हुनर को बस उजागर करने की जरुरत हैं। संविधान में कई परिवर्तन किए गए और नियम-कानूनों में भी कई बदलाव लाएं गए, जिनसे स्त्रियां आज पुरुषों के समकक्ष खड़ी हो सके। शिक्षा और करियर में विशेष आरक्षण देने के बाद भी आशानुरुप उनकी स्थिति में बदलाव क्यों नहीं हो पाया है? मतलब साफ है, इन सभी प्रयासों में स्त्री ने सरकारों और समाज से अपेक्षा की पर स्वयं को बदलने के लिए कभी प्रयत्न नहीं किया। जिस दिन स्त्रियां अपनी लड़ाई स्वयं लड़ेगी, वे जीत जायेंगी। 

माना कि आज के दौर में तमाम दकियानुसी पंरपराओं को दरकिनार कुछ महिलाएं घर की ड्योढ़ी लांघकर बाहर निकल रही हैं। उन्हें अपनी क्षमता पर भरोसा है और वे चाहती हैं कि उन्हें बराबरी का हक मिले, लेकिन उन्हें हर क्षेत्र में पितृ सत्ता के बनाएं जालों से निकलने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। वह संघर्ष वास्तव में बराबरी का संघर्ष नहीं, बल्कि अपनी पहचान को बरकरार रखने का हैं। लेकिन यह कुछ के भवरजांल से मुक्ति पानी होगी। इसके लिए बड़ी संख्या में महिलाओं को आगे आना होगा। महिलाओं को अपनी शक्तियों और क्षमताओं का एहसास स्वयं कराना होगा। उन्हें समझना होगा कि शक्ति का स्थान शरीर नहीं हृदय होता है। शक्ति का अनुभव करना एक मानसिक अवस्था है। स्त्री की पुरुष से भिन्नता ही उसकी शक्ति हैं, उसकी खुबसूरती है। इसे उसे अपनी शक्ति के रुप में स्वीकार करना होगा, कमजोरी बनाकर नहीं। 


महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार दिलाने के लिए भारत समेत संपूर्ण विश्व में कानूनी तौर पर नौकरी और पढ़ाई के अलावा कई क्षेत्रों में आरक्षण मिले हुए हैं। शिक्षा और करियर में विशेष आरक्षण देने के बावजूद बड़ा बदलाव नहीं हो पा रहा है। आज भी कन्या भ्रूण हत्याएं हो रही हैं? आज भी हमारी बेटियां दहेजरुपी दानव की भेंट चढ़ रही हैं। कठोर से कठोर कानून भी महिलाओं पर होने वाले अत्याचार नहीं रोक पा रहे हैं। कहा जा सकता है सुविधाओं का कोई महत्व नहीं, जब तक सुविधा लेने वाला उसे स्वीकार करने के लिए तैयार न हों। प्रथम दृष्टया उन्हें यह सोचना होगा कि वे इतनी सक्ष्म है कि किसी भी समस्या को झेल सके और हल निकाल सके। अपने जीवन की कुंजी हमारे हाथ में हैं और इसे अपनी तरह से इस्तेमाल करने की आजादी भी। यह आवश्यक है कि हम अपना लक्ष्य पहचानें और इसे पाने का सुगम रास्ता निकालें। एक और अपनी कमजोरी और अपनी शक्ति स्वयं पहचानती है। दुसरों द्वारा बताएं रास्ते उसको जंच नहीं सकते। एक स्त्री अच्छी तरह जानती है कि वह स्त्रियों की कंपनी में रहना चाहती है या पुरुषों के बीच रहकर अपने काम निष्पादित कर सकती हैं। वह अपने निर्णय को प्राथ्मिकता देती है या समूह निर्णय को? जब वह यह सोचने लगेगी तो परिवर्तन अपने आप दिखेगा। क्योंकि इन सभी प्रयासों में स्त्री ने सरकारों और समाज ने अपेक्षा की, किन्तु जिस दिन वह खुद को बदलेगी, अपनी लड़ाई स्वयं लड़ेगी वह जीत जायेंगी। वस, जरुरत है तो उन्हें जानने की और स्वयं के सोच में थोड़े परिवर्तन की। क्योंकि सर्वविदित है स्त्री बाहर से फूल सी कोमल है लेकिन भीतर से चट्टान सी, इच्छाशक्ति से परिपूर्ण और सबसे महत्वपूर्ण, वह शक्ति जो एक महिला को ईश्वर ने दी है, वह है उसकी सृजनशक्ति। ईश्वर ने धरती पर जीवन के सृजन का जरिया स्त्री को बनाकर उस पर अपना भरोसा जताया है। उसने स्त्री और पुरुष दोनों को अलग-अलग बनाया है और वे अलग-अलग ही हैं। यह हर स्त्री के समझने का विषय है कि स्त्री की पुरुष से भिन्नता ही उसकी शक्ति है, उसकी खुबसूरती है उसे वह अपनी शक्ति के रुप में ही स्वीकार करें, अपनी कमजोरी न बनाएं। 

यह खबर वाकई परेशान करने वाली है कि देश में पिछले एक दशक में कामकाजी महिलाओं की संख्या घटी है। चैथे नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के अनुसार 2005-06 में वेतनभोगी महिला कर्मचारियों की संख्या 28.6 फीसदी थी, जो 2015-16 में 24.6 प्रतिशत रह गई। चार प्रतिशत की गिरावट कोई मामूली बात नहीं है। यह ऐसे समय में हुआ है, जब महिलाओं के विकास और सशक्तीकरण की बड़ी-बड़ी बातें कही जा रही हैं और जोरशोर से यह दोहराया जा रहा है कि औरतें हर मोर्चें पर आगे आ रही है। पर जमीनी हकीकत कुछ और है। पिछले कुछ वर्षों में महिलाओं ने बड़ी संख्या में नौकरी छोड़ी भी है। खासकर दिल्ली के निर्भया कांड के बाद अनेक शहरों से महिलाओं के काम छोड़कर घर बैठ जाने की खबरें आईं। दरअसल सरकार ने निर्भया कांड के बाद महिला सुरक्षा को लेकर कई तरह के कदम उठाने की घोषणा की थी, पर तमाम घोषणाएं कागज पर ही रह गईं। महिलाओं के साथ अपराध में कोई कमी नहीं आई है। इसलिए शिक्षा का स्तर बढ़ने के बावजूद कामकाजी महिलाओं की संख्या नहीं बढ़ पा रही है। समाज में असुरक्षा के अलावा नौकरी की असुक्षा भी एक वजह है। आज भी देश के सरकारी या निजी तंत्र में स्त्री कर्मियों के प्रति सोच बदली नहीं है। 

आधुनिकता और समानता का राग अलापने वाले वाले कॉरपोरेट सेक्टर में भी महिलाओं को वह सब नहीं मिल पाया है, जिसकी वे हकदार हैं। आम तौर पर कंपनियां महिलाओं को टूरिंग सेल्स जॉब से दूर रखती हैं क्योंकि इसमें यात्रा करने की जरूरत पड़ती है। उन्हें निर्णायक पदों से वंचित होना पड़ता है और कई तरह के भेदभाव झेलने पड़ते हैं। अक्सर मैटरनिटी लीव लेने के बाद महिलाओं की नौकरी चली जाती है। और उनकी जगह किसी महिला से ही भरी जाए, यह जरूरी नहीं है। कई जगहों पर एक ही काम के लिए महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले कम वेतन मिलता है। इन्हीं सब वजहों से जैसे-जैसे महिलाएं करियर में पायदान पर ऊपर जाती हैं, उनकी संख्या कम होती जाती है। आज ऊंची जगहों पर काम कर रही अनेक वरिष्ठ महिला प्रफेशनल्स ने स्वीकार किया है कि उन्हें नौकरी में भेदभाव सहना पड़ा है। साफ है कि अभी महिलाओं के लिए बहुत कुछ किया जाना बाकी है। नौकरीपेशा औरतों की संख्या में कमी हमारे विकास कार्यों पर एक प्रश्नचिह्न की तरह है। यह राष्ट्रीय चिंता का विषय होना चाहिए कि कैसे कामकाजी महिलाओं की तादाद बढाई जाए और हर तरह की नौकरियों में उन्हें बराबर की जगह मिले।  

बहरहाल, नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के कुछ आंकड़े राहत भी देते हैं। जैसे महिलाओं की साक्षरता दर बढ़ी है। वर्ष 2005-06 में उनकी लिटरेसी 55.1 प्रतिशत थी, जो वर्ष 2015-16 में बढ़कर 68.4 फीसदी हो गई। कम उम्र में बेटियों की शादी कर देने की प्रवृत्ति में कमी आई है। वर्ष 2005-06 में 47.4 प्रतिशत लड़कियों की शादी 18 से कम उम्र में कर दी गई थी पर वर्ष 2015-16 में ऐसी लड़कियों की संख्या घटकर 26.8 रह गई। लेकिन बड़ा सवाल तो यह है कि इस आधुनिकता की चकाचैंध में हर रोज फैशन के साथ मोबाइल बदल रहे है। मगर, दुर्भाग्य है आजादी के 69 साल बाद भी हमारी करोड़ों माताएं-बहने शौच के लिए शाम ढ़लने का इंतजार करती है। कहीं खुले में शौच करने को विवश हैं, तो कहीं घंटों लाइन में लगकर अपनी बात की प्रतिक्षा। बात आंकड़ों की जाएं तो घरों में शौचालय न होने के नाते भारत में 29.2 करोड़ महिलाएं खुले में शौच करती है। 12.1 फीसदी ऐसी महिलाएं है जो घर से बाहर शौच के लिए निकली तो उनके साथ कोई न कोई वाकया हो गया। इनमें अधिकतर केस गांवों की है, जो पुलिस रिकार्ड में आई। जबकि ऐसे एक-दो नहीं अनगिनत मामले घर के ढ़योड़ी के भीतर सिर्फ इसलिए दफन हो गयी कि उन्हें लोकलाज का खतरा था। 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वच्छता के प्रतीक राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के 150 वीं जयंती 2 अक्टूबर 2019 तक देश को संपूर्ण स्वच्छता समर्पित कर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करना चाहते हैं। उनका दावा है वर्ष 2019 तक एक भी महिलाएं शौच के लिए शाम ढ़लने का इंतजार नहीं करेगी। यानि हर गांव का घर शौचालय युक्त हो जाएगा। लेकिन बड़ा सवाल तो यही है मोदी की सरकार को दो साल बीत गए है, लेकिन आंकड़ों में कमी नहीं आई है। दरअसल, स्वच्छता का संबंध सीधे तौर पर हमारे सामाजिक ताना-बाना से जुड़ा हुआ है। आज भी देश में एक लाख लोग सिर पर मैला ढ़ोने का काम करते हैं। इस सोच को बदलनी होगी। जिस देश में गांधी जी जैसे महान पुरूष पैदा हुए जो अपना मल खुद साफ करते थे, उस देश में यह प्रथा अब तक क्यों चल रही है। धन्य हैं मोदी जिसने संपूर्ण स्वच्छता का नारा देकर देश के हर गांव-घर में शौचालय उपलब्ध कराने को ठानी है। अब देखना है उनका यह हठ कहां तक सफल हो पाता है। 





(सुरेश गांधी)

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