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सोमवार, 27 नवंबर 2017

आलेख : “चीनी व्यापार के बदले स्वदेशी विकास”

भारत और चीन के बीच व्यापार संबंध मुख्य रिश्ते का आधार है. दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाएं दुनिया की बड़ी अर्थव्यस्थाओं में गिनी जाती हैं.दोनों देशों के बीच व्यापारिक रिश्ते की शुरुआत साल 1978 में हुई,लेकिन साल 2000 में आपसी व्यापार केवल तीन अरब डॉलर का था, किन्तु अब यदि आंकड़ों पर नज़र डालें तो भारत और चीन के बीच कुल व्यापार वर्ष 2012-13 में चीन ने 35,791,414.74 लाख रूपये का और भारत ने 430,348,024.65 लाख रूपये का किया था. वही वर्ष 2013-14में चीन ने 39,979,604.66 लाख रूपये का तो भारत ने 462,044,499.60 लाख रूपये का, वर्ष 2014-15 में चीन ने 44,259,579.31 लाख रूपये का और भारत ने 463,343,499.59 लाख रूपये का, वर्ष 2015-16 में चीन ने 46,297,612.08 लाख रूपये का और भारत ने 420,667,612.70 लाख रपये का, वर्ष 2016-17 में चीन ने 47,933,964.06 लाख रूपये का और भारत ने 442,709,434.77 लाख रूपये का व्यापार किया था. चीन के साथ व्यापार भारत के हक़ में नहीं है.'बैलेंस ऑफ ट्रेड' भारत के पक्ष में नहीं है.क्योंकि भारत का व्यापार घाटा वर्ष 2012-13 में 103,484,366.72. लाख रूपये का, वर्ष 2013-14 में 81,042,281.88, लाख रूपये का,वर्ष  2014-15 में 84073,816.08 लाख रूपये लाख का, वर्ष 2015-16 में 77,392,003.54 लाख रूपये का, वही वर्ष 2016-17  में यह आंकड़ा 72,823,683.67 रूपये का व्यापार घाटा रहा, भारत के कुल व्यापारिक घाटे में से 44 प्रतिशत की घाटा अकेले चीन से हो रहा है.

इस समय हमारा सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर चीन बना हुआ है.भारतीय बाज़ार चीन पर बहुत अधिक निर्भर है, साधारण भाषा में यदि भारत और चीन के व्यापार को देखे तो भारत प्रतिवर्ष लगभग 3556 अरब रूपये चीन को भेंट में देता है.यदि चीन के साथ अपना दोस्ताना सम्वन्ध होता तब भी इस तरह का व्यापार चिंतनीय और निंदनीय था, और चीन तो सदा भारत को दबोचने को कृतसंकल्पित है ऐसे में जहाँ सरकार स्वदेशी छोटे और मंझोले उद्योग के विकास के लिए त्वरित कदम उठाये वहीं भारतीय समाज और भारत के उद्योगपतिओं को भी इस दिशा में सोचना ही होंगा. चीन के बाद भारत का सबसे बड़ा आयात अमेरिका, सऊदी अरब और अमीरात से होता है. लेकिन चीन से होने वाला आयात इन तीनों देशों से होने वाले आयात से अधिक है. 

भारत चीन से जो चीजें आयात करता है उनमें मोबाइल, टीवी, चार्जर, मेमोरी कार्ड और म्‍यूजिक उपकरण सबसे अहम हैं. इसके अलावा बर्तन, ऑटो एसेसरीज, बिल्‍डिंग मैटीरियल, सेनेटरी आइटम, किचन आइटम, टाइल्‍स, मशीनें, इंजन, पंप, केमिकल, फर्टिलाइजर, आयरन एवं स्‍टील, प्‍लास्‍टिक, बोट और मेडिकल एक्‍यूपमेंट शामिल हैं. भारत में चीनी टेलिकॉम कंपनी 1999 से ही हैं और वे काफ़ी पैसा कमा रही हैं. भारतीय सोलर मार्केट चीनी उत्पाद पर निर्भर है. इसका दो बिलियन डॉलर का व्यापार है. भारत का थर्मल पावर भी चीनियों पर ही निर्भर हैं. पावर सेक्टर के 70 से 80 फीसदी उत्पाद चीन से आते हैं. मेडिसिन के रॉ मटीरियल का आयात भी भारत चीन से ही करता है. इस मामले में भी भारत पूरी तरह से चीन पर निर्भर है. पिछले चार दशक में पश्चिमी तकनीक को चीन ने कॉपी किया और सस्ते में सामान बना बेचता है. 

गुजरात सरकार ने 2010 में नर्मदा नदी के किनारे सरदार बल्लभ भाई पटेल जी की 182 मीटर ऊंची मूर्ति लगाने के मंजूरी दी थी. इस प्रोजेक्ट को वर्तमान सरकार बनने के बाद वर्ष 2014 मे चीन के सुपुर्द कर दिया गया. गौरतलब है कि चीन की जियांगजी टॉन्गकिंग कंपनी अब 2,898 करोड़ रुपये की लागत से इस मूर्ति का निर्माण किया और इस मूर्ति पर भी मेड इन चाइना की मुहर लगी है . भारत-चीन व्यापार के आंकड़ों को देखें तो साफ है कि चीन की भारत में पैठ पटाखों से कहीं ज्यादा गहरी है. चीन से पटाखों का आयात 10 लाख डॉलर का भी नहीं होगा. विदेश व्यापार के आंकड़ों के मुताबिक, चीन से भारत का सबसे बड़ा आयात इलेक्ट्रॉनिक्स (20 अरब डॉलर), न्यूक्लियर रिएक्टर और मशीनरी (10.5 अरब डॉलर), केमिकल्स (6 अरब डॉलर), फर्टिलाइजर्स (3.2 अरब डॉलर), स्टील (2.3 अरब डॉलर) का है. चीन 21वीं सदी की महाशक्ति में रूप में उभर रहा है साथ ही वह खुद को जिम्मेदार अर्थव्यवस्था दिखाने की कोशिश करता है.चीन में कुशल श्रमिकों को नौकरियां ट्रेनिंग के बाद मिलती है. इस कारण उनका सामान हम से बेहतर होता है. भारत में कोई भी बढ़ई बन सकता है कोई भी सुनार बन सकता है. वर्तमान सरकार की स्किल डेवलपमेंट कार्यकर्म इस दिशा में साकारात्मक रोल अदा कर सकती बशर्ते उसे इमानदारी से जमीनी स्तर पर उतारा जाय. केंद्र सरकार का “मेक इन इंडिया” अभियान चीन के मुकाबले बढ़ रही उत्पादन की इसी खाई को पाटने के उद्देश्य से लाया गया है ताकि भारत को उत्पादन इकाइयां स्थापित करने के मामले में शीर्ष स्थल के रूप में गढ़ा जा सके और भारतीय में स्वदेशी भाव का जागरण और विकास हो सके.

आज भारत चीन के लिए उभरता हुआ बाज़ार है. इस बाज़ार की चीन उपेक्षा नहीं कर सकता है. चीन के महाशक्ति बनने के सपने को 'वन बेल्ट वन रोड' के जरिए समझा जा सकता है. इसके जरिए चीन आर्थिक तरीके से दुनिया पर राज करने का प्लान बना रहा है .चीन ने अपने यहाँ शोध और हिन्दी पढ़ने पर ज़ोर दिया है और हिन्दी के ज़रिए वह भारत और भारतीय समाज को भी समझ रहा है. चीन की 15 यूनिवर्सिटी में हिन्दी पढ़ाई जा रही है जबकि भारत की इक्के-दुक्के यूनिवर्सिटी में ही चीनी भाषा पढ़ाई जाती है और हमारे कितने यूनिवर्सिटी शोध के प्रति जागरूक है यह सर्वविदित है .भारत का मुंबई के पास जो नवशेरा पोर्ट है उसकी क्षमता महज़ तीन मिलियन टन की है. वहीं शंघाई पोर्ट की 33 मिलयन टन कंटेनर की क्षमता है. दोनों की क्षमता में भारी फ़र्क है और इसी से पता चलता है कि हम चीन के सामने कहां हैं.

भारत की अर्थव्यवस्था के लिए चीनी वस्तुओ का बहिष्कार और स्वदेशी कंपनियों का सत्कार है ताकि मेक इन इंडिया को सफल बनाया जा सके. आधुनिकतम तकनीक और शोध को अपनाकर भारत भी मैन्युफैक्चरिंग हब बन सके और विदेश से निर्यात में कमी लाकर आयात में इजाफा किया जा सके. भारत अपनी मैन्युफैक्चरिंग पर ध्यान देकर ही व्यापार घाटे को पाट सकेगा और सही मायने में अर्थव्यवस्था के अच्छे दिन आएंगे. चुनौती यह है कि पिछले दस से पंद्रह वर्षों के बीच बाकी देशों ने प्रतिस्पर्धा में खुद को इस हद तक सुधारा है कि भारतीय कंपनियां न तो मूल्य में और न ही गुणवत्ता में उनका मुकाबला कर सकती हैं.भारतीय उत्पादन क्षेत्र की समस्या बहुत गहरी है और इसे तुरंत में दुरुस्त नहीं किया जा सकता. वे कहते हैं,इसके अलावा एक नेहरूवियन विरासत भी है जो भारतीय उधोग को पर्तिस्पर्धा के बजाय सरकारी संरक्षण की खैरात पर जीने को सिखा रखा है इससे निजात पाना कठिन है.भारत केबल उपभोक्ता और खरीददार बना रहे यह नेहरूवियन सोच की पराकष्ठ थी.हमे चीनी वस्तुओ के प्रति अपनी सोच को देश हित के लिए कठोरता से बदलना ही होगा क्योंकि यदि समय रहते हम नही इस ड्रैगन के चाल को समझे तो भारत एकबार फिर विदेशी शक्तिओं के आर्थिक अधीनता के कैद में होगी.
             

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--संजय कु. आज़ाद---
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