विशेष आलेख : जाति बंधन मे फंसी राजनीति - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शनिवार, 11 अगस्त 2018

विशेष आलेख : जाति बंधन मे फंसी राजनीति

देश के राजनीतिक दलों ने वोट-बैंक की खातिर जनता को जातिगत आधार पर विभाजित करने का काम किया है। सन् 1947 मे मजहबी कसोटी पर भारत विभाजन के बाद महात्मा गान्धी, सरदार पटैल, जवाहरलाल नेहरू, समाजवादी बिचारक राम मनोहर लोहिया, जय प्रकाश नारायण, एकात्ममानववाद के प्रणेता दीन दयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेई आदि नेताओं को तत्समय यह अनुमान नहीं था कि भारत के शासकीय-अशासकीय कार्यालयों मे, प्रत्येक गली मुहल्लों मे, शैक्षणिक संस्थाओं मे, राजनीतिक पटल के प्रत्येक स्तर पर, चुनाव के समय टिकिट निर्धारण से लेकर चुनाव प्रचार मे, समाज के प्रत्येक स्तर पर जातिगत भेद-भाव की कैंसर रूपी बीमारी से देश की जनता ग्रसित होने लगेगी। अनुमान यह भी नहीं था कि स्वतंत्रता के छः दशक व्यतीत होने के बाद जाति-भेद मे द्वेष एवं ईष्र्या के साथ-साथ जाति-गत वैमनस्यता का बिकराल स्वरूप प्रकट होने लगेगा। देश की भोगोलिक सीमाओं की समस्या की तरह चिन्ताजनक अब यह भी है कि आम-जनता राष्ट्रहित एवं अपने क्षेत्र के विकास की भावना से परे हो कर जातिगत आधार पर निर्णय लेने लगी है। विषय बहुत गम्भीर है और इस पर यदि ध्यान नहीं दिया गया तो देश मे जातिगत आधार पर झगड़े-फसाद होने की संभावना से भी इन्कार नही किया जा सकता, बल्कि सच तो यह है कि अनेंकों प्रान्तों मे जातिगत झगड़े होने लगे हैं। डर यह है कि आने वाले समय मे जातिगत आधार पर क्षेत्र, गांव, मोहल्लों का विभाजन होने लगेगा और गृह-युद्ध जैसी स्थिति भी पनप सकती है। इसका प्रमुख कारण एक यह है कि देश के राजनेता जातिगत कट्टरता के साथ जनता को चिन्हित करते हुये ’’फूट डालो और राज्य करो’’ की नीति पर सियासती चालें चल रहे हैं। मई 2014 मे यू.पी. ने अपराध करने की बीभत्स घटनाओं की सारी हदें पार कर दी हैं। बंदायू मे दो नावालिग लड़कियों के साथ बलात्कार और उनकी हत्या के पीछे दबंगियों की जातिगत दबंगी से इन्कार नही किया जा सकता है। प्रशासनिक स्तर पर यह एक अनकहा सत्य है कि उत्तर प्रदेश मे प्रशासन पर जातिगत भावना भारी पड़ रही है। 

जाति-भेद को कट्टरता के साथ चिन्हित करते हुए जनसामान्य का विभाजन करने का कार्य और चुनाव के समय उसका लाभ लेने का उद्देश्य विश्वनाथ प्रताप सिंह के समय से प्रारम्भ हुआ था। उन्होंने मण्डल कमीशन के नाम पर अगड़े और पिछड़ों को विभाजित किया था। यद्यपि पिछड़े वर्ग को अपग्रेड किया जाना चाहिये, लेकिन प्रश्न तो यह है, पिछड़ा कौन है ? पिछड़ेपन की परिभाषा क्या है ? पिछड़ा होने की कसौटी क्या है ? लेकिन बिडम्बना तो यह है कि आर्थिक रूप से पीड़ित होना, सामाजिक स्तर पर तिरस्कृत होना, अशिक्षित होना, आदि अयोग्यताएं पिछड़ेपन की परिभाषा मे समाहित नहीं हैं और ऐसी ही अयोग्यताओं से सामान्य जाति के भी जो लोग पीड़ित हैं, वे दुखी हो रहे हैं। देश के समक्ष समाज की एक तस्वीर यह भी है कि पिछड़ी व अनुसूचित जाति के अनेकों चिन्हित व्यक्ति आर्थिक रूप से सम्पन्न भी हैं, पढ़े-लिखे हैं, सामाजिक स्तर पर प्रतिष्ठित भी हैं और राजनीतिक स्तर पर स्थापित हैं, फिर भी उन्हें पिछड़े व दलित कहा जा रहा है। यह कसौटी भले ही लाभ प्राप्त करने के लिये स्वपेक्षी होकर सही मानी जाने लगे लेकिन प्रश्न तो यह है कि क्या यह उचित है ? जातिगत आधार पर चिन्हित ऐसे दलित एवं पिछड़ों को स्वाभिमानी होकर क्या यह आवाज उन्हें स्वयं नहीं उठाना चाहिए कि दलित एवं पिछड़े जैसे विशेषण से उन्हें सम्बोधित नहीं किया जाए ? यदि वे ऐसा करेंगे तो उनके स्थान पर अंतिम पंक्ति मे बैठे जरूरतमन्द को ही लाभ मिलेगा। ऐसे पिछड़े व दलित भी तो अपने भाईयों के लिये कुछ त्याग करें। आरक्षंण का यही उद्देश्य है। परन्तु हो यह रहा है, सड़क किनारे फुटपाथ पर बैठे उस दलित व पिछड़े को, जो आर्थिक, सामाजिक रूप से तिरस्कृत है, उसे कोई लाभ नहीं मिल पा रहा है और उसके लिए जाति के आधार पर लाभ समेटने वाले भी कोई प्रयास नही कर रहे हैं। वस्तुतः हो यह भी रहा है कि जातिगत संगठन के तथाकथित नेता अपने दबाव और प्रभाव के परिणाम स्वरूप निजी स्वार्थपूर्ति मे मग्न हैं।
देश मे जाति के आधार पर वोट बटोरने का कार्य बड़ी कट्टरता तथा बिना किसी हया और शर्म के साथ मायावती, मुलायम सिंह यादव, लालू यादव आदि अनेकों राजलेताओं ने एक मुहिम चलाते हुये प्रारम्भ किया है। जब से राजनीति मे इन धारणांओं का उद्भव हुआ है, तभी से अपनी-अपनी राजनीतिक चालों को चलते हुये जाति विशेष तक सीमित होकर रह गये हैं। ऐसे राजनेता, जो जातिभेद का विभाजन और उससे लाभ लेने और देने का व्यवसाय सियासत के गलियारों मे करने लगे हैं, उससे ऐसा प्रकट हो रहा है कि इन्होंने ऐसी नीति बना ली हो कि, ‘‘जाति-लाभ की लूट है लूट सके तो लूट, अंत काल पछतायेंगे जब चुनाव जायेंगे छूट।’’ परन्तु इन्हें यह ध्यान नहीं है कि इतने विशाल देश मे किसी एक जाति के वोट बैंक के आधार पर सर्व मान्य राजनेता की स्थापना कभी नहीं हो सकती है। इन्हें सबको साथ लेकर चलने की नीति बनाना होगी तभी देश मे समरसता व एकता रह पायेगी। राजनीतिक स्वार्थ को देखते हुये यह बात मायावती को कुछ-कुछ समझ मे भी आई थी कि ‘‘तिलक तराजू और तलवार...........’’ का नारा अब नहीं चलने वाला है तथा कांशीराम और मायावती के जातिगत विष-वमन के भाषणों को जनता स्वीकार नहीं करने वाली थी। तभी तो उन्होंने उ.प्र. मे सतीश चन्द्र मिश्रा को आगे करके ब्राह्मण सम्मेलन मे ब्राह्मणों का टींका-माहुर करने का आयोजन कराया था। परन्तु एक बार सफलता प्राप्त कर सत्ता मे आने के पश्चात मायावती भी अपने राजनीतिक लाभ तक सीमित रहीं और कट्टरता के साथ जातिभेद पनपातीं रहीं, परिणामतः उस टींकाकरण के बाद वह सफल नहीं हो सकीे। कारण यही है कि उनके उद्देश्य मे सामाजिक समरसता की भावना नहीं थी। बल्कि जाति-भेद के आधार पर राजनीतिक स्वार्थ से पे्ररित रही है। परन्तु भारत का आम नागरिक जातिगत बन्धन के भ्रमजाल से मुक्त होकर भारत के विकास और सुशासन की ओर उन्मुख होते हुये भृष्टाचार और मंहगाई से निजात पाना चाहता है। 

जाति के आधार पर राजनीतिक लाभ लेने की होड़ हैं, इस दौड़ मे राष्ट्रीय स्तर के प्रमुख दल के नेता भी पीछे नहीं हैं। गत 02 मई 2014 को म.प्र. के एक मन्त्री सामूहिक विवाह सम्मेलन के अवसर पर कैलारस के बैहरारा स्थान पर पहुंचे, उन्होंने सम्वोधित किया था कि ‘‘प्रदेश मे यादवों की संख्या 80 लाख है, तो विधायक सिर्फ 7-8 ही क्यों बनते हैं, जिसकी जितनी संख्या उसके हिसाब से एम.एल.ए. होना चाहिये, यादव समाज का मुख्यमन्त्री क्यों नहीं हो सकता ?’’ ऐसा वक्तव्य पढ़कर मुझे प्रथम बार पता चला कि मन्त्री जी ‘‘यादव’’ हैं। मैं तो उन्हें सिर्फ एक सफल इन्सान और राजनेता ही समझता था। उन्होंने भी अपने आप को जातिगत चिन्हित करते हुये मुख्यमन्त्री नहीं बन पाने की पीढ़ा जाहिर कर दी। अप्रत्यक्ष रूप से उन्होंने यह भी कह दिया कि यादव एम.एल.ए. अधिक से अधिक होते तो जाति के आधार पर मुलायम सिंह की तरह वह भी मुख्य मन्त्री बनने का दावा ठोकते। ऐसे राजनेता संभवतः यह बिचार नहीं करते कि जातिगत अलंकार से विभूषित होने पर उनका कार्य-क्षेत्र संकुचित होता है या विस्तृत ? इन्हें यह भी नहीं पता कि जातिगत भावना का प्रसार करने पर उसकी सापेक्षता मे जितना लाभ नहीं होता, उतना संकुचित दायरे मे रहते हुये नुकसान अवश्य हो सकता है। मध्य प्रदेश मे एक राजनेता मेरे अच्छे परिचित हैं, उन्हें मेरे लेख और पत्र बहुत पसन्द आते हैं, वह अपनी ही जाति के प्रदेश-अध्यक्ष हैं, उनका एक कार्यक्रम अखबार मे इस प्रकार प्रकाशित हुआ कि (’फंला’ जाति) के प्रदेश अध्यक्ष पधार रहे हैं। यह समाचार भी उन्हीं की जाति के जिला अध्यक्ष द्वारा प्रसारित कराया गया और यह जानकर मुझमे प्रतिक्रिया हुई कि इनकी पहचान इनके कार्य और पद से नहीं है बल्कि जातिगत है, मुझे अनुभव हुआ कि मै परिचित होते हुये भी दूर हो गया हूं और वे लोग जो उनसे अपरिचित हैं और राजनीतिक क्षेत्र मे भिन्न बिचारधारा के हैं, लेकिन स्वजातीय हैं, वे निकट हो गये हैं। न्यूटन ने एक सिद्धान्त स्थापित किया था ‘‘प्रत्येक क्रिया की बिपरीत और बराबर प्रतिक्रिया होती है।’’ शायद इन्हें नहीं पता कि समाज मे जातिगत रहने पर इन्हें कितना संकुचित माना जाने लगता है। कुछ वर्ष पूर्व ग्वालियर-चम्बल संभाग मे एक जाति-विशेष के समाज का सम्मेलन सम्पन्न हुआ था, उसमे समस्त राजनीतिक दलों के राष्ट्रीय स्तर से लेकर जिला व तहसील स्तर के राजनेताओं ने भाग लिया था। अन्य स्थानीय नेताओं को उसमे इस कारण से शामिल नही किया गया था क्यों कि वे उस जाति-विशेष के नही थे। सम्मेलन मे एक साझा मंच पर इकट्ठे बिभिन्न राजनीतिक दलों एवं भिन्न बिचारधारा के उन नेताओं के सम्बोधनों मे यह भी उभरकर आया था कि वे, चाहे किसी भी दलं मे कार्य कर रहें हों लेकिन अपनी जाति को वे हमेंशा सहयोग करेंगे और तत्समय चर्चा यह भी थी कि इस संदर्भ मे शपथ भी ली गई थी। यहां प्रश्न यह है कि ऐसे सम्मेलनों के आयोजन मे विभिन्न राजनीतिक दलों के आपस मे बिरोधी विचारधारा के राजनेता एक मंच पर क्या अपनी ही पार्टी के साथ बेईमानी नहीं कर रहे हैं ? हमे वह समय भी याद है जब तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल मे कानपुर से ब्राह्मण समाज के प्रतिनिधि पंडितों ने अटल जी से निवेदन किया था कि कानपुर मे ब्राह्मण सम्मेलन का आयोजन करते हुये वे अटल जी का अभिनन्दन करना चाहते है,ं तो इस पर अटल जी ने साफ इन्कार करते हुये उन्हें जवाब दिया था कि वह अपनी जाति मे संकुचित होकर नहीं रहना चाहते, वह एक हिन्दू हैं और जाति-भेद की भावना से परे हैं। अटल जी जैसे अनेकों विचारक इस देश मे हैं और विषय पर सुसंगत रहते हुये ग्वालियर संभाग के आर.एस.एस. के तत्कालीन संघ चालक श्री रामरतन तिवारी को भी ब्राह्मण समाज के सम्मेलन मे अभिनन्दन हेतु आहूत किया गया था, तो उन्होंने भी जाति-भेद से ऊपर उठकर कार्य करने की प्रेरणा देते हुये आदर के साथ अस्वीकार कर दिया था। 
भारत की स्वतंत्रता के पश्चात देश के समस्त राजनेता अंग्रेजों के सिद्धान्त ‘‘डिवाईड एण्ड रूल’’ की नीति पर कार्य कर रहे हैं। इसी कारण बड़ी कट्टरता के साथ हिन्दू और मुस्लिम मे बटवारा, हिन्दू की जातियों मे बटवारा कराने का कार्य कर रहे हैं। मुसलमान की हालत तो ऐसी कर दी है कि कांग्रेस, मुलायम सिंह, मायावती, लालू यादव, ममता बेनर्जी आदि विभिन्न प्रकार के नकारात्मक वक्तव्यों को प्रसारित करते हुये, उन्हें हिन्दू से डराते हुये वोट बटोरने का कार्य करते रहे हैं। मुस्लिम वर्ग भी बिचलित हो जाता है कि ‘मैं इधर जाऊं या उधर जाऊं या मोदी जी से डर जाऊं।’ अब यही नीति अनुसूचित जाति व पिछड़े वर्ग के साथ अपनाई जा रही है। अर्थात हिन्दू की एकता और समरसता मे जहर घोलने का कार्य किया जा रहा है। देश के समक्ष जाति-भेद एक गम्भीर समस्या है। सन् 1947 की स्वतंत्रता के पूर्व जातिगत ईष्र्या एवं द्वेष की राजनीति नहीं थी और राजनीति मे जाति-भेद भी नहीं था। देश की इस बर्तमान दुर्दशा के लिये राजनीतिक दल अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकते हैं। अब यह अनुभव किया जा रहा है कि जाति-भेद की भावना मे दूसरी भिन्न जाति के प्रति वैमनस्यता, ईष्र्या, दुर्भावना रूपी बीमारी फैल रही है। जातिगत सम्मेलनों मे अपने स्वयं के सजातीय उत्थान और विकास पर चर्चायें कम होती हैं और दूसरी भिन्न जाति के प्रति विष-वमन अधिक होता दिख रहा है। सिर्फ अपनी ही जाति को फायदा पहुुंचाने की नीति मे अप्रत्यक्ष रूप से दूसरी जाति को नुकसान पहुंचाने का भाव भी समाहित है। इसका सर्वाधिक लाभ राजनीतिक दल उठा रहे हैं और जाति-भेद को समाप्त करने हेतु सामाजिक व स्वयंसेवी संस्थायें निष्क्रिय हो चुकी हैं। जो जातिगत सम्मेलनों मे भाग लेकर जातिगत भावना पर कार्य करने को उकसाते हैं, राजनीतिक दलों के आला-कमान अपने ऐसे नेताओं के बिरूद्ध क्यों कोई कार्यवाही नहीं करते हैं ? अथवा यह कहना भी संभवतः गलत नही होगा कि उनके आला-कमान की भी मौन स्वीकृति रहती है। इस दिशा मे सख्ती के साथ यदि अंकुश लगाना है तो शासकीय स्तर पर, कानून के स्तर पर, सामाजिक स्तर पर कुछ ठोस एवं कठोर कदम उठाना होंगे। 

देश की आम जनता की यह अपेक्षा है कि भारत के प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र भाई मोदी न केवल जातिगत राजनीति के बिरोधी हैं, बल्कि भारत की आम जनता मे जाति-भेद के वर्गीकरण को पनपने नहीं देंगे। देश के समक्ष इस गम्भीर समस्या के निदान के लिये श्री नरेन्द्र भाई मोदी को देश-हित मे तथा देश की एकता एवं अखण्ड़ता को स्थापित करने के लिये कुछ कठोर निर्णय लेने होंगे। मेरा सुझाव है कि प्रथमतः यह कार्य करना होगा कि जितने भी जातिगत संगठन इस देश मे संचालित हैं अथवा पंजीकृत हैं, उन पर प्रतिबन्ध लगाना होगा। जातिगत संगठनों का पंजीकरण पूर्णतः बन्द करना होगा। प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप मे आयोजित जातिगत सम्मेलन इस सीमा तक प्रतिबंधित करना होंगे कि जो भी जातिगत सम्मेलन का आयोजन करेगा अथवा ऐसे आयोजनों मे जो भी शामिल होगा, उसे अपराध की श्रेणी माना जावे और इस हेतु दण्ड विधान मे संशोधन करना होंगे। सख्ती के साथ नियम बनाना होगा कि केन्द्र अथवा राज्य सरकार का कोई भी मन्त्री अथवा शासकीय अधिकारी अथवा शासकीय सेवक अपनी अथवा किसी भी जातिगत संगठन का पदाधिकारी एवं सदस्य नहीं होगा और न ही ऐसे जातिगत कार्यक्रमों मे भाग लेगा। राजनीतिक दलों के सन्दर्भ मे भी नियम बनाना होंगे कि जातिगत समीकरण के आधार पर इनके कार्य एवं उद्बोधन होने पर इनकी मान्यताएं समाप्त करना होंगी।  किसी भी प्रकार के ऐसे जातिगत कार्य, जिनमे किसी अन्य दूसरी जाति के प्रति द्वेषात्मक उद्बोधन हों अथवा राजनेताओं के जातिगत वक्तव्य, पूर्णतः प्रतिबंधित करना चाहिये। इस कार्य मे उच्च-जाति, निम्न-जाति, अगड़े, पिछड़े के भेदभाव से परे हो कर कार्य करना होगा।





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---राजेन्द्र तिवारी---
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नोट:- लेखक पूर्व शासकीय एवं वरिष्ठ अभिभाषक, राजनीतिक, सामाजिक, प्रशासनिक आध्यात्मिक विषयों 
के समालोचक हैं।

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