- - संझेली के किसान पैक्स अध्यक्ष मो महबूब बताते हैं कि हाइब्रिड किस्मों में जिंक, डीएपी का दो बार इस्तेमाल करना पड़ता है, इससे खेतों की मृदा शक्ति पर असर पड़ रहा है
- - एक ओर नकरात्मक पहलु यह है कि देशी किस्मों में किसानों को बाजार से बीज नहीं खरीदना पड़ता है
पूर्णिया (कुमार गौरव) कम लागत और अधिक पैदावार के चक्कर में हाईब्रिड धान के बीजों का चलन तेजी से बढ़ा है। नगपुरिया, कनकजीरा, सीता सुंदरी, सेरा सादी व कलम दान जैसी धान की एक दर्जन से ज्यादा परंपरागत किस्में विलुप्त हो चुकी है। कुछ नाममात्र की बची है। जबकि ये किस्में थाली में खास स्वाद और सुगंध के लिए मशहूर थी। इनमें शरीर को प्रतिरक्षण क्षमता प्रदान करने का नैसर्गिक गुण भी विद्यमान है।
...सिर्फ नाम की बची हैं किस्में :
बड़ी मंसुरिया, कतिका, घिलोनवा, मोदक, बंगलवा एवं सोनाचुर आदि उपजाने में खाद पानी का ज्यादा इस्तेमाल नहीं करना पड़ता था। वहीं कुछ धान की किस्में मौसम के हिसाब से लगाई जाती हैं। सेलहा व साढ़ी को कम बारिश की आशंका पर किसान लगाते थे। इसके पौधों साठ दिन में तैयार हो जाते थे। इसके पौधे बेसरिया किसान अधिक बारिश होने की स्थिति में लगाते हैं। धान की इन पंरपरागत किस्मों को पुरखों ने मौसम के अनुकूल तैयार किया था।
...हाईब्रिड किस्मों से हुआ नुकसान :
कसबा प्रखंड के सबदलपुर किसान गंगा प्रसाद चौहान, पतलू साह, अयोध्या प्रसाद यादव, संजीव प्रसाद ने बताया कि धान की देशी किस्मों में पैदावार कम जरूर होती थी। लेकिन इसकी लागत काफी कम आती थी। किसान मानते हैं कि नई प्रजाति के धान के बीज से पैदावर में तीस फीसदी वृद्धि जरूर हुई है। संझेली के किसान पैक्स अध्यक्ष मो महबूब बताते हैं कि हाइब्रिड किस्मों में जिंक, डीएपी का दो बार इस्तेमाल करना पड़ता है। इससे खेतों की मृदा शक्ति पर असर पड़ रहा है। एक ओर नकरात्मक पहलु यह है कि देशी किस्मों में किसानों को बाजार से बीज नहीं खरीदना पड़ता है। पैदावार में से ही पुष्ट दाने अगले साल बिचरा के लिए रख लिए जाते थे। जबकि हाइब्रिड बीजों का इस्तेमाल केवल एक बार ही हो सकता है।
...क्या कहते हैं पदाधिकारी :
प्रखंड कृषि पदाधिकारी राकेश मिश्र ने बताया कि देशी किस्मों में प्रकृति की आबोहवा से निपटने के नैसर्गिक गुण हैं। कई प्रजातियों को प्रजनक केंद्रों पर सुरक्षित रखा गया है। इन्हीं के सहारे नए बीजों का प्रजनन कराया जाता है।उन्नत बीजों से प्रति एकड़ पच्चीस क्विंटल से ज्यादा पैदावार हो रही है। वहीं देशी प्रजातियां 10-12 क्विंटल पैदावार देने में ही सक्षम थी।
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