लड़कियों की शादी की उम्र को 18 से 21 साल करने का फैसला ऐतिहासिक है। इससे समाज में ज़रूर सुधार होगा। खास तौर से तब जब भारतीय समाज हर तरफ बदलाव हो रहा हो। मतलब साफ है महिला सशक्तिकरण की तरफ उठा एक अहम कदम है। ऐसे में इसे धर्म की चश्में से देखना कहीं से भी न्याय संगत नहीं है। इससे महिलाओं की स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं तो दूर होंगी ही लड़का-लड़की के भेद को भी विराम लगेगा। ये कदम बराबरी का दर्जा होगा। ये कदम बाल विवाह को भी रोकने के काम आएगा, क्योंकि अभी 14-15 साल की लड़कियों को 18 का बताकर उनकी शादी कर दी जाती है। लेकिन अब ऐसे केस बहुत हद तक रुक जाएंगे। कहा जा सकता है इससे महिलाओं का संपूर्ण विकास होगा। वोट बैंक बने या ना बने लेकिन आधी आबादी में इससे खुशी की लहर है
21 वर्ष की उम्र में विवाह करने से महिलाओं में गर्भावस्था के दौरान मृत्यु की दर कम हो जाएगी। यानी इस फैसले का असर महिलाओं के स्वास्थ्य पर भी पड़ेगा इस फैसले का भारत के समाज पर भी गहरा असर पड़ेगा। लड़कियां अगर पढ़ लिखने के बाद शादी करेंगी तो इससे उनके प्रति रुढ़िवादी सोच में बदलाव आएगा। महिलाओं की ज़िम्मेदारी घर की रसोई और बच्चों के पालन पोषण तक सीमित नहीं मानी जाएगी। विवाह के फैसलों में लड़कियों की राय को भी ज्यादा महत्व मिलेगा। जैसा कि अभी बहुत कम मामलों में होता है। अभी लड़की पढ़ी लिखी होती है तो परिवार किसी भी लड़के से शादी कराने से पहले एक बार उसकी सहमति ज़रूर लेता है। लेकिन कम शिक्षित लड़कियों से उनकी राय नहीं पूछी जाती। वैसे भी बदलते भारत में लड़कियों की शादी की उम्र भी बदलती रही है। सबसे पहले साल 1929 में शारदा एक्ट में लड़कियों की शादी की उम्र 14 और लड़कों की 18 साल तय हुई थी। 1954 के द स्पेशल मैरिज एक्ट में सुझाव दिया गया कि लड़कों की शादी की उम्र 21 और लड़कियों की 18 की जाए। लेकिन ये सुझाव 1978 में जाकर माना गया, फिर शारदा एक्ट में संशोधन करके लड़कों की शादी की उम्र 21 साल और लड़कियों की 18 साल की गई और अभी तक देश में लड़का लड़की की शादी की उम्र यही थी। ये नियम यानि की ’कुमारी कन्या के पैर पूजना’ अर्थात कम उम्र में ही शादी कर देना हिन्दू समाज का भी हिस्सा था जिसकी वजह से दो पीढ़ी पहले तक की अधिकतर स्त्रियां अक्सर अशिक्षित या बमुश्किल पांचवी पास होती थी। ध्यान देने योग्य ये भी है की विवाह के पश्चात कम उम्र का मातृत्व घातक सिद्ध होता सकता है। किन्तु समय के साथ बदलाव को अपनाते हुए हिन्दू समाज ने बहुत सी कुरीतियों से पल्ला झाड़ लिया। स्वतंत्र भारत में विकास और बदलाव की हवा को अपनाते हुए सभी स्तरों के लोग आगे बढ़ने की कोशिश में रहें किन्तु मुस्लिम समाज के कई तबकों ने इसे धर्म की कट्टरवादिता के चलते अपनाने से इंकार किया और विकास की धारा में कहीं पीछे छूटते चले गए।
बाल विवाह पर कसेगा नकेल
आपको जानकर हैरानी होगी कि बाल विवाह से देश को 3.49 लाख करोड़ रुपये का नुकसान होता है। देश में अभी भी 23.3 फीसदी महिलाओं की शादी 18 से कम उम्र में होती है। 15 से 19 साल के बीच में 6.8 फीसदी महिलाएं या तो गर्भवती हैं या मां बन चुकी हैं। बाल विवाह रोकने के अलावा लड़कियों का स्कूल ड्रॉप आउट रेट भी कम होगा क्योंकि अभी कम उम्र में शादी की वजह से लड़कियों को स्कूल छोड़ना पड़ता है। एक आंकड़े के अनुसार, क्लास 1 से 5वीं तक सिर्फ 1.2 फीसदी लड़कियां स्कूल छोड़ती हैं। कक्षा 6 से 8वीं तक ये स्कूल छोड़ने वाली लड़कियां 2.6 फीसदी हैं। जबकि 9वीं से 10 में स्कूल छोड़ने वाली लड़कियों की संख्या 15.1 फीसदी हैं। बता दें, साल 1927 में बाल विवाह रोकने के मकसद से लड़कों के लिए न्यूनतम उम्र 18 और लड़कियों के लिए 14 साल करने का प्रस्ताव था। इसके बाद इस कानून में 1978 में संशोधन कर लड़कों के लिए शादी की न्यूनतम उम्र 21 साल और लड़कियों के लिए 18 साल कर दी गयी, मगर तब भी बाल विवाह नहीं रुका। फिर 2006 में बाल विवाह रोकथाम कानून लाया गया। इसमें बाल विवाह कराने वालों के खिलाफ दंड का भी प्रावधान हुआ। मौजूदा कानून में बाल विवाह पर दो साल जेल की सजा और एक लाख रुपये जुर्माने का प्रावधान है। कड़ी सजा के प्रावधान के बावजूद बाल विवाह की जड़ें इतनी गहरी हैं कि लोग कानून की परवाह नहीं करते। आज भी आखा तीज के मौके पर राजस्थान, बिहार और उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों में बाल विवाह होते हैं।
शहरी लड़कियां बन रही आत्मनिर्भर
शहरी लड़कियां 26 से 28 वर्ष की आयु में ही शादी करती नजर आ रही हैं। वे नौकरियां कर रही हैं और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं। वे अपने जीवन के फैसले खुद कर रही हैं। होता यह आया है कि जब करियर बनाने का समय आता है, तब अधिकतर लड़कियों की शादी हो जाती है। विश्व बैंक के आकलन के अनुसार भारत में महिलाओं की नौकरी छोड़ने की दर बहुत अधिक है। इसका एक बड़ा कारण शादी है। देखा गया है कि नौकरी छोड़ने के बाद ज्यादातर महिलाएं नौकरी पर नहीं लौटती हैं। एक सकारात्मक बात यह सामने आयी है कि दुनियाभर में विवाह की औसत उम्र कुछ बढ़ी है और बच्चों की जन्म दर कुछ कम हुई है, लेकिन ग्रामीण इलाकों में स्थिति विपरीत है। वहां कच्ची उम्र में ही लड़कियों की शादियां जारी हैं। नतीजतन लड़कियां जल्द मां बन जाती हैं और उसका खामियाजा उन्हें और उनके बच्चे, दोनों को उठाना पड़ता है। जिस भारतीय समाज में आज भी लोग बेटे-बेटियों में फर्क करते हैं, उसमें यह निश्चिय ही एक अहम संदेश है कि दोनों बराबर हैं।
पहले भी महिला कानूनों में बदलाव हुए है
भारत में 19वीं सदी से ही महिलाओं की स्थिति सुधारने के गंभीर प्रयास हुए हैं। अग्रणी समाज सुधारक राजा राममोहन राय ने समाज की तत्कालीन जड़ता पर प्रहार किए थे। उन्होंने सतीप्रथा के विरुद्ध 1818 में जनमत बनाया। वह श्मशानों में जाते और विधवाओं के रिश्तेदारों से आत्मदाह को रोकने का आग्रह करते। उन्होंने बहुविवाह का भी विरोध किया और महिलाओं को संपत्ति संबंधी अधिकार भी दिए जाने की मांग की। ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने भी 1855 में पुनर्विवाह के पक्ष में शक्तिशाली जनमत बनाया। विधवा पुनर्विवाह के पक्ष में कानून बनाने का अनुरोध किया और कानून बना भी। पहला कानूनी हंदिूू विधवा पुनर्विवाह कोलकाता में 7 दिसम्बर, 1856 को हुआ। उन्होंने 1850 में बाल विवाह के विरोध में भी जनमत बनाया। बहुविवाह के विरुद्ध भी वह सक्रिय रहे। तमिल कवि सुब्रमण्यम भारती ने ‘नारी स्वाधीनता’ लेख में स्त्री दुर्दशा के सुधार के लिए उत्तर वैदिक काल की गार्गी व मैत्रेयी का उल्लेख किया था। ज्योतिबा फुले, गोपाल हरि देशमुख, जस्टिस रानाडे, केटी तेलंग, डीके कर्वे और अनेक संस्थाओं ने भी महिलाओं की दशा सुधारने के लिए आंदोलन चलाया। उनके प्रयासों से 1891 में लड़कियों के विवाह की आयु 10 वर्ष से बढ़ाकर 12 वर्ष की गई थी।
तीन तलाक का खात्मा
शाहबानो मामले में न्यायालय का निर्णय स्वागतयोग्य था, लेकिन तत्कालीन सरकार ने कट्टरपंथी तत्वों के प्रभाव में उसे पलट दिया। ध्यान रहे कि अब वैसी सरकार नहीं है। भारी विरोध के बावजूद सरकार तीन तलाक कानून से पीछे नहीं हटी। कट्टरपंथी प्रतिगामी शक्तियों के सामने घुटने टेकने की आवश्कता नहीं है। सामाजिक सुधार की दिशा में सभी जरूरी कदम उठाए जाने चाहिए। समाज में सुधार की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है। संविधान निर्माता यह जानते थे। उन्होंने नीति निर्देशक तत्वों में राष्ट्रजीवन की तमाम अभिलाषाएं जोड़ी हैं। अनुच्छेद 38 का शीर्षक महत्वपूर्ण है, ‘कि राज्य लोककल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्यवस्था बनाएगा।’ यहां राज्य पर लोककल्याण की वृद्धि के लिए सामाजिक व्यवस्था बनाने का निर्देश है। अनुच्छेद-39 (क) में सभी पुरुष और स्त्रियों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन उपलब्ध कराने का निर्देश है। अनुच्छेद-44 अति महत्वपूर्ण है। इसमें ‘सभी नागरिकों के लिए एक सामान नागरिक संहिता’ बनाने का निर्देश है। भारत को संविधान निर्माताओं के ऐसे सभी आदेशों व सपनों को पूरा करना चाहिए।
--सुरेश गांधी--
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