आलेख : भीष्म पितामह के स्वर्गारोहण की तिथि है मकर संक्रान्ति - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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रविवार, 9 जनवरी 2022

आलेख : भीष्म पितामह के स्वर्गारोहण की तिथि है मकर संक्रान्ति

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यह सर्वविदित तथ्य है कि ऋतु परिवर्तन का पर्व मकर संक्रान्ति के दिन  सूर्यदेव उतरायण में प्रवेश करते हैं और सूर्य के उत्तर की ओर उदय होने की अवधि अर्थात उत्तरायण में दिन बढ़ता जाता है और रात्रि घटती जाती है। सूर्य की मकर राशि की संक्रान्ति से अर्थात उत्तरायण में सूर्य के प्रकाश की अधिकता के कारण इसे अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। और यही कारण है कि देश में मकर संक्रान्ति के दिन को अधिक महत्व दिया जाता है।  सूर्य देव के उत्तरायण में प्रवेश करने के पर्व मकर संक्रान्ति की महिमा का वर्णन संस्कृत साहित्य में वेद से लेकर पुराण तथा आधुनिक ग्रन्थों में विशेष रूप से की गई है। वैदिक ग्रन्थों में उत्तरायण को देवयान कहा गया है। हमारी संस्कृति का मुख्य ध्येय -तमसो मा ज्योतिर्गमय की भावना है। अर्थात अंधकार से प्रकाश की ओर चलें । यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में उत्तरायण के प्रथम या आरम्भ के दिन को अत्यधिक महत्व दिया जाता है और प्राचीन काल से ही इस दिवस को एक पर्व के रूप में मनाये जाने की परिपाटी है। मकर सक्रान्ति दिवस से पूर्व शीतकाल पूर्ण यौवन पर होता है जिससे लोगों को काफी कष्ट होता है। इस दिन व इसके बाद रात्रि काल घटने व दिवस की अवधि बढ़ने से सूर्य का प्रकाश अधिक देर तक मिलने लगता है जिससे मनुष्यों को सुख का अनुभव होता है। इस मनोवांछित परिवर्तन के कारण अपने उत्साह को प्रकट करने के लिए भी मकर संक्रान्ति के दिन को एक पर्व का रूप में मनाते हुए सूर्य को अर्ध्य देने व नाम, स्मरण, पूजनादि की परम्परा है। इस काल को उतम मानने की पराकाष्ठा का ही यह परिचायक है कि लोक व्यवहार में उतरायण काल में मृत्यु की प्राप्ति होने से उत्तमलोक अर्थात बैकुण्ठलोक की प्राप्ति सहज हो जाती है। महाभारत में वर्णित प्रसंग से यह उद्घाटित होता है कि ज्ञानी लोग अपने शरीर त्याग तक की अभिलाषा इसी उत्तरायण वा देवयान में रखते हैं। लोक व्यवहार में आज भी ऐसी अभिलाषा अर्थात सूर्य के उतरायण काल में मृत्यु की इच्छा रखने वालों की कमी नहीं है। ऐसे विचार वालों का मानना होता है कि उत्तरायण में देह त्यागने से उन की आत्मा सूर्य लोक में होकर प्रकाश मार्ग से प्रयाण करेगी। महाभारत की कथा से स्पष्ट है कि आजीवन ब्रह्मचारी रहे भीष्म पितामह ने इसी उत्तरायण के आगमन तक शर-शय्या पर शयन करते हुए देहत्याग वा प्राणोत्क्रमण की प्रतीक्षा की थी। और सूर्यदेव के उतरायण होने पर अपनी इच्छा मृत्यु ग्रहण कर स्वर्गारोहण की थी। यही कारण है कि मकर संक्रान्ति के ऐसे प्रशस्त महत्व व उतम समय को देखते हुए भारत में प्राचीन काल से ही मकर-संक्रान्ति अर्थात सूर्य की उत्तरायण संक्रमण तिथि को पर्व के रूप में मनाने की परम्परा विकसित हो गई । और यही कारण है कि भारत के प्रातः सभी प्रान्तों में मकर संक्रान्ति का पर्व चिरकाल से मनाया जाता रहा है। 

 

महाभारत के एक कथा प्रसंगानुसार महाभारत युद्ध में भीष्म पितामह अर्जुन के बाणों से बिंध जाने के बाद युद्ध करने में सर्वथा असमर्थ हो गये थे और उनके प्राणान्त का समय निकट आ गया था। यह अनुभव कर भीष्म ने अपने समीपस्थ लोगों से तिथि, महीना व अयन के बारे में पूछा? इस पर उन्हें बताया गया कि उस समय सूर्य के दक्षिणायन का काल चल रहा है। दक्षिणायन काल के विद्यमान होने का तथ्य जान लेने के बाद उन्होंने कहा कि अभी प्राण त्यागने का उत्तम समय नहीं है, अतः वह उत्तरायण के प्रारम्भ होने पर ही वे प्राणों का त्याग करेंगे। यह सर्वविदित है कि भीष्म पितामह बाल ब्रह्मचारी थे। उन्होंने ब्रह्मचर्य एवं साधना द्वारा मृत्यु व प्राणों को वश में कर रखा था। कथा के अनुसार वे धनुर्धारी अर्जुन को कह शरशय्या पर चले गये और सूर्यदेव के उतरायण होने के पश्चात ही उन्होंने इच्छा मृत्यु वरन की। महाभारत में उल्लिखित उक्त प्रसंग से स्पष्ट है कि मकर संक्रान्ति के दिन ही भीष्म पितामह ने अपने प्राणों का त्याग किया था । इससे यह स्पष्ट है संक्रान्ति की तिथि भीष्म की पुण्य तिथि भी है। भारतीय इतिहास के अनुशीलन से यह स्पष्ट होता है कि अपने महापुरुषों को उनके पुण्य तिथि के आधार पर स्मरण करने की परिपाटी देश में प्रचलित नहीं हैं , हाँ ! अपने महाप्रतापी पूर्वजों को उनके जन्म दिन पर याद करने की परम्परा देश में प्राचीन काल से ही विद्यमान है। लम्बी अवधि के काल क्रम की क्रूर पंजों में भीष्म के जन्म की तिथि तो सुरक्षित न रह सकी, अतः मकर संक्रान्ति को  उनकी पुण्य तिथि का दिन ही उनके स्मृति दिवस के रूप में मनाये जाने की परम्परा देश में चल पड़ी है। उतरायण काल में मृत्यु को उतम माने जाने के सिद्धान्त का वेदों व वैदिक साहित्य में कोई उल्लेख कहीं नहीं दिखाई देता है। खैर कारण कुछ भी रहा हो लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि महाभारत काल के दिनों में दक्षिणायन में मृत व्यक्ति की वह उत्तम गति नहीं मानी जाती थी जो कि उत्तरायण में प्राण छोड़ने पर होती है। इस कारण से भीष्म पितामह ने सूर्य के उतरायण होने पर अपनी प्राणोत्सर्ग की इच्छा व्यक्त की और सूर्य के उतरायण में प्रवेश करने पर अपनी इच्छा मृत्यु प्राप्त की । इस प्रकार मकर संक्रान्ति का दिन भीष्म के प्राणोत्सर्ग अर्थात स्वर्गारोहण की तिथि है।

 

यह सत्य है कि आज हमारे भारत सहित सम्पूर्ण विश्व पाश्चात्य शिक्षा पद्धति के कारण नैतिक पतन के साथ ही शारीरिक , मानसिक पतन की ओर जा रहा है और भारतीय जीवन पद्धति के विपरीत जीवन पद्धति के अपनाने के परिणामस्वरूप अल्प वय से वीर्यपात होने के कारण मनुष्य अल्पजीवी हो और कई प्रकार के रोगों से ग्रसित जीवन जीने कोई विवश है । ऐसे में मकर संक्रान्ति के दिवस पर सारा देश आजीवन ब्रह्मचर्यत्व पर अडिग रहे भीष्म पितामह की जीवन से ब्रह्मचर्य की शिक्षा व प्रेरणा ले सकता है। उनका नाम देवव्रत था और उन्होंने पिता की वचन की लाज रखने के लिए एक भीषण प्रतिज्ञा की थी जिसके कारण उनका नाम भीष्म हुआ और कौरव-पांडवों के पितामह होने के कारण वे भीष्म पितामह कहे गये ।भीष्म पितामह में अपने पिता को हर हाल में प्रसन्न रखने के लिए अपने वचन पर किसी भी परिस्थिति में डटकर कायम रहने की अद्भुत आकांक्षा थी जो बाद में भी उनके जीवन काल में सर्वत्र परिलक्षित होती रही  । पिता की प्रसन्नता के लिए ही युवक देवव्रत ने आजीवन ब्रह्मचारी रहने और अपनी सौतेली माता व उनके होने वाले पुत्रों की रक्षा करने, उन्हें ही राजा नियुक्त कराने व देश की सुरक्षा का व्रत लिया था। उनकी इसी प्रतिज्ञा के कारण वे भीष्म नाम से विभूषित किये गये ।उनका त्याग विश्व इतिहास में अपूर्व व अन्तिम होने के साथ प्रशंसनीय एवं अनुकरणीय है। अतः सूर्य के उतरायण के दिन उन्हें भी याद करना और उन्हें सम्मान देना अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन है। एक वैदिक सूक्ति है – 

ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युपाघ्नत।

 अर्थात- ब्रह्मचर्य रूपी व्रत से मनुष्य मृत्यु को परास्त कर सकता है।

 

भारतीय इतिहास में समाज में सन्यासत्व व ब्रह्मचर्यत्व की अपनी महिमा व प्रतिष्ठा है ।वेद से लेकर पुराणों में सर्वत्र सन्यासत्व व ब्रह्मचर्यत्व की महिमा व प्रतिष्ठा गान करते हुए प्राचीन काल में इन व्रतों की राजा –महाराजा से लेकर साधारण जन तक के द्वारा ग्रहण किये जाने और विशुद्ध भाव से अपनाये जाने से समस्त काल में देश , राष्ट्र व प्रजा हितकारी , जनकल्याणकारी बताया गया है । प्राचीन काल के कई पौराणिक पुरुषों के ब्रह्मचर्यत्व की ख्याति प्राप्त भारत देश में ही आधुनिक समय में वेदों के पुनरुद्धारकर्ता उत्कट ज्ञान पिपाशु महर्षि दयानन्द सरस्वती ने भी आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत का पालन कर देश व धर्म की अपूर्व सेवा की है । महाभारत काल के पश्चात् विद्वानों के वैदिक शिक्षा से दूर हो जाने के कारण वेदों के सत्य अर्थ लुप्त हो चुके थे। वेदों के नाम पर अनेक मिथ्या विश्वास प्रचलित थे। अपने अपूर्व ज्ञान व शक्तियों से महर्षि दयानन्द सरस्वती ने वेदों के सत्य अर्थों को भी खोज निकाला और वेदों का पुनरूद्धार कर इतिहास में वैदिक धर्म के लिए एक महान कार्य किया। वैदिक विद्वानों के सनातन धर्म के प्रेमियों का कहना है कि वर्तमान में वेद संसार में सर्वोत्कृष्ट धर्म ग्रन्थ के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इसलिए मकर संक्रान्ति पर्व की तिथि को भीष्म पितामह के स्मृति दिवस के साथ ही वेदों के पुनरुद्धार कर्ता स्वामी दयानन्द सरस्वती तथा भीष्म के ब्रह्मचर्यत्व की स्मरण को प्रतिष्ठित करने के लिए ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठा दिवस के रूप में भी मनाकर देश में भारतीय जीवन पद्धति को प्रश्रय तथा ब्रह्मचर्यत्व की लाभ का बखान किया जाना चाहिए। देश को आज इसकी सर्वाधिक आवश्यकता है । ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा से ही देश में प्रतिभा की वृद्धि होगी तथा अच्छे संस्कारों के उदय से देश में नैतिक पतन अवरुद्ध होगा, इसमें संदेह नहीं।



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अशोक “प्रवृद्ध”

करमटोली , गुमला नगर पञ्चायत ,गुमला 

पत्रालय व जिला – गुमला (झारखण्ड)

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