पुस्तक समीक्षा : एक सड़क जो मेरे घर को जाती है - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शुक्रवार, 16 सितंबर 2022

पुस्तक समीक्षा : एक सड़क जो मेरे घर को जाती है

book-review
कश्मीर में आतंकवाद के दंश ने कश्मीरी जनमानस में जिस पीड़ा और विषाक्तता  का संचार किया है,उससे उपजी ह्रदय-विदारक वेदना तथा उसकी व्यथा-कथा को साहित्य में ढालने के सफल प्रयास पिछले लगभग तीन दशकों के बीच हुए हैं। कई कविता-संग्रह, कहानी-संकलन,औपन्यासिक कृतियां आदि सामने आए हैं, जो कश्मीर में हुई आतंकी बर्बरता और उससे जनित एक विशेष जन-समुदाय के ‘विस्थापन’ की विवशताओं को बड़े ही मर्मस्पर्शी अंदाज में व्याख्यायित करते हैं।कश्मीर के इन निर्वासित किन्तु जुझारू रचनाकारों में सर्वश्री शशिशेखर तोषखानी,चन्द्रकान्ता,रतनलाल शांत,अग्निशेखर,महाराजकृष्ण संतोषी,प्यारे हताश,अवतार कृष्ण राज़दान,ब्रजनाथ ‘बेताब’  आदि उल्लेखनीय हैं। इसी श्रृंखला में पिछले दिनों  एक नाम और जुड़ गया और वह नाम है कश्मीर के  उदीयमान कवि श्री अशोक हंडू ‘खामोश’ का। अशोक हंडू का पिछले दिनों एक कविता-संग्रह सामने आया है जिसमें उनकी एक सौ इक्तालीस कविताएँ संगृहीत हैं।कुछ कविताएँ/गज़लें तो उनकी सहज भावाभिव्यक्तियों को रेकांकित करती हैं और कुछ १९९० के बाद कश्मीर से पंडितों का जो विस्थापन हुआ उसको केन्द्र  में रखकर रची गयी हैं। संग्रह की प्रस्तावना कश्मीर के यशस्वी कवि-चिंतक अग्निशेखरजी ने लिखी है। शेखर के शब्दों में:” सत्तर के दशक से लेकर नब्बे के दशक-विशेष और आज तक की उनकी(अशोक की) लगभग सभी प्रतिनिधि कविताएँ के इस संग्रह में हैं जो उनकी काव्य-दृष्टि, उनके भावबोध, कथ्य की विविधता, उनकी चिन्ता, उनके स्वप्न, अनूभूति, पूर्वाग्रहमुक्त स्वायत्तता, युगीन सरोकारों के अनुरूप शिल्प और भाषा के विकासक्रम को जानने और कवि के रचना-संसार को ठीक से समझने में पाठक को समृद्ध करती हैं।“ परिवेश की प्रामाणिकता को केन्द्र में रखकर “खामोश” की जो कविताएँ मन-मस्तिष्क को उद्वेलित करती हैं,उनमें ‘कवि कहाँ हो तुम?’,’कर्फ्यू लगा है’,’उन्नीस जनवरी’,’एक सड़क जो मेरे घर को जाती है’, ‘अंकित शर्मा की लाश’, ‘वह भी तो औरत है’ आदि उल्लेखनीय हैं।   फरवरी २०२० दिल्ली में जो दंगे भड़के उसमें अंकित शर्मा नाम का आईबी का एक होनहार अधिकारी दंगों की भेंट चढ़ गया था। यह नृशंस हत्या दिल्ली के इतिहास का एक अविस्मरणीय पन्ना बन गयी है।इस मर्मातंक घटना को अशोकजी ने शब्दों में यों पिरोया है:  “क्या कहती है अंकित शर्मा की लाश?/कहती यह है कि अगर तुम देशहित में खड़े होओगे/तो मार दिए जाओगे/तुम पर वार किए जाएंगे सैंकड़ों बार/देशद्रोह के हथियारों से/तुम्हारी चीखें डुबो दी जाएँगी,  धर्म, अधर्म, विधर्म और धर्म-निरपेक्षता के शोर में/तुम्हें घसीटा जाएगा विरोध की घिनौनी पेचदार गलियों में/ शत्रुबोध की बीहड़ता के गहन अंधेरे में/फैंक दिया जाएगा पीढ़ी-दर-पीढ़ी/पली-पलायी घृणा के गंदे नाले में /और /भुला दिया जाएगा कि जैसे तुम नहीं थे /कभी थे ही नहीं/ हमारे पुरुषप्रधान समाज में नारी की स्थिति को लेकर अशोक का कवि-मन यों उद्विग्न होकर नारी के पक्ष में खड़ा होता है: वह भी तो औरत है/ उसका भी तो मन करता होगा कि उसके इंकार करने पर उसे बदचलन न कहा जाए /उसे कुछ सिक्के देकर सड़क पर न फैंका जाय/बे-घर, बे-सहारा/उसकी नाक न काट ली जाये या उसके कान उसके चेहरे पर तेज़ाब फेंक कर उसे बदशक्ल न बनाया जाये/ उसके बदन पर कोड़े न बरसाए जाएँ/वह भी तो औरत है वह बे-सहारा औरत/जो सर से पाँव तक काले बुर्के में छिपती-छिपाती-सी खड़ी है उधर उस धडियल खडूस के साथ भेजा न जाय/ संग्रह की अधिकाँश कविताएँ कवि की आकुलता एवं आक्रोश को बडी कलात्मकता के साथ रूपायित करती हैं। भोगी हुई पीडा के प्रतिक्रियास्वरूप ‘खामोश’ की स्थितियों को समझने-देखने की क्षमता उनकी अद्भुत प्रतिभा/मनस्विता का परिचय देती है। कुल मिलाकर अपनी विशिष्ट रचना-शैली,भावाभिव्यक्ति तथा विषय-वस्तु की दृष्टि से यह संग्रह न केवल पठनीय बन पड़ा है अपितु मन-मस्तिष्क को उद्वेलित करने वाला एक सुचिन्त्य एवं संग्रहणीय दस्तावेज भी बन पड़ा है।



(डॉ० शिबन कृष्ण रैणा)

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