आधुनिक समय में नौकरी को उत्तम मानने वाली युवा पीढ़ियों के लिए खेतीबाड़ी सबसे निकृष्ट कार्य समझा जाता है, जबकि कृषि हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ है. सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि का योगदान इस बार बेहतर रहा है. पिछली तिमाही में कृषि क्षेत्र का 4.7 से बढ़कर 5.5 प्रतिशत तक रिकाॅर्ड दर्ज किया गया है. कृषि सेक्टर में जीडीपी का योगदान करीब 20 फीसदी है और तकरीबन 40 प्रतिशत जनसंख्या इससे जुड़ी हुई है. लेकिन अधिकांश युवा वर्ग खेती को घाटे का सौदा समझकर महानगरों में पलायन कर रहा है. जबकि हकीकत यह है कि यदि कृषि को भी रोजगार समझकर काम किया जाए तो इसमें निजी कंपनियों से अधिक कमाई हो सकती है और व्यक्ति घर-परिवार के साथ रहकर खेती से ही अपने जीवन को खुशहाल बना सकता है. बिहार के मुजफ्फरपुर, वैशाली, मोतिहारी, गोपालगंज, बिहारशरीफ, नालंदा और मुंगेर आदि ज़िलों के कुछेक युवाओं ने कोरोना के बाद सब्जी, फल, औषधीय पौधे आदि के नर्सरी लगाकर साल के हजारों रुपए की आमदनी कर रहे हैं. कई ऐसे भी किसान हैं जो उन्नत खेती-किसानी से बच्चों को इंजीनियर, बैंक मैनेजर, डॉक्टर और सरकारी अधिकारी तक बना रहे हैं.
लीची के लिए विश्व प्रसिद्ध बिहार के मुजफ्फरपुर जिला मुख्यालय से 35 किमी दूर मोतीपुर ब्लॉक स्थित हरनाही गांव के युवा किसान वीरेंद्र कुशवाहा ने कृषि के क्षेत्र में अनोखा काम किया है. वीरेन्द्र ने गांव के किसानों से 26 एकड़ (करीब 650 कट्ठे) जमीन लीज पर लेकर सब्जी की खेती कर नजीर पेश किया है. कुछ वर्ष पूर्व तक वीरेंद्र दुबई में एयर कंडिशन रिपेयरिंग का काम करते थे. अचानक कैंसरग्रस्त मां के समुचित इलाज के लिए उन्हें दुबई छोड़ कर अपने गांव में ही रहने को मजबूर होना पड़ा. नौकरी छोड़ कर गांव में रहने के फैसले के बाद वीरेन्द्र ने खेती करने का फैसला किया. उन्होंने दस एकड़ जमीन 600 सौ रुपए सलाना के हिसाब से लेकर खेती की शुरुआत की. पहले पहल केला, कद्दू (लौकी) और सेम की खेती शुरू की, जिसमें उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ा. लेकिन वीरेंद्र ने हिम्मत नहीं हारी और एकबार फिर से दुगुना साहस और हौसले से 26 एकड़ जमीन लीज पर लेकर कम संसाधन में ही खेती शुरू की. इसके लिए वीरेंद्र ने सबसे पहले कृषि की तकनीकी जानकारी प्राप्त करके उन्नत खेती का गुर सीखा. कृषि विभाग और कृषि कॉलेज आदि से संपर्क साधा और मिट्टी में ही जीवन की तलाश शुरू की. पूरी लगन और मेहनत से सब्जी की खेती करके न केवल घर की माली हालत को सुधारा बल्कि कई किसानों को खेतीबाड़ी की तकनीकी जानकारी देकर कृषि के प्रति उनकी उदासीनता को भी दूर किया. वीरेंद्र बताते हैं कि 'प्रारंभ में खेती-किसानी घाटे का सौदा लगा लेकिन बाद में फसलें लहलहा उठी. कल तक उन्हें स्वयं सब्जियों को लेकर मंडी में जाना पड़ता था. लेकिन आज व्यापारी स्वयं उनकी सब्जियों को खरीदने के लिए खेतों तक पहुंच रहे हैं. वीरेंदर ने 26 एकड़ खेत में परवल 15 एकड़, खीरा 9 एकड़ और 2 एकड़ में कद्दू लगाकर हजारों रुपए की नकद आमदनी करके अपने इलाके में प्रगतिशील किसान के रूप में अपनी पहचान बनाई है. उन्होंने परवल की दो किस्में स्वर्ण रेखा व राजेन्द्र गंगा की खेती की है. राजेन्द्र गंगा अधिकतम 30 किलो प्रति कट्ठा के हिसाब उपज देती है. इसका मंडी में भी दाम मिलते हैं जबकि स्वर्ण रेखा 20 किलो प्रति कट्ठा के हिसाब से उपज देता है. जो बाजार में 38 से 40 रुपये प्रति किलो के भाव से बिक जाता है. खीरा 40 से 50 किलो के हिसाब से प्रति कठ्ठा होता है. वहीं कद्दू प्रति कठ्ठा में 30 से 40 फल निकल जाते हैं.
वीरेन्द्र कहते हैं कि इतना करने के लिए समय पर जुताई, बुआई, सिंचाई, निराई (सोहनी) फसल के लिए आवश्यक होती है. समय पर फसलों की तुराई और मंडी भाव आदि की जानकारी के लिए तत्पर रहना पड़ता है. कई बार मौसम के साथ नहीं देने पर सब्ज़ियां ख़राब हो जाती हैं, जिससे घाटा भी उठाना पड़ता है. पर, वीरेन्द्र के अनुभव व हौसले ने उन्हें सभी कठिनाइयों से निबटना सीखा दिया है. खेती में लगात के बारे में वीरेंद्र बताते हैं कि 26 एकड़ जमीन 600 रुपये प्रति कठ्ठा की दर से दो फसलों के लिए साल में तीन लाख नब्बे हजार लगाने पड़ते हैं. गोबर के खाद खरीदने और उसे खेत में फैलाने पर प्रति वर्ष 160000 रुपए का भुगतान करना पड़ता है. बड़ी संख्या में उनकी खेत पर पुरुष और महिला मज़दूर काम करते हैं. जिन पर उन्हें सालाना दो लाख चालीस हज़ार रुपए खर्च करने पड़ते हैं. इसके अतिरिक्त समय समय पर खेतों में जिंक, बोरोन, सल्फर, फास्फोरस, नाइट्रोजन, पोटैशियम, मैगनीशियम, जैविक खाद्य आदि की जरूरत पड़ती है. इतने खर्चों के बाद सीजन के छह महीने के प्रत्येक सप्ताह में 5,62,500 परवल की बिक्री होती है. खीरा सप्ताह में 9,00000 का बिकता है जबकि 75 कट्ठे में कद्दू की खेती सप्ताह में 15,0000 रुपए की बिक्री हो जाती है. पिछले वर्ष सभी खर्चों को निकालने के बाद भी उन्हें करीब 16 लाख 22 हजार रुपए की आमदनी हुई है.
स्नातक तक की पढ़ाई कर चुके वीरेंद्र कहते हैं कि आज खेती करके परिवार के सभी कार्यों को पूरा करके वह प्रति माह एक लाख रुपए से अधिक की बचत कर रहे हैं. हरनाही गांव की मुखिया फूल गुलाब देवी कहती हैं कि वीरेंद्र कुशवाहा ने जिस तरह से गांवों में रहकर सब्जी की खेती की है, यह किसानों के लिए प्रेरणा है. उन्हें गांव की कई महिलाओं को अपने खेतों में रोजगार भी दिया है. ग्रामीण कनिष्ठ कुमार कहते हैं कि वीरेंद्र ने लगभग छह-सात साल पहले सब्जी की खेती प्रारंभ की थी. शुरुआत में उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ा था. लेकिन 2019 से सब्जी की खेती से लाभ ही लाभ हो रहा है. इससे स्थानीय मज़दूरों को आसानी से रोजगार भी मिल रहा है. वहीं प्रखण्ड के बीएसएचओ शुभाष मिश्रा ने बताया कि वीरेंद्र को कृषि विभाग बिहार सरकार के द्वारा वर्ष 2018-19 में 90 प्रतिशत अनुदान पर डीपर सिस्टम मिला था. वहीं एक कृषि कम्पनी के सलाहकार ने बताया कि वीरेंद्र परवल उत्पादन के क्षेत्र में पहले किसान है जो नौ एकड़ में परवल की खेती कर रहे हैं. उनकी उन्नत खेती को देखने के लिए उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब, झारखंड, बंगाल आदि के किसानों की आवाजाही लगी रहती है. बहरहाल, वीरेन्द्र के खेतों की सब्ज़ियां आज मुजफ्फरपुर के अलावा वैैशाली, मोतिहारी, छपरा, पटना के मंडियों में बिक रही हैं. इससे गांव के दर्जनों लोगों को स्थायी रोजगार भी मिला है. गांव के गरीबों की वह सारी आवश्कताएं जो प्रदेश से बाहर जाकर नहीं पूरी हो सकती हैं, वह अपने घर पर हो रही हैं. कृषि को उद्योग के रूप स्थापित कर वीरेन्द्र किसानों का रोल मॉडल बन चुके हैं.
फूलदेव पटेल
मुजफ्फरपुर, बिहार
(चरखा फीचर)
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