जीवित्पुत्रिका व्रत : जहां माता देती है पुत्ररत्न का वरदान - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

Breaking

प्रबिसि नगर कीजै सब काजा । हृदय राखि कौशलपुर राजा।। -- मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी ।। -- सब नर करहिं परस्पर प्रीति । चलहिं स्वधर्म निरत श्रुतिनीति ।। -- तेहि अवसर सुनि शिव धनु भंगा । आयउ भृगुकुल कमल पतंगा।। -- राजिव नयन धरैधनु सायक । भगत विपत्ति भंजनु सुखदायक।। -- अनुचित बहुत कहेउं अग्याता । छमहु क्षमा मंदिर दोउ भ्राता।। -- हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता। कहहि सुनहि बहुविधि सब संता। -- साधक नाम जपहिं लय लाएं। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएं।। -- अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के । कामद धन दारिद्र दवारिके।।

गुरुवार, 5 अक्टूबर 2023

जीवित्पुत्रिका व्रत : जहां माता देती है पुत्ररत्न का वरदान

अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के पुत्र को जीवित्पुत्रिका कहा गया था। इसी के फलस्वरूप हर वर्ष आश्विन माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को जीवित्पुत्रिका व्रत रखा जाता है। मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ में पल रही संतान को आशीर्वाद देकर जीवित कर दिया था। इस बार अष्टमी तिथि 6 अक्टूबर को प्रातः काल 06.34 मिनट से शुरू होगी और 7 अक्टूबर को सुबह 08.08 मिनट पर खत्म होगी। उदया तिथि के अनुसार 6 अक्टूबर को जितिया व्रत रखा जाना है। जितिया व्रत के दिन अभिजीत मुहूर्त सुबह 11.46 मिनट से दोपहर 12.33 मिनट तक है। 6 अक्टूबर को ही राहुकाल सुबह 10.41 मिनट से लेकर दोपहर 12.29 मिनट तक है। इस व्रत को जितिया भी कहा जाता है। कहते है यदि इस व्रत को विधि-विधान के साथ रखा जाएं तो न सिर्फ  पुण्य प्रताप की प्राप्ति होती है, बल्कि संतान दीर्घायु के साथ ही तेजस्वी, ओजस्वी और मेधावी होते है। जो महिलाएं इस व्रत को रखती है, उनकी संतानों की रक्षा खुद भगवान श्रीकृष्ण करते हैं। इस दिन महिलाएं माता लक्ष्मी मंदिर के साथ-साथ घाटों, कूंडो व तालाबों पर पहुंचकर पूजा करेंगी और पितृं को अर्घ्य देंगी 

Jitiya-festival
प्रतिवर्ष माताएं अपने संतान के लिए जीवित्पुत्रिका (बेटा जुतिया) व्रत रखती हैं. यह व्रत हर साल अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तारीख को रखा जाता है. इस साल 6 अक्टूबर, शुक्रवार को मनाया जाएगा. इस दिन माताएं अपने संतान के खुशहाली व लंबी आयु के लिए निर्जला व्रत रखती हैं. साथ ही निसंतान महिलाएं भी अपने संतान की कामना रखने की प्राप्ति के लिए यह व्रत रखती हैं. इस व्रत को जीवित्पुत्रिका व्रत, स्थानीय भाषा में बेटा जितिया या बेटा जुतिया व्रत भी कहते है. इस दिन माताएं अपनी संतान (पुत्र, पुत्री) की खुशहाली व लंबी आयु के लिए निर्जला व्रत रखती हैं. जितिया व्रत नहाय खाय से शुरू होकर सप्तमी, आष्टमी और नवमी तक चलता है। इस इस दौरान मां पुत्र प्राप्ति के लिए भी यह उपवास करती है। यह एक निर्जला व्रत है। कहा जाता है ये व्रत महाभारत के समय से रखा जाता आ रहा है। जब द्रोणाचार्य का वध हो गया था तो उनके बेटे अश्वत्थामा ने आक्रोशित होकर ब्रह्मास्त्र चला दिया था। जिससे अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ में पल रहा शिशु नष्ट हो चुका था। फिर अभिमन्यु की पत्नी ने ये व्रत किया और इसके बाद, श्रीकृष्ण ने शिशु को फिर जीवित कर दिया। तभी से महिलाएं अपने बच्चे की लंबी उम्र के लिए ये उपवास करती है। कहते हैं जो महिलाएं इस व्रत को करती हैं, उनके बच्चे चारों दिशाओं में प्रसिद्धि प्राप्त करते हैं.


काशी के लक्ष्मी कुंड के पास तीन रुपों में विराजमान है मां

Jitiya-festival
जी हां, चमत्कार के ढेरों कहानियां अपने अंदर समेटे काशी में विराजमान है माता लक्ष्मी। वह भी एक-दो नहीं, बल्कि तीन रुपों में भक्तों को दर्शन देती है मां माता लक्ष्मी। पहला मां लक्ष्मी, दुसरा मां काली और तीसरा मां सरस्वती, जिन्हें सोरहिया के रुप में भी जाना जाता है। खास बात यह है कि माता ज्यूतियां भी इन तीनों माताओं के साथ है। मान्यता है कि भाद्रपद शुक्ल पक्ष की अष्टमी से क्वार कृष्ण पक्ष अष्टमी तक संतान सुख से वंचित कोई भी महिला मां का व्रत रख सोरहिया मेले के दिन विधि-विधान से सोलहों श्रृंगार में सज-धज पूजन-अर्चन व व्रत का पारण किया उसे मिल जाता है पुत्र रत्न प्राप्ति का वरदान। इतना हीं नहीं इस दौरान सोलहों दिन कोई भी भक्त माता के दरबार में पांच फेरे लगाकर मत्था टेकता है तो मां उसकी सभी बाधाएं दूर हो जाती है। मां भर देती है धन संपदा से उसकी झोली। यह दिव्य एवं मनोरम स्थल है तीनों लोकों में न्यारी धर्म एवं आस्था की नगरी काशी के लक्शा स्थित लक्ष्मी कुंड के पास। यहां माता लक्ष्मी का भव्य मंदिर है। मंदिर से सटा विशाल तालाब है, जिसे लक्ष्मी कुंड के नाम से जाना जाता है। यह मंदिर अत्यंत सुंदर, आकर्षक और लाखों लोगों की आस्था का प्रमुख केंद्र है। सोलहों दिन लगने वाले सोरहिया मेले के अंतिम दिन लाखों भक्त अपनी-अपनी मन्नतों की पोटली लेकर पहुंचते है और महालक्ष्मी की आराधना कर ले जाते है सुख-समृद्धि एवं धन्यधान से परिपूर्ण होने का आर्शीवाद। देवी भागवत् में कहा गया है कि संसार को उत्पन्न करने वाली शक्ति महालक्ष्मी माता हैं। सरस्वती, लक्ष्मी और काली यह सभी इन्हीं के स्वरूप से उत्पन्न हुई हैं। जिन पर महालक्ष्मी माता की कृपा हो जाती है उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं। कहते है महाराजा जिउत वाहन की कोई संतान नहीं थी जिसपर महाराजा ने मां लक्ष्मी का ध्यान किया और मां लक्ष्मी ने सपने में दर्शन देकर सोलह दिनों के इस कठिन व्रत को महाराजा से करने को कहा, जिसके बाद महाराजा को संतान के साथ समृद्धि और ऐश्वर्य की भी प्राप्ति हुई। तभी से इस परंपरा का नाम सोरहिया पड़ा और आज भी भक्त पूरी श्रृद्धा और विश्वास के साथ इस मेले और व्रत में भागीदारी करते हैं।


मां को प्राप्त है शक्तिपीठ का दर्जा

इस मंदिर को शक्तिपीठ के रूप में भी मान्यता प्राप्त है। यहां माता महालक्ष्मी की पूजा यूं तो सालों भर होती है लेकिन श्राद्ध के दिनों में इसका महत्व बढ़ जाता है। इन दिनों में मां प्रसन्न होकर सुहागिनों को पति के साथ-साथ पुत्रों की लंबी उम्र का वरदान देती हैं। इस मंदिर की एक बड़ी ही रोचक मान्यता है कि माता को सिंदूर, बिंदी, महावर सहित सोलहों श्रृंगार की अन्य वस्तुएं अर्पित की जाती हैं। इनमें एक सोलह गांठों वाला धागा भी शामिल होता है। मंदिर के पूजारी इस धागे को माता का स्पर्श करवाकर श्रद्धालु को देते हैं। माना जाता है कि इस धागे में माता की कृपा होती है जो भक्त को आशीर्वाद स्वरूप प्राप्त होता है। आश्विन कृष्ण अष्टमी के प्रदोषकाल में पुत्रवती महिलाएं पुत्र की दीर्घायु की कामना के साथ महिलाएं जीवित्पुत्रिका का निर्जला व्रत भी रखती है। लक्ष्मी कुंड या नदियों, सरोवरों में स्नान कर पूजन-अर्चन करती हैं। कहते है कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर माता पार्वती को कथा सुनाते हुए कहते हैं कि आश्विन कृष्ण अष्टमी के दिन उपवास रखकर जो स्त्री सायं प्रदोषकाल में जीमूतवाहन की पूजा करती हैं। कथा सुनने के बाद आचार्य को दक्षिणा देती है, वह पुत्र-पौत्रों का पूर्ण सुख प्राप्त करती है। व्रत का पारण दूसरे दिन अष्टमी तिथि की समाप्ति के पश्चात किया जाता है। यह व्रत अपने नाम के अनुरूप फल देने वाला है। इस व्रत को माताएं अपने बेटे की लम्बी आयु के लिए रखती है। कामना करती है कि उसका बेटा सही रास्ते पर चले और अपनी जिन्दगी में सही रास्ते से अपनी मंजिल तक पहुंचे। गरुड़ का वरदान है कि आश्विन मास के कृष्ण पक्ष अष्टमी तिथि को जो माताएं भगवती दुर्गा की जीवित्पुत्रिका के रूप में और राजा जीमूतवाहन का कुश की आकृति बनाकर पूजा करेगी उनके सौभाग्य व वंश की बढ़ोतरी होगी।


मां का विग्रह रुप

लक्ष्मीकुंड मंदिर में मां लक्ष्मी का विग्रह रुप है। यहां 16 दिन तक मेला लगता है। इन 16 दिनों तक महिला-पुरुष रखते हैं व्रत। इसके अलावा पहले ही दिन 16 गांठों वाले धागे की माला धारण करते हैं। महालक्ष्मी का पूजन अर्चन करने वालों के लिए मान्यता यह है कि पखवारे भर वे ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए जमीन पर कंबल पर रात्रि में शयन करते हैं। एक वक्त भोजन किया जाता है। क्वार कृष्ण पक्ष अष्टमी तिथि के जीवित पुत्रिका व्रत वाले दिन ही इस सोरहिया मेले का समापन होता है। इस दिन महालक्ष्मी मंदिर से लगायत लक्सा तिराहे तक मेला लगता है। मंदिर के पुजारी अविनाश पांडेय बताते है कि यहां माता पार्वती ने पुत्र श्रीगणेश व श्री कार्तिकेय की दीर्घायु के लिए सोलह दिन का व्रत रखकर पूजन-अर्चन की थी। इस कठिन व्रत के बाद भगवान श्री गणेश देवों में प्रथम पूज्य कहलाएं। मान्यता है कि यहां जो भी महिलाएं विधि विधान से 16 दिन का उपवास रख पुत्र कल्याण व धन्यधान की मन्नतें मांगती है वह पूरा हो जाता है। यही वजह है कि भाद्र पद अष्टमी से कृष्ण पक्ष अष्टमी तक सोरहिया मेला लगता है। इस अवधि में संतान से वंचित कोई भी महिला 16 दिन का व्रत रखकर विधि-विधान से पूजा करती है और व्रत का पारण करती है तो उसे संतान सुख की प्राप्ति हो जाती है। मंदिर के गुंबद में आज भी माता पार्वती के हाथों निर्मित 16 जड़ित कलश आज भी मौजूद है। महिलाएं दिन भर कठिन व्रत रख सूर्यास्त के बाद एक अन्न ग्रहण कर पारण करती है। यह सिलसिला सोलहो दिन पूजन-अर्चन के साथ चलता है। मंदिर हजारों साल पुराना है। कहते है जब माता पार्वती यहां सोलहों दिन का उपवास रखी थी। उसी दौरान भ्रमण पर निकली माता लक्ष्मी यहां पहुंची थी। माता लक्ष्मी के विशेष आग्रह के बाद भी जब माता पार्वती उनके साथ नहीं गयी तो वह भी यहीं विराजमान होकर पूजन-अर्चन करने लगी। उनकी तपस्या से ही खुश होकर मां काली और मां सरस्वती भी आ गयी और माता पार्वती के संग श्री गणेश व कार्तिकेय  की दीर्घायु के लिए व्रत रखा। उसी के बाद से यहां 16 दिन का सोरहिया मेले का आयोजन होता चला रहा है। 


पौराणिक मान्यताएं

मां लक्ष्मी को धन की देवी है। महालक्ष्मी की पूजा घर और कारोबार में सुख और समृद्धि लाने के लिए की जाती है। महालक्ष्मी मंदिर के मुख्य द्वार पर सुंदर नक्काशी की गई है। मंदिर परिसर में विभिन्न देवी-देवताओं की आकर्षक प्रतिमाएं स्थापित हैं। मंदिर के गर्भगृह में महालक्ष्मी, महाकाली एवं महासरस्वती तीनों देवियों की प्रतिमाएं एक साथ विद्यमान हैं। तीनों प्रतिमाओं को सोने एवं मोतियों के आभूषणों से सुसज्जित किया गया है। यहां आने वाले हर भक्त का यह दृढ़ विश्वास होता है कि माता उनकी हर इच्छा जरूर पूरी करेंगी। महालक्ष्मी व्रत से आप साल भर की आमदनी का इंतजाम कर सकते हैं। महालक्ष्मी व्रत पूरे 15 दिन चलता है। ऐसी मान्यता है कि इस व्रत से गरीबी हमेशा-हमेशा के लिए चली जाती है। महालक्ष्मी के महाव्रत से आप अपने घर के आंगन में धन की बरसात भी कर सकते हैं। 15 दिन के व्रत का समापन 5 अक्टूबर को होगा। शक्ति पीठों में शक्ती मां उपशिथ होकर जन कल्याण के लिये भक्त जनों का परिपालन करती है। काशी की शक्ति पीठं बहुत ही सुप्रसिद्ध है क्योंकि यहां जो भी अपने विचारों को प्रकट करता है वो तुरंत मां जी के आशीर्वाद से पूरा हो जाता है या उस व्यक्ति मुक्ति पाकर उसका जनम सफल हो जाता है। भगवान विष्णु के पत्नी होने के नाते इस मंदिर का नाम माता महालक्ष्मी से जोड़ा हुआ है और यहाँ के लोग इस जगह में महाविष्णु महालक्ष्मी के साथ निवास करते हुए लोक परिपालन करने का विशवास करते है। मंदिर के अन्दर नवग्रहों, भगवान सूर्य, महिषासुर मर्धिनी, विट्टल रखमाई, शिवजी, विष्णु, तुलजा भवानी आदी देवी देवताओं को पूजा करने का स्थल भी दिखाई देते हैं। इन प्रतिमाओं में से कुछ 11 वीं सदी के हो सकते हैं, जबकि कुछ हाल ही मूल के हैं। इसके अलावा आंगन में स्थित मणिकर्णिका कुंड के तट पर विश्वेश्वर महादेव मंदिर भी स्थित हैं।


माता जीउत व्रत एवं पूजन विधि

महालक्ष्मी व्रत के दौरान शाकाहारी भोजन करें। पान के पत्तों से सजे कलश में पानी भरकर मंदिर में रखें। कलश के ऊपर नारियल रखें। कलश के चारों तरफ लाल धागा बांधे और कलश को लाल कपड़े से अच्छी तरह से सजाएं। कलश पर कुमकुम से स्वास्तिक बनाएं। स्वास्तिक बनाने से जीवन में पवित्रता और समृद्धि आती है। कलश में चावल और सिक्के डालें। इसके बाद इस कलश को महालक्ष्मी के पूजास्थल पर रखें। कलश के पास हल्दी से कमल बनाकर उस पर माता लक्ष्मी की मूर्ति प्रतिष्ठित करें। मिट्टी का हाथी बाजार से लाकर या घर में बना कर उसे स्वर्णाभूषणों से सजाएं। नया खरीदा सोना, हाथी पर रखने से पूजा का विशेष लाभ मिलता है। माता लक्ष्मी की मूर्ति के सामने श्रीयंत्र भी रखें। कमल के फूल से पूजन करें। सोने-चांदी के सिक्के, मिठाई व फल भी रखें। इसके बाद माता लक्ष्मी के आठ रूपों की इन मंत्रों के साथ कुंकुम, चावल और फूल चढ़ाते हुए पूजा करें। इन आठ रूपों में मां लक्ष्मी की पूजा करें- श्री धन लक्ष्मी मां, श्री गज लक्ष्मी मां, श्री वीर लक्ष्मी मां, श्री ऐश्वर्या लक्ष्मी मां, श्री विजय लक्ष्मी मां, श्री आदि लक्ष्मी मां, श्री धान्य लक्ष्मी मां और श्री संतान लक्ष्मी मां। माता जीउत व्रत भी अष्टमी की उदयातिथि में रखा जाता है। नवमी तिथि में पारण करने का विधान शास्त्र सम्मत है। इसके एक दिन पूर्व व्रत रखने वाली माताओं को मुख शुद्धि के साथ ही मडुंवा के आटे (विश्वामित्री) का पराठा, सतपुतिया सहित विभिन्न पकवान खाने का विधान प्रचलित है। मान्यता है कि जितना अधिक खर किया जाता है, उतना ही दीर्घायु पुत्र होता है। जीवित्पुत्रिका के व्रत के दिन शाम को स्नान करके व्रती महिलाएं अमृत प्राप्ति देवी दुर्गा षोडोपचार विधि से पूजा करें। साथ ही साथ राजा जीमूतवाहन की कुश की प्रतिमा बनाकर श्रद्धा से पूजन करें। जीवित्पुत्रिका र्व्रत की कथा सुनें तथा अगले दिन नवमी तिथि में व्रत का पारण अपने-अपने परम्परा के अनुसार करें। मान्यता यह भी है कि माताएं रसोईघर की चौखट को अन्नपूर्णा और मातृपक्ष के पितरों की स्मृति में टीका देती हैं। पुत्रवती होने के प्रतीक स्वरूप गले में धागे से बनी जिउतिया पहनती हैं जिसमें पुत्रों की संख्या से एक अधिक गांठ लगाई जाती हैं। अधिक वाली गांठ जिउतबन्हन की गांठ कहलाती है जिसे जीमूतवाहन नाम से समझा जा सकता है। स्वयं पहनने के पहले उसे कुछ देर पुत्र को पहना कर रखा जाता है। उसके बाद विविध पकवानों के साथ पारण किया जाता है। अष्टमी के दिन भोर में स्त्रियां उठ कर बिना नमक या लहसुन आदि के सतपुतिया (तरोई) की सब्जी और आटे के टिकरे बनाती हैं। चिउड़ा और दही के साथ इन्हें दिवंगत सास और चील्हो सियारो को चढ़ाया जाता है और सभी संतानों के साथ उसी का आहार लिया जाता है। इसे सरगही कहते हैं। पानी पीने के साथ ही निर्जला व्रत प्रारम्भ होता है। तिजहर को बरियार की झाड़ी ढूँढ़ कर उसकी सफाई कर पूजा की जाती है और सन्देश भेजा जाता है। व्रत समापन के पहले स्नानादि उपरांत नये वस्त्र धारण कर स्त्रियाँ जाई तैयार करती हैं। यह दिवंगत सास, उनकी सास आदि पितरों (पितृप्रधान समाज में सब पितर हैं, मातर नहीं) के लिये अर्पण होता है। जाई बनाने में नये धान का चिउड़ा, सांवा (एक तरह का अन्न जो एक पीढ़ी पहले तक चावल की तरह खाया जाता था), मधु, गाय का दूध, तुलसी दल, उड़द और गंगा जल का प्रयोग होता है। इसे गाय के ऊष्ण दूध के साथ निगला जाता है। इससे मातृपक्ष के पितरों की आत्मायें तृप्त होती हैं और वंशरूप पुत्र के उत्थान, प्रगति और सुख समृद्धि के लिये आशीष देती हैं। कथा यह भी है कि एक स्त्री के पुत्र को अजगर ने निगल लिया था। उसने जिउतिया व्रत रखा और जैसे जैसे गर्म दूध के साथ जाई निगलती गई, अजगर के पेट में दाहा बढ़ता गया। अंततः उसने पुत्र को जीवित उगल दिया। जाई को चबाया नहीं जाता जिसका कारण यह है कि मेमना चबाना भी सियारन के व्रत भंग का एक कारण था।


जिउतिया व्रत की कथा

माताएं इस व्रत को अपार श्रद्धा के साथ करती हैं। जीवित्पुत्रिका व्रत के साथ जीमूतवाहन की कथा जुडी है। कहा जाता है कि गन्धर्वों के राजकुमार का नाम जीमूतवाहन था। वे बड़े उदार और परोपकारी थे। जीमूतवाहन के पिता ने वृद्धावस्था में वानप्रस्थ आश्रम में जाते समय इनको राजसिंहासन पर बैठाया, किन्तु इनका मन राज-पाट में नहीं लगता था। वे राज्य का भार अपने भाइयों पर छोड़कर स्वयं वन में पिता की सेवा करने चले गए। वहीं पर उनका मलयवती नाम की राजकन्या से विवाह हो गया। एक दिन जब वन में भ्रमण करते हुए जीमूतवाहन काफी आगे चले गए, तब उन्हें एक वृद्धा विलाप करते हुए दिखी। इनके पूछने पर वृद्धा ने रोते हुए बताया, मैं नागवंश की स्त्री हूं और मुझे एक ही पुत्र है। पक्षीराज गरुड़ के सामने नागों ने उन्हें प्रतिदिन भक्षण हेतु एक नाग सौंपने की प्रतिज्ञा की हुई है। आज मेरे पुत्र शंखचूड़ की बलि का दिन है। जीमूतवाहन ने वृद्धा को आश्वस्त करते हुए कहा, डरो मत मैं तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा करूंगा। आज उसके बजाय मैं स्वयं अपने आपको उसके लाल कपड़े में ढककर वध्य-शिला पर लेटूंगा। इतना कहकर जीमूतवाहन ने शंखचूड़ के हाथ से लाल कपड़ा ले लिया और वे उसे लपेटकर गरुड़ को बलि देने के लिए चुनी गई वध्य-शिला पर लेट गए। नियत समय पर गरुड़ बडे वेग से आए और वे लाल कपड़े में ढके जीमूतवाहनको पंजे में दबोचकर पहाड़ के शिखर पर जाकर बैठ गए। अपने चंगुल में गिरफ्तार प्राणी की आंख में आंसू और मुंह से आह निकलता न देखकर गरुड़जी बड़े आश्चर्य में पड़ गए। उन्होंने जीमूतवाहन से उनका परिचय पूछा। जीमूतवाहन ने सारा किस्सा कह सुनाया। गरुड़जी उनकी बहादुरी और दूसरे की प्राण-रक्षा करने में स्वयं का बलिदान देने की हिम्मत से बहुत प्रभावित हुए। प्रसन्न होकर गरुड़जी ने उनको जीवनदान दे दिया। साथ ही नागों की बलि न लेने का वरदान भी दे दिया। इस प्रकार जीमूतवाहन के साहस से नाग-जाति की रक्षा हुई। तभी से पुत्र की सुरक्षा हेतु जीमूतवाहनकी पूजा की प्रथा शुरू हो गई। एक अन्य कथानुसार, महाभारत काल में महर्षि धौम्य ने द्रोपदी जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा सुनायी और इस व्रत को करने की सलाह दी। धौम्य व द्रोपदी की यह वार्ता एक चील्ह और सियारिन ने सुनी और व्रत करने का संकल्प लिया। अगले साल आश्विन मास की इसी तिथि को चील्ह व सियारिन ने जीवित्पुत्रिका का व्रत रखा। चील्ह ने तो पूरी कथा सुन विधिवत व्रत किया, लेकिन सियारिन ने अधूरी कथा सुनी और भूख लगने पर श्मशान जाकर मांस खा लिया। अगले जन्म में सियारिन काशी नरेश की रानी हुई और चील्ह मंत्री की पत्नी हुई। अधूरे व्रत के कारण सियारिन बनी रानी के पुत्र तो होते थे लेकिन जन्म के बाद ही मर जाते थे। जबकि चिल्ह बनी मंत्री पत्नी के आठ तेजस्वी पुत्र हुए। द्वेषवश रानी के कहने पर राजा ने मंत्री पुत्रों को मारने का कई बार प्रयास किया लेकिन चिल्ह द्वारा पिछले जन्म के किये गये जीउत्पुत्रिका के पूर्ण व्रत के चलते उसकी संतान को कोई क्षति नहीं हुई। अंत में राजा और रानी ने उसके पुत्रों के तेजस्वी होने का कारण जानना चाहा। तब चिल्ह ने व्रत के महात्म्य को बताया, उसके बाद रानी के भी सुन्दर संतान की प्राप्ति हुई। एक अन्य कथानुसार, एक बार पार्वती जी ने एक स्त्री को रोते हुए देखा , इससे व्यथित होकर उन्होंने भगवान शिव शंकर जी से पूछा की ये महिला क्यों विलाप कर रही है? यह सुनकर भगवन शंकर ने बताया की उस स्त्री का पुत्र कम आयु में ही चल बसा था। यह सुनकर मां पार्वती ने भोलेनाथ से पूछा की हे स्वामी एक मां द्वारा अपने पुत्र की मृत्यु देखना सबसे कष्टकर स्थिति है। आप कृपा कर कोई ऐसा तरीका बताये जिससे मां अपने पुत्रो की लम्बी आयु देख सके। यह सुनकर भगवान् शिव शंकर ने बताया की जो मां जितिया का व्रत करेगी उसका पुत्र दीर्घायु होगा। इस प्रकार सभी माएं जितिया का व्रत करने लगी। एक अन्य कथा के अनुसार, स्त्रियाँ व्रत के दिन बरियार नामक पौधे का पूजन करती हैं और राजा रामचन्द्र के पास अपने पुत्र की मंगल कामना हेतु सन्देश भेजती हैं। परीक्षित पुत्र जनमेजय का नाग यज्ञ प्रसिद्ध है। जीमूतवाहन की कथा भी नागों से सम्बन्धित है। एक प्रश्न मन में उठता है कि क्या परीक्षित का कोई दूसरा पुत्र भी था जिसने भाई जनमेजय द्वारा प्रतिशोध स्वरूप आयोजित नागों के सम्पूर्ण विनाश यज्ञ में नागों का पक्ष ले उन्हें बचाया था जिसकी स्मृति आज भी बरियार (बली) पुत्र के रूप में परम्परा में मिलती है? यह व्रत नाग परम्परा का बदला हुआ रूप है जिसके मूल में वंश संहार की त्रासदी का सामना करने और उससे उबरने के स्मृति चिह्न हैं। हो सकता है कि नागों ने वन में बरियार के झाड़ झंखाड़ो  की आड़ ले स्वयं को बचाया हो। वनवासी राम का जंगली जातियों से स्नेह सम्बन्ध जगप्रसिद्ध है। आज भी वर्ण व्यवस्था से बाहर की कितनी ही जनजातियों के लिये राम आराध्य हैं।





Suresh-gandhi


सुरेश गांधी

वरिष्ठ पत्रकार

वाराणसी

कोई टिप्पणी नहीं: