राजस्थान : इस्राइल-हमास युद्ध की एंट्री से गरमायी सियासत - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शनिवार, 4 नवंबर 2023

राजस्थान : इस्राइल-हमास युद्ध की एंट्री से गरमायी सियासत

राजस्थान में विधानसभा चुनाव को लेकर अब एक माह से भी कम समय रह गया है। कांग्रेस सरकार रिपीट करवाने के लिए लगातार प्रयास में जुटी हुई है। जबकि भाजपा सत्ता हथियाने के लिए राजस्थान में सुरक्षा और राष्ट्रवाद को अपना प्रमुख चुनावी हथियार बनाया है। देखा जाएं तो मध्य प्रदेश के बाद अब राजस्थान के विधानसभा चुनाव में भी इस्राइल-हमास युद्ध की भी एंट्री हो गई है। दरअसल, बाबा बालकनाथ के नामांकन के समय राजस्थान पहुंचे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि इस्राइल किस तरह तालिबानी मानसिकता के लोगों निशाना बना-बना कर मार रहा है। बता दें, राजस्थान में सभी 200 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव हो रहे हैं। मुख्य मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच है। हालांकि चुनाव में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी और भारतीय ट्राइबल पार्टी भी अहम रोल निभा सकती है। राजस्थान विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, सचिन पायलटल, गोविंद सिंह डोटासरा, पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया, सीपी जोशी, राजेंद्र सिंह राठौर और सतीश पुनिया प्रमुख चेहरे होंगे। मैदान मारने के लिए जीत का समीकरण बैठाने लगे है। भला क्यों नहीं? यह चुनाव 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए न सिर्फ रिंगटोन सेट करेगा, बल्कि 2024 का सेमिफाइनल भी साबित होंगा और संकेत भी देगी कि जनता का मूड किस ओर है। मतलब साफ है कांग्रेस व भाजपा के लिए राजस्थान चुनावी जंग का अखाड़ा बनने वाला है। उधर, चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आ रहे हैं राजनीतिक दलों के साथ-साथ विभिन्न समाज और संगठन भी सक्रिय होते जा रहे हैं। नेता भी समाज से जुड़ने और अपनी जाति और समुदायों के बेहतर प्रतिनिधित्व के लिए आवाज बुलंद करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। इसी कड़ी में जाट, ब्राह्मण एवं राजपुत समुदाय ने बड़ी-बड़ी सभाएं कर अपनी ताकत दिखाई है। लेकिन पूर्व की तरह इस बार भी वैश्य सहित अन्य विरादरियां हांसिए पर है। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है क्या यूपी की तर्ज छोटी-छोटी जातियों के नेताओं को प्रतिनिधित्व देकर भाजपा यहां भी सोशल इंजिनियंरिंग का फार्मूला अपनाएंगी या इग्नोर?

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राजस्थान में इसी महीने 25 नवंबर को चुनाव होना है। हिमाचल जीती कांग्रेस राजस्थान में अशोक गहलोत के बूते हिंडनबर्ग-अडानी व विकास के मुद्दे को उछाल कर दुबारा सत्ता हथियाने की फिराक में है। तो बीजेपी जी20 की बैठक, जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाना, आंतरिक सुरक्षा, लव जिहाद, सर तन से जुदा एवं विकास के साथ राष्ट्रीयता के मुद्दे के साथ जंग जीतना चाहती है। यह अलग बात है कि राजस्थान में कांग्रेस के बीच अंदरूनी कलह के कारण कांग्रेस का सत्ता में वापसी का रास्ता आसान नहीं रहेगा। इसके अलावा का चुनावी इतिहास भी इस बात का साक्षी रहा है कि यहां जनता ने हर 5 साल में सत्ता में बदलाव किया है। इसबार सत्ता की बागडोर किसके हाथ में होगी ये तो चुनाव परिणाम बतायेंगे, लेकिन इससे पहले राज्य में राजनीतिक सरगर्मियां उफान मार रही हैं. चुनाव के बाद से ही कंपेन मूड में रहने वाली बीजेपी के शीर्ष नेताओं का दौरा भी लगातार बढ़ता जा रहा है. दौरे पर आएं अमित शाह तो यहां तक कह डाला कि इस बार मुख्यमंत्री उनका होगा। बता दें, एक ओर कांग्रेस दोबारा जीत पाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रही है, तो दूसरी तरफ बीजेपी सत्ता में काबिज होने के लिए हाड़तोड मेहनत कर रही है. इसी बीच हनुमान बेनीवाल और बाकी बड़े नेताओं की क्षेत्रीय पार्टियां और निर्दलीय भी 200 विधानसभा सीटों पर ज्यादा से ज्यादा विधायक खड़े करने की जद्दोजहद में जुटे हैं. सच यह है कि राजस्थान में जिसने जाति की गुत्थी सुलझाई, सत्ता उसी के हाथ में गयी है। यही वजह है कि भाजपा इस बार यूपी की तर्ज पर यहां भी सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले पर काम कर रही है। बाजी किसके हाथ लगेगी, इसका फैसला प्रदेश के 5 करोड़ 26 लाख 90 हजार और छह सौ से ज्यादा मतदाता करेंगे।


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वैसे भी भारत में चुनाव किसी भी राज्य मे हों जातियों की भूमिका अहम रहती है. राजस्थान भी इससे अछूता नहीं है. साल 2003 और 2013 के विधानसभा चुनाव में वसुंधरा राजे ने जाति कार्ड खेलते हुए कहा था कि वो जाटों की बहू हैं, राजपूतों की बेटी हैं और गुर्जरों की समधिन हैं. इन तीनों जातियों की राज्य की राजनीति की दिशा तय करने में बड़ी भूमिका रहती है, जबकि राजपूत और जाट परस्पर विरोधी माने जाते हैं. उनके पुत्र और झालावाड़ से सांसद दुष्यंत सिंह ने भी सोशल इंजीनियरिंग के गुर अपनी मां से सीख लिए हैं. यही वजह है कि दुष्यंत अपनी पत्नी निहारिका को गुर्जर बहुल सीटों पर प्रचार के लिए भेज रहे हैं, क्योंकि वो इसी जाति से आती हैं. राज्य ने पिछले कुछ समय से जाटों की ओबीसी कैटेगरी में शामिल करने की मांग और गुर्जरों की 5 फीसदी आरक्षण की मांग को लेकर हिंसक प्रदर्शन देखे हैं. चौकाने वालीबात यह है कि आबादी के अनुपात में वैश्य सहित अन्य जातियों की राजनीतिक भागीदारी शून्य सा है। ऐसे में वैश्य सहित अन्य विरादरियों को भरोसा है कि अमित शाह की सोशल इंजिनियरिंग में उन्हें शामिल कर आबदी के अनुपात में जगह जरुर मिलेगी। बता दें, 2018 के विधानसभा चुनाव में 200 सीटों में कांग्रेस ने 100 सीटें जीतकर भाजपा से सत्ता छीनी थी। जबकि 2013 में 163 सीटें जीतकर प्रचंड बहुमत हासिल करने वाली बीजेपी को 73 सीटें ही मिलीं. इसके अलावा, बसपा को 6 सीटों में संतुष्ट होना पड़ा. जहां तक जातियों का सवाल है तो राजस्थान में 89 फीसदी आबादी हिंदू, 9 फीसदी मुस्लिम और 2 फीसदी अन्य धर्म के लोग हैं. अनुसूचित जनजाति की आबादी 13 फीसदी, जाटों की आबादी 12 फीसदी, गुर्जर और राजपूतों की आबादी 9-9 फीसदी, ब्राह्मण और मीणा की आबादी 7-7 फीसदी है. जबकि ओबीसी की आबादी 51 फीसदी है। इस लिहाज से किसी भी दल को सत्ता में आने के लिए ओबीसी वोट को साधना बेहद जरूरी हो जाता है. यही वजह है कि भले ही राजनीतिक दल विकास, लोक कल्याण के नाम पर प्रचार करते है. लेकिन टिकट का वितरण जाति के आधार पर ही होता है. आप इसका अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि एक तरफ बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह कहते हैं कि बीजेपी जाति की राजनीति नहीं, बल्कि विकास की राजनीति करती है. तो दूसरी तरफ उन्हीं की टीम राजपूत, ब्रह्मण, दलित व वैश्य सहित अन्य विरादरियों के नेताओं को जमीन पर काम कर बेरोजगारी और आरक्षण के मुद्दे पर उनकी नाराजगी दूर करने की कोशिश  में जुटी है।


कहां-कहां कौन सी जातियां हावी

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राजस्थान के उत्तरी हिस्से में मारवाड़ का कुछ हिस्सा और शेखावाटी क्षेत्र जाट बहुल है, दक्षिणी राजस्थान गुर्जर और मीणा बहुल है. हाड़ौती क्षेत्र जिसमें कोटा, बूंदी, बारा और झालावाड़ है, जो ब्राह्मण, वैश्य और जैन बहुल है. मत्स्य क्षेत्र में आबादी मिश्रित है, जबकि मध्य राजस्थान जिसमें जोधपुर, अजमेर, पाली, टोंक, नाऔर जिले आते हैं, वहां मुस्लिम, मीणा, जाट और राजपूतों का प्रभाव है. मेवाड़-वागड़ क्षेत्र यानि उदयपुर संभाग आदिवासी बहुल क्षेत्र है. राजस्थान विधानसभा में इस समय 27 राजपूत, 31 जाट, और 15 गुर्जर विधायक हैं. जबकि वैश्य सहित अन्य विरादरियों की भागदारी नहीं के बराबर है। राजस्थान में बीजेपी राजपूतों (स्वतंत्र पार्टी के जमाने से) और ओबीसी में ज्यादा लोकप्रिय रही है, जबकि कांग्रेस ब्राह्मण, जाट, मुस्लिम, गुर्जर, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों में ज्यादा लोकप्रिय मानी जाती रही है. लेकिन बदलते राजनीतिक समीकरण और हर 5 साल में सरकार बदलने की परिपाटी के चलते धीरे-धीरे मतदाताओं के वोटिंग करने के तरीके में बदलाव आया है. जाट समुदाय जो पारंपरिक तौर पर कांग्रेस का समर्थक था, माली समुदाय से आने वाले अशोक गहलोत को 1998 और 2008 में मुख्यमंत्री बनाने के कारण कांग्रेस से दूर होता गया. 2023 का विधानसभा चुनाव कई मायनों में गुर्जर बनाम मीणा और राजपूत बनाम जाट माना जा रहा है. इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इन जातियों ने एक साथ एक  पार्टी को कभी वोट नहीं किया और पारंपरिक तौर पर यह दूसरे के विरोधी भी रहे हैं. हाल के चुनावों में देखा गया है कि छोटी आबादी वाले जाति समुदाय एकजुट होकर बड़ी और प्रभावी जातियों के असर को कम कर रहे हैं। ये मॉडल पूरे राज्य में परिलक्षित न होकर अलग-अलग इलाकों के हिसाब से तय होता है. इसके अलावा बीजेपी काग्रेस के पारंपरिक वोटबैंक पर निगाहें लगाए हुए है और साथ ही अपने वोट बैंक को बचाए रखना चाहती है. राज्य में ताकतवर मुस्लिम चेहरा न होने की वजह से कांग्रेस का मुस्लिम वोटरों पर असर पहले की तुलना में कम हुआ है। जबकि बीजेपी में मुस्लिम नेता और मंत्री यूनुस खान का कद बढ़ा है. यूनुस खान ने जाटों के वर्चस्व वालेनागौर, चुरू और झुंझनू में राजपूत, मुस्लिम, वैश्य और ब्राह्मणों का गठजोड़ कर इन जिलों में भाजपा को स्थापित किया.


भाजपा की रणनीति

भाजपा के चित्तौड़गढ़ से सांसद सीपी जोशी को पार्टी ने राजस्थान का अध्यक्ष नियुक्त किया है। ऐसे में सांसद सीपी जोशी को प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाने पर राज्य में ब्राह्मण राजनीति केंद्र बिंदु बन गया है। समुदाय के राजनीतिक महत्व पर एक बार फिर से राज्य में चर्चा हो रही है। पार्टी नेताओं ने कहा कि भाजपा ने जोशी को प्रदेश अध्यक्ष घोषित कर राजस्थान में अपने सबसे महत्वपूर्ण वोट बैंक में से एक ब्राह्मण समुदाय को साधने की कोशिश की है। हालांकि, बड़ा सवाल यह है कि इस फैसले से प्रभावित होने वाले अन्य जातीय समीकरणों को बीजेपी कैसे संभालेगी। पिछले कई वर्षों से इस समुदाय का कांग्रेस और भाजपा की राजनीति में बहुत कम प्रतिनिधित्व था। इससे पहले 2009 से 2013 के बीच अरुण चतुर्वेदी बीजेपी के पार्टी अध्यक्ष थे। उनसे पहले महेश चंद्र शर्मा, ललित किशोर चतुवेर्दी, भंवरलाल शर्मा, रघुवीर सिंह कौशल और हरिशंकर भाभद्र अध्यक्ष थे। बीजेपी ने नौ साल बाद ब्राह्मण समुदाय के किसी दिग्गज को प्रदेश अध्यक्ष बनाया है। वर्तमान में राजस्थान में 17 ब्राह्मण विधायक हैं। जिनमें दो कैबिनेट मंत्री डॉ. बीडी कल्ला और डॉ. महेश जोशी हैं। इसके अलावा, सीपी जोशी और घनश्याम तिवारी दो ब्राह्मण सांसद हैं। वहीं, केंद्र में राजस्थान से कोई ब्राह्मण मंत्री नहीं है। इसलिए सभी की निगाहें इस बात पर टिकी हैं कि क्या राजस्थान में ब्राह्मणों का मजबूत प्रतिनिधित्व होगा या नहीं।


कांग्रेस में अंदरूनी कलह

कांग्रेस में अंदरूनी कलह लगातार जारी है। साल 2018 में जब से अशोक गहलोत ने सत्ता संभाली है, सचिन पायलट गुट के साथ पटरी नहीं जमी है। हाल ही जब कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए अशोक गहलोत का नाम उछला था तो उन्होंने राजस्थान के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने से साफ इनकार कर दिया था क्योंकि उनके पद छोड़ने की स्थिति में सचिन पायलट के मुख्यमंत्री बनने की संभावना थी, जो अशोक गहलोत नहीं चाहते थे। इसके अलावा भी अशोक गहलोत और सचिन पायलट पार्टी फोरम के अलावा सार्वजनिक रूप से भी एक-दूसरे पर छींटाकशी करने में पीछे नहीं रहे हैं। हालांकि संख्या बल के हिसाब से अशोक गहलोत की स्थिति काफी मजबूत हैं, लेकिन सरकार के प्रति असंतोष जताने वाले विधायकों की संख्या भी कम नहीं है।


हर 5 साल में बदल जाती है सत्ता

राजस्थान में सत्ता की अदला-बदली सिर्फ भाजपा और कांग्रेस के बीच होती रही है। बता दें, 1993 के बाद से हर पांच साल पर प्रदेश की सरकार बदलती रही है।

- 1993 : भाजपा, मुख्यमंत्री भैरो सिंह शेखावत

- 1998 : कांग्रेस , मुख्यमंत्री अशोक गहलोत

- 2003 : भाजपा, मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे

- 2008 : कांग्रेस, मुख्यमंत्री अशोक गहलोत

- 2013 : भाजपा, मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे

- 2018 : कांग्रेस, मुख्यमंत्री अशोक गहलोत


गहलोत मंत्रिमंडल में 9 दलित मंत्री

राजस्थान के ज्यादातर गांवों में करीब 18 फीसदी दलित हैं. ये दलित बीजेपी के वोटर्स माने जाते हैं. लेकिन साल 2018 के चुनाव में उन्होंने कांग्रेस को वोट दिया था. यही वजह है कि कांग्रेस दलितों का भरोसा खोना नहीं चाहती है. इसीलिए नई कैबिनेट में दलितों को बड़ी संख्या में जगह दी गई है. राज्य में 2023 में फिर से भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधी टक्कर देखने को मिलेगी। राजस्थान में 1990 से सत्ता कभी भाजपा तो कभी कांग्रेस के हाथ रही है। हालांकि, मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच अनबन की बातें कांग्रेस के लिए सिरदर्द साबित हो सकती हैं। अब गहलोत मंत्रिमंडल में अब 9 दलित मंत्री हो गए हैं. इनमें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सात कैबिनेट और दो राज्यमंत्री शामिल हैं. राजस्थान के कैबिनेट विस्तार में महिलाओं और दलितों का संतुलन बनाए रखने पर पूरा ध्यान दिया गया है. वहीं जातीय समीकरण को भी बखूबी साधा गया है. लिहाजा राजस्थान में यह साफ है कि राजपूत, गुर्जर, जाट, मीणा, वैश्य और ओबीसी समुदाय का समर्थन जिस दल को मिलेगा और जो दल इन समुदायों के आपसी मतभेदों का सही तरीकके से प्रबंधन करते हुए एक इंद्रधनुषी गठबंधन बनाने में कामयाब होगा अंत में सरकार उसी की बनेगी. यही वजह है कि भाजपा ने कांग्रेस के इस जातीय समीकरण कार्ड की काट के लिए न सिर्फ अपने परंपरागत जनाधार को एकजुट रखने की पूरी कोशिश की, बल्कि योगी आदित्यनाथ और उमा भारती को चुनाव प्रचार में उतारकर हिंदुत्व का तड़का लगाकर सत्ता वापसी की उम्मीद लगा रही है।


मुसलमान वोटर किसके साथ

पिछले कई चुनावों से राजस्थान में राजपूत, ब्राह्णण, वैश्य एकजुट होकर भाजपा के पक्ष में और जाट, गूजर, मीणा और दलित कांग्रेस के पक्ष में मतदान करते रहे हैं। जबकि आदिवासी और पिछड़ी जातियों के वोट अलग अलग क्षेत्रों में स्थानीय समीकरणों के मुताबिक दोनों दलों में बंटते रहे हैं। यहां तक कि मुसलमानों में भी ज्यादा तादाद कांग्रेस के लिए वोट करती रही है, लेकिन एक हिस्सा स्थानीय भाजपा नेताओं के लिए भी वोट करता रहा है। जैसे उदयपुर में गुलाबचंद कटारिया को स्थानीय मुसलमानों के एक ठीक ठाक हिस्से का समर्थन मिलता रहा है। लेकिन इस बार जयपुर से अजमेर, पुष्कर, पाली, जोधपुर, नाथद्वारा, उदयपुर, चित्तौड़, भीलवाड़ा, कोटा, झालावाड़, बूंदी, टोंक से जयपुर तक की लंबी यात्रा के दौरान सामाजिक समीकरणों का नजारा कुछ बदला सा दिखा।


प्रत्येक सीट पर भाजपा की पैनी नजर

राजस्थान की 200 विधानसभा सीटों को भाजपा ने 5 कैटेगरी में बांटा है। हर कैटेगरी के लिए जीत की अलग-अलग रणनीति तय की गई है। प्रदेश के सबसे कमजोर सीटों पर भाजपा अपने केंद्रीय मंत्रियो सहित राज्य के नेताओं के साथ उतरने का प्लान बना रही है। वहीं जिन सीटों पर पार्टी मजबूत है लेकिन मौजूदा विधायकों के प्रति लोगों में खासा नाराजगी है। उन सीटों पर हाईकमान चेहरे बदलने का प्लान कर रही है। साल 2018 के चुनाव से पहले टिकट न मिलने पर कुछ बड़े नेताओं ने बगावत कर दी थी और फिर पार्टी छोड़ दी। तजुर्बेकार नेताओं के जाने से पार्टी को हार का मुंह देखना पड़ा। अब पार्टी उन्हीं नेताओं को साधने में लगी है ताकि विधानसभा चुनाव में पार्टी को ज्यादा से ज्यादा फायदा मिल सके।


Suresh-gandhi


सुरेश गांधी

वरिष्ठ पत्रकार

वाराणसी

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