भारत तेजी से आर्थिक विकास कर रहा है. अर्थशास्त्र में यह कहा जाता है कि आर्थिक तरक्की के दौर में एक मध्यम महंगाई दर बनी रहती है. लेकिन यह दर इतनी ज्यादा नहीं होनी चाहिए कि समाज का आर्थिक ढांचा गड़बढ़ाने लगे. कुछ जानकारों के मुताबिक भारत अब इसी खतरे की दहलीज पर पहुंच चुका है, जहां महंगाई की ऊंची दर अपने नकारात्मकर असर दिखाने लगी है.
बीते एक साल में लघु और कुटीर उद्योगों की हालत खस्ता हुई है. महंगाई की वजह से उनके सामने कर्मचारियों को ज्यादा तनख्वाह देने का दबाव है. कच्चा माल भी महंगा मिल रहा है. इसका नतीजा है कि लघु उद्योगों के उत्पाद भी महंगे होते जा रहे हैं. महंगे उत्पादों के चलते उन्हें बड़ी कंपनियों के चमचमाते समान से मुकाबला करना पड़ रहा है.
भारत में आय के वितरण में इतनी बड़ी विषमता आ चुकी है कि उसे पाटना मुश्किल साबित हो रहा है. बड़ी निजी कंपनियां अपने कर्मचारियों को अच्छी तनख्वाह दे रही हैं. केंद्र और राज्य सरकारें भी अपने कर्मचारियों को नए वेतनमान के तोहफे दे चुकी हैं. लेकिन असंगठित क्षेत्र से जुड़े करोड़ों लोगों की आय अब भी 50 या 100 रुपये बढ़ी है. जबकि दूध, सब्जी, दाल, चीनी और कपड़ों के दाम काफी हद तक बढ़ चुके हैं. ऐसे में समाज का एक तबका इन्हें अपनी अच्छी आय के जरिए खरीद पा रहा है जबकि दूसरा तबका इन अतिआवश्यकीय चीजों के लिए छटपटा सा रहा है. देश की 40 फीसदी आबादी 120 रुपये प्रतिदिन से भी कम में गुजर बसर कर रही है.
सरकार 4.8 फीसदी के राजस्व घाटे को कम करने की मंशा जताती है. दूसरी तरफ चुनावों को सामने देखते हुए वह लोकलुभावन एलान करके पानी की तरह पैसा लुटाने के लिए तैयार दिखती है. अब देखना है कि प्रणब मुखर्जी कौन सा रास्ता चुनते हैं. क्या वह बाजार में जरूरत से ज्यादा बिखरे पैसे को सोखने के लिए कोई असरदार कदम उठाते हैं.
भारत को इस वक्त विदेशी निवेश की सख्त जरूरत है. भ्रष्टाचार के मामलों ने देश की छवि को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बट्टा लगाया है. आधारभूत ढांचा रास्ते की बड़ी रुकावट बना हुआ है. चीन की बढ़ती ताकत को देखते हुए रक्षा बजट बढ़ाना भी भारत की मजबूरी सी बन गई है.
जाहिर है इन चुनौतियां का हल सिर्फ मोबाइल फोन सस्ते करके या इनकम टैक्स के स्लैब को ऊपर नीचे करके नहीं निकलेगा. भारतीय अर्थव्यवस्था के इंजन में फंसे कचरे को निकालने के लिए अब बड़े कदमों की जरूरत है.
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