आधे-अधूरों का स्मरण करें, आज अप्रेल फूल है - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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रविवार, 1 अप्रैल 2012

आधे-अधूरों का स्मरण करें, आज अप्रेल फूल है


आज मूर्ख दिवस है। दृश्यमान और अदृश्य सभी प्रकार के मूर्खों के प्रति आत्मीय सहानुभूति दर्शाने और उनके मूर्खत्व के प्रति आदर एवं सम्मान का गरिमामय भाव रखने का दिन है। अप्रेल फूल दुनिया के तमाम मूर्खों का वह वार्षिकोत्सव है जब उन्हें सार्वजनिक महत्त्व और गौरव पाने का अहसास होता है। सृष्टि में मूर्खांे से लेकर महामूर्खो तक की परम्परा आदि काल से रही है। हर युग में इनका बोलबाला रहा है। यह अलग बात है कि वास्तविक जड़ बुद्धि वाले लोग कभी अपनी मूर्खत्व से लक-दक प्रतिभा को सार्वजनिक तौर पर नहीं स्वीकारते। किसी दार्शनिक ने कहा है कि दुनिया का हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में मूर्ख है। कोई कम प्रतिशत का है तो कोई ज्यादा।

इसे न भी मानें तब भी यह स्वीकारने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि हम चौतरफा मूर्खो से घिरे हुए हैं और हम खुद भी रोज मूरख बनते रहे हैं। यहाँ मूर्खता का अर्थ बड़ा व्यापक हो चला है। हर कोई एक दूसरे को मूर्ख बना कर अपने को बुद्धिमान साबित करने पर तुला हुआ है। कोई किसी को मूर्ख बना रहा है तो कोई बन रहा है। कोई अकेला बना रहा है तो कई समूह ही ऐसे बन गए हैं जिनका काम ही औरों को मूर्ख बनाना है। मूर्खाें की बस्ती के मुर्गो को शातिर मूर्ख हलाल कर रहे हैं। रोज नए-नए मुर्गो की तलाश होती है जो मुर्गों की भेंट चढ़ जाते हैं। कोई फर्क नहीं पड़ता कि मूर्गे कलंगी वाले हैं या बिना इसके।

मूर्खो की भी कई-कई प्रजातियाँ हैं। कोई पीढ़ी दर पीढ़ी से चले आ रहे असली मूर्ख हैं तो कोई वर्ण संकर। कोई पाव हैं तो कोई आधा या पौन या कि पूरा ही। सामान्य मूर्खांे से लेकर वज्रमूर्खो तक की कितनी ही प्रजातियाँ इस पुण्य धरा की शान बढ़ा रही है। इन तमाम प्रकार के मूर्खों का मूल्यांकन कोई नहीं कर सकता। फिर ऐसे में जान बूझ कर मूर्ख बने बैठे लोगों की संख्या भी कहाँ कम है। कई गलियारे और गलियाँ ऐसी हैं जिनमें चकाचौंध से चुंधियाएँ लोग ऐसे-ऐसे कारनामे कर डालते हैं कि अँधेरे में बैठने के आदी लोग भी हतप्रभ रह जाते हैं। कई जगह मूर्खों के समूह टिड्डी दलों को भी मात कर जाते हैं।

असली और नकली दोनों प्रकार के मूर्खो का मकसद एक ही होता है - जो मिले उसे मूर्ख बनाने की सारी तकनीकों में दक्षता प्राप्त ये हुनरमंद मूर्ख सर्वत्र अपनी प्रतिभा का घण्टनाद करते रहते हैं। मूर्ख बनने और मूर्ख बनाने वाले दोनों तरह के लोग धड़ल्ले से अपने धंधे चला रहे हैं। इनमें एक मूर्ख दूसरे को हरसंभव मदद करता है। कई मर्तबा ये एक दूसरे के लिए बैसाखियों का काम भी कर लेते हैं। मूर्खों को आप उनकी असलियत बताकर सुधारने का प्रयास भी करेंगे तो वे कभी मानने वाले नहीं। मूर्ख व्यवहार-विज्ञान में विश्वास रखते हैं इसलिये खुद की मूर्खता को प्रयोगों की कसौटी पर कस कर देखना उनका पहला धर्म होता है।

इसके लिए अपने-अपने कैनवासों, सोचने-विचारने के दायरों और कार्य क्षेत्रों की सीमाएँ स्वतः निर्धारित हुआ करती है जिनसे बाहर न ये निकल सकते हैं  व न इन्हें निकालने की कोई हिम्मत जुटा पाता है। मौत के कुएँ की दीवारों की तरह बँधी-बँधायी परिधियों और घेरों की परिक्रमा करते हुए ये प्रगति पा लेने का राग अलापते रहते हैं। इनकी हरकतों से वाकिफ होने दूसरे किसम के तमाशबीन मूर्खों की भारी भीड़ इनके लोकप्रियता के भरम को कभी मरने नहीं देती। हर क्षेत्र में ऐसे-ऐसे लोगों की भरमार है। मूरखों के चोले भी अलग-अलग रंगों और आकारों में ढके हुए हैं। इनके चेले-चपाटियों के भी अलग-अलग समूह हैं जो मौके बेमौके इनमें भाव लाने ( हुरातण चढ़ाने ) के लिए कभी तेज आवाजों में ढोल बजाते हैं तो कभी नगाड़े।

मूर्ख बनने और बनाने की भी कई-कई कलाएँ हैं। कोई पद, प्रतिष्ठा या पैसों के लालच में, कोई कुछ न कुछ पा जाने तो कोई वैध-अवैध सम्बंधों को निभाने या कि अपने वजूद को बचाए रखने के लिए एक-दूसरे को बना रहा है। कभी चोर डकैतों को लूट लेते हैं तो कभी डकैत चोरों को। कभी दोनों मिलकर जमाने को। यह खेल सदियों से इस देश में चला आ रहा है। गुलामी की जंजीरें इतनी तगड़ी हैं कि देश को मुक्ति पाए इतने बरस बीत जाने के बावजूद मन-बुद्धि को हम अभी भी दास होने की भूमिका से उबार नहीं पाए हैं। इसी का नतीजा है कि हम न मूर्खांे के शोर को रोक पा रहे हैं, न इनकी हरकतों को। वे बनाए जा रहे हैं और हम बनते जा रहे हैं।

हमारी पीढ़ियाँ गुजर गई दासत्व की परम्परा निभाते-निभाते। अब तो खून के परीक्षण की कोई नई वैज्ञानिक पद्धति विकसित होती तो इसी के नाम पर नया रक्त समूह ही सामने आ जाए।      मूर्खता का सम्बंध ज्ञान-अज्ञान से कतई नहीं। अज्ञानी हो या ज्ञानी या फिर मैकाले के अंधानुचरों की फौज। हर कोई न्यूनाधिक परिमाण में ऐसी हरकतें कर ही डालता है जो उन्हें इस श्रेणी में ला डालती है। बुद्धि के नाम पर जीने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी भी कहाँ पीछे हैं। बल्कि यों कहें कि मैकाले शिक्षा से पढ़े-लिखे बुद्धिजीवियों में ज्यादा सामर्थ्य होता है औरों को मूर्ख बनाने का। ये अलग बात है कि इनके चरित्र, चाल और चलन से किसी को इसका आभास तक नहीं होता।

आम आदमी तो सहजता और सरलता से अपनी गलती को स्वीकार कर मूर्खता का प्रायाश्चित कर भी लेता है लेकिन दूसरी प्रजाति के लोग मूर्खता की हर सीमा को लांघ लेने के बावजूद न स्वीकारते हैं, न ही कभी प्रायश्चित । आज का दिन ज्ञात-अज्ञात मूर्खो के प्रति आदर-सम्मान के साथ ही दिवंगत मूर्खो को भावभीनी श्रृद्धांजलि अर्पित करने का दिवस है जिनकी वजह से अप्रेल फूल जैसा महान दिन हमारे सामने है। मूर्खो केे सामर्थ्य और स्वाभिमान का आदर करते हुए यह प्रण ले कि अपने सम्पर्क में आने वाले या कहीं न कहीं दिख जाने वाले मूर्खों और महामूर्खो के प्रति सहानुभूति व्यक्त करें। इस धरा पर सभी को जीने और मरने का हक है और किसी भी तरह कमा खाने का भी।  अप्रेल फूल की हार्दिक शुभकामनाएँ....... यह दिन बार-बार आए और हमें गर्व, गौरव तथा अस्मिता का अहसास करायें।


---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077

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