चाटुकारों से घिरे न रहें बाहर भी झांकें - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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मंगलवार, 10 अप्रैल 2012

चाटुकारों से घिरे न रहें बाहर भी झांकें


जब से भीड़ का वजूद सामने आया है तभी से अपने आस-पास घेरों का चक्र भी बढ़ता जा रहा है। अब किसी एक आदमी में इतना सामर्थ्य रहा ही नहीं कि कुछ कर दिखाए। आदमी को अपनी अक्षमताओं को छिपाने अथवा सामर्थ्य का दिखावा करने के लिए भीड़ की नितान्त जरूरत होने लगी है। वह जमाना बीत गया जब आदमी अकेले अपने दम पर इतिहास रच लेता था और युगों तक याद रखा जाता था। कलियुग का प्रभाव कहें या और कुछ, मगर हकीकत यही है कि अब ‘एकला चालो रे...’ का उद्घोष कहीं खो सा गया है।

अब अकेला आदमी वैसा नहीं रहा कि अपने बूते कुछ कर सके। उसे तलाश होती है भीड़ की। अपने यहाँ जो सबसे अधिक सुलभ और सस्ती है वह है भीड़। चाहे जहाँ किसी न किसी के नाम पर, कभी तमाशे के नाम पर तो कभी किसी और तिलस्म के नाम पर, अपने आप जमा हो जाती है भीड़।  ज्यादा दिखावा करना हो तो जुटा ली जाती है भीड़। भीड़ का हिस्सा बनने वाले हजारों हैं और नेतृत्व का माद्दा रखने वाले गिने-चुने। आदमी के कद के अनुसार भीड़ जुटती है। जितना बड़ा आदमी उतनी ज्यादा भीड़ की जरूरत। बड़े आदमी को जवान बनाये रखने, जिन्दा रखने और हवाई सैर कराने के लिए ये भीड़ ही हुआ करती है एकमेव रामबाण। 

जब तक भीड़ साथ होती है तब तक बेजान से दिखने वाले ये रोबोटी आदमी भी चलते रहते हैं ...जितनी चाबी भरी राम ने....की तर्ज पर। भीड़ हटी नहीं कि भाड़ में जाए आदमी। ये भीड़ ही है जो तय करती है आदमी की तकदीर और बदल डालती है तस्वीर। भीड़ की रंग-बिरंगी रोशनी में ही चमकने लगता है आदमी। ये भीड़ खि़सक जाए तो आदमी की जमीन भी खि़सकने से नहीं बच पाती। भीड़ में जमाने भर के स्वाद भरे रहते हैं। कभी नमकीन, कभी मीठी तो कभी कोई दूसरे स्वाद की। इसी भीड़ में शुमार होते हैं अलग-अलग किस्मों के चेहरे-मोहरे। कोई जय-जयकार करने की महारथ रखता है तो कोई आदमी को भरमाने में सिद्धहस्त है। कोई कहीं सेंध लगा लेने में माहिर होता है तो कोई देता है जोर का झटका धीरे से। हर तरह के हुनरमंद मौजूद हैं आदमी के साथ।

इस भीड़ का सीधा स्पर्श करने वाला होता है घेरा जिसे अन्तरंग कहा जाता है और जिसकी पैठ रसोई और बाथरूम से लेकर अन्तःपुर और तहखानों तक होती है। इस अहम घेरे में मजेदार श्वेत-श्याम इतिहास से भरपूर ऐसे-ऐसे लोग जमा रहते हैं जिनके बारे में लिखित दस्तावेज कहीं नहीं होता मगर श्रुति परम्परा के जरिये इनका गुणगान सड़कों और चौराहों पर होता रहता है। इनमें वे ही लोग हुआ करते हैं जिनसे घिरे हुए आदमी का ज्यादा से ज्यादा वक्त जाया होता है। कई मर्तबा तो आदमी की पहचान ही यह भीड़ हो जाती है। अन्तःपुर के नुपूरों के संगीत और रंगीन नज़ारों को अपने जीवन के सर्वाधिक कीमती क्षण समझने वाले इन लोगों का पूरा समय उन्हें भरमाने में लगा रहता है जिनके आस-पास ये घेरा बनाकर रहते हैं। आम लोगों की भाषा में इन महान शख़्सियतों को चाटुकारों की उपाधि से नवाजा हुआ होता है।

सारे स्वाँग रचकर भी ये  अपने आदमी को खुश रखने की कला में माहिर हुआ करते हैं। कभी वृहन्नलाओं की तरह तो कभी शकुनि के नक्शे कदम पर चलते हुए ये आनंद देते हैं तो कभी कोई और स्वाँग रचकर। इसे सुरक्षा घेरा या आदमी की किश्तों-किश्तों में मौत का घेरा, कुछ भी कह लें। मगर विशाल व्यक्तित्व वाले आदमी भी इन महारथियों से इस कदर घिरे रहते हैं कि बाहर की ताजी हवाएं और संगीत का कतरा भी इन तक नहीं पहुंच पाता। ‘....अहो रूप अहो ध्वनि’  की तरह घेरे वाले लोग भांति-भांति से मिजाजपुर्सी करते हैं, मालिश-नालिश करते हैं और झूठी वाह-वाही का जयगान करते हुए आदमी को मूर्त्तिमान बनाये रखते हैं। बेचारे आदमी को पता भी नहीं चलता कि उसके इर्द-गिर्द चँवर ढुलाने वाले, छत्र लिये बैठे और लोकप्रियता का हुक्का पिलाने वालों की असलियत क्या है और वे क्या-क्या हरकतें करते रहे हैं।

समय-समय पर हवाओं में बदलाव लाना भी जरूरी होता है। चाटुकारों से घिरे हुए आदमियों का व्यक्तित्व धीरे-धीरे इतना क्षीण हो जाता है कि वह जमाने के साथ अपनी जड़ों से भी कट जाता है। खुद जहाँ है वहीं रह जाता है और जमाना आगे काफी आगे निकल जाता है। जनम-जनम तक साथ निभाने के वादे करने वाली भीड़ और स्वाँगिया अन्तेवासी भी कहीं दूर छिटक कर किसी और आदमी की चम्पी करते दिखाई देते हैं। अपने आपको जानें और ऐसे घेरों से दूर रहें जो आपको जमाने की हलचलों से वाकिफ न होने दें और न सुनने दंे नए जमाने का संगीत। बाहर की हवाओं के रुख से ही पता चलता है मौसम के मिजाज का। आपके आस-पास घेरे भले रहें पर आप न घिरे रहें इन घेरों से। 

इन घुमावदार घेरों से आज तक कोई बाहर नहीं निकल पाया है। जो घेरों से घिर गया वह दफन ही  हुआ है अपने अरमानों के साथ। ये घेरे और ये भंवर तो हर युग में रहे हैं और रहेंगे लेकिन आदमी को तो समझदार होना ही चाहिए, आखिर उसे भगवान ने अक्ल से भी नवाजा है। 

---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077

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